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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त
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मंगलवार, 27 अगस्त 2013

कृष्ण लीला सार.....कृष्ण जन्माष्टमी पर डा श्याम गुप्त के पद.... डा श्याम गुप्त

                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...




 १.
तेरे कितने रूप गोपाल ।
सुमिरन करके कान्हा मैं तो होगया आज निहाल ।
नाग-नथैया,  नाच-नचैया,  नटवर,  नंदगोपाल 
मोहन, मधुसूदन, मुरलीधर, मोर-मुकुट, यदुपाल ।
चीर-हरैया,    रास -रचैया,     रसानंदरस पाल ।
कृष्ण-कन्हैया, कृष्ण-मुरारी, केशव, नृत्यगोपाल |
वासुदेव, हृषीकेश, जनार्दन, हरि, गिरिधरगोपाल |
जगन्नाथ, श्रीनाथ, द्वारिकानाथ, जगत-प्रतिपाल |
देवकीसुत,रणछोड़ जी,गोविन्द,अच्युत,यशुमतिलाल |
वर्णन-क्षमता  कहाँ 'श्याम की,  राधानंद, नंदलाल |
माखनचोर, श्याम, योगेश्वर, अब काटो भव जाल ||
२.
ब्रज की भूमि भई है निहाल |

सुर गन्धर्व अप्सरा गावें नाचें दे दे ताल |

जसुमति द्वारे बजे बधायो, ढफ ढफली खडताल |

पुरजन परिजन हर्ष मनावें जनम लियो नंदलाल |

आशिष देंय विष्णु शिव् ब्रह्मा, मुसुकावैं गोपाल |

बाजहिं ढोल मृदंग मंजीरा नाचहिं ब्रज के बाल |

गोप गोपिका करें आरती,  झूमि  बजावैं  थाल |

आनंद-कन्द प्रकट भये ब्रज में विरज भये ब्रज-ग्वाल |

सुर दुर्लभ छवि निरखे लखि-छकि श्याम’ हू भये निहाल ||


३.
कन्हैया उझकि उझकि निरखे |

स्वर्ण खचित पलना चित-चितवत केहि विधि प्रिय दरसै |

जहँ पौढ़ी वृषभानु लली, प्रभु दरसन कौं तरसै |

पलक पांवड़े मुंदे सखी के, नैन कमल थरकैं |

कलिका सम्पुट बंध्यो भ्रमर ज्यों, फर फर फर फरके |

तीन  लोक दरसन कौं तरसें,  सो दरसन तरसै |

ये तो नैना बंद किये हैं,  कान्हा  बैननि परखे |

अचरज एक भयो ताही छिन,  बरसानौ सरसे |

खोली दिए दृग भानुलली,मिलि नैन, नैन हरषे| 

दृष्टिहीन माया, लखि दृष्टा, दृष्टि खोलि निरखे|

बिन दृष्टा के दर्श श्याम, कब जगत दीठ बरसै ||
४.

बाजै रे पग घूंघर बाजै रे ।

ठुमुकि ठुमुकि पग नचहि कन्हैया, सब जग नाचै रे ।

जसुमति अंगना कान्हा नाचै, तोतरि बोलन गावै ।

तीन लोक में गूंजे यह धुनि, अनहद तान गुंजावै ।

कण कण सरसे, पत्ता पत्ता,  हर प्राणी हरषाये  |

कैसे न दौड़ी आयं गोपियाँ घुँघरू चित्त चुराए |

तारी  दे  दे लगीं नचावन, पायलिया छनकैं  |

ढफ ढफली खड़ताल मधुर-स्वर,कर कंकण खनकें |

गोल बनाए गोपी नाचें,  बीच नचें नंदलाल  |

सुर दुर्लभ लीला आनंद मन जसुमति होय निहाल |

कान्हा नाचे ठुम्मक ठुम्मक तीनों लोक नचावै रे |

मन आनंद चित श्याम’, श्याम की लीला गावै रे ||
५.

कैसी लीला रची गुपाल |

लूटि लूटि दधि माखन खावें, छकि हरषें गोपाल ।

क्यों हमकों दधि माखन वर्जित, मथुरा नगर पठावैं ।

धन सम्पदा ग्राम घर घर की, नंद्लाल समुझावैं ।

नीति बनाऔ दधि माखन जो मथुरा लेकर जाय ।

फ़ोडि गगरिया लूटि लेउ सब, नगर न पहुंचन पाय ।

हम बनिहैं बलवान सन्गठित, रक्षित सब घर द्वार ।

श्याम’ ग्राम सम्पन्न सुखी हों सहैं न अत्याचार  ॥

६.
को तुम कौन कहाँ ते आई
पहली बेरि मिली हो गोरी ,का ब्रज कबहूँ आई
बरसानो है धाम हमारो, खेलत निज अंगनाई
सुनी कथा दधि -माखन चोरी , गोपिन संग ढिठाई
हिलि-मिलि चलि दधि-माखन खैयें, तुमरो कछु चुराई।
मन ही मन मुसुकाय किशोरी, कान्हा की चतुराई
चंचल चपल चतुर बतियाँ सुनि राधा मन भरमाई
नैन नैन मिलि सुधि बुधि भूली, भूलि गयी ठकुराई
हरि-हरि प्रिया, मनुज लीला लखि,सुर नर मुनि हरसाई
 ७.

राधा रानी दर्पण निरखि सिहावैं |

आपुहि लखि, आपुहि की शोभा, आपुहि आपु लजावें |

आदि-शक्ति धरि माया छवि ज्यों माया भरम सजावै |

माया ही माया से लिपटे,  माया  भ्रम  उपजावै |

माया ते जग-जीवन उपजे,  जीवन मरम  बतावै |

ताही छिन छवि श्याम की उभरी, राधा लखि सकुचावै |

इत-उत चहुँ दिशि ढूँढन लागी, कान्हा कतहु न पावै |

कबहु आपु छवि, कबहु श्याम छवि, लखि आपुहि भरमावै |

समुझ श्याम-लीला, भ्रम आपुन, मन ही मन मुसुकावै |

ब्रह्म की माया, माया नाचे, जीवन-जगत  नचावै |
माया-ब्रह्म लीला-कौतुक लखि, श्याम’ सहज सुख पावै || 
८.

कान्हा तेरी वंसी मन तरसाए |

कण कण ज्ञान का अमृत बरसे, तन मन सरसाये |
ज्योति दीप मन होय प्रकाशित, तन जगमग कर जाए |
तीन लोक में गूंजे यह ध्वनि,  देव दनुज मुसकाये |
पत्ता-पत्ता, कलि-कलि झूमे, पुष्प-पुष्प खिल जाए |
नर-नारी की बात कहूँ क्या, सागर उफना जाए |
बैरन छेड़े तान अजानी , मोहनि  मन्त्र चलाये |
राखहु


श्याम’ मोरी मर्यादा, मुरली मन भरमाये ||
  ९.
मुरली काहे बजाओ घनश्याम।

सुबह सवेरे मुरली बाजे , गूंजे आठों याम।

स्वर रस टपके सब जग भीजे, उपजे भाव ललाम।

रस टपके उर गोप-गोपिका, बाढे प्रीति अनाम

रस भीजे मेरी सूखी लकडियां, सास करे बदनाम

श्याम की वन्शी बजे जलाये,पिय मन सुबहो शाम।
पोर-पोर कान्हा को बसाये, नस-नस राधे-श्याम
१०.

काहे मन धीर धरे घनश्याम |
तुम जो कहत ,हम एक विलगि कब हैं राधे श्याम
फ़िर क्यों तडपत ह्रदय जलज यह समुझाओ हे श्याम !
सान्झ होय और ढले अर्क, नित बरसाने घर-ग्राम
जावें खग मृग करत कोलाहल अपने-अपने धाम।
घेरे रहत क्यों एक ही शंका मोहे सुबहो-शाम।
दूर चले जाओगे हे प्रभु! , छोड़ के गोकुल धाम
कैसे विरहन रात कटेगी , बीतें आठों याम
राधा की हर सांस सांवरिया , रोम रोम में श्याम।
श्याम', श्याम-श्यामा लीला लखि पायो सुख अभिराम

१०.
राधे काहे धीर धरो
मैं पर-ब्रह्म ,जगत हित कारण, माया भरम परो
तुम तो स्वयं प्रकृति -माया ,मम अन्तर वास करो।
एक तत्व गुन , भासें जग दुई , जगमग रूप धरो।
राधा -श्याम एक ही रूपक ,विलगि भाव भरो।
रोम-रोम हर सांस सांस में , राधे ! तुम विचरो
श्याम; श्याम-श्यामा लीला लखि,जग जीवन सुधरो।
११.
काहे मुरली श्याम बजाये
सांझ सवेर बजे मुरलिया, अति ही रस बरसाये
रस बरसे मेरो तन-मन भीगे,अन्तर घट सरसाये
रस भीगे चूल्हे की लकडी, आग पकड नहिं पाये
फ़ूंक-फ़ूंक मोरा जियरा धडके चूल्हा बुझ बुझ जाये।
सास ननद सब ताना मारें, देवर हंसी उडाये
सज़न प्रतीक्षा करे खेत पर, भूखा पेट सताये
श्यामबने कैसे मोरी रसोई, श्याम उपाय बताये
वैरिन मुरली श्याम अधर चढि, तीनों लोक नचाये
 

 १२.
ऊधो ! ज्ञान कहौ समुझाय |
कस नचिहै, कस धेनु चरावे, कैसे माखन खाय |
कहो, सुने बाकी मुरली धुनि, गोकुल गाय रम्भाय |
कंकर मारि मटुकिया फोड़े, कैसें  दधि  फैलाय  |
मैया के आँगन में कैसे नचि-नचि जिय भरमाय |
का गोपिन संग रास रचावै, का  वो चीर चुराय  |
कालियनाग को नाथ सके का, फन-फन वेणु बजाय |
श्याम’ कहो ऊधो, का गिरि कौं उँगरी लेय  उठाय ||






 

रविवार, 18 मार्च 2012

इन्द्रधनुष.....अंक छह -----स्त्री-पुरुष विमर्श पर..... डा श्याम गुप्त का उपन्यास.....

                           
     


                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


      
        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास
 (शीघ्र प्रकाश्य....)....पिछले अंक चार  से क्रमश:......
   

                                                      अंक छह 

                               द्वितीय  प्रोफेशनल परीक्षा के बाद क्लास रूम में  प्रोफ. नलिनी पंडित ने पूछा --
        ' हू वाज़ द लास्ट टापर?' ( पिछला टॉपर  कौन था )
        ' सावित्री शर्मा ', एक आवाज़ आई ।
        'कितने मार्क्स मिले हैं अब ?
        '२७६' - सावित्री ने बताया ।
        ' सर्वाधिक किसके हैं ?'
       ' डा कृष्ण गोपाल गर्ग के '  अचानक सावित्री बोल पडी ।
       ' हाऊ मैनी ?'
       ' २७८ ' - सावित्री फिर बताने लगी ।
       ' व्हेयर इज ही ?'.....( वह कहाँ है ) ।
         मैं अपने स्थान पर खडा हुआ तो प्रोफ. पंडित ने कहा , ' बधाई , डा कृष्ण ।'
                   'पर मैडम , न तो अभी मुझे अपने मार्क्स ज्ञात हुए हैं, और न मैं एसा समझता हूँ ।' , मैंने कहा तो सारी क्लास आश्चर्य से देखती रह गयी ।
                ' बट आई हैव सीन इन यूनिवर्सिटी लिस्ट' ,( पर मैंने यूनीवर्सिटी की मार्क्स-लिस्ट में देखा है ) सावित्री ने कहा ।
               ' बट आई डोंट हैव दैट प्रिविलेज ' ( मुझे तो ये सुविधा नहीं है ),  मैंने कहा ।  सारी क्लास हँसने लगी ।  सावित्री का चेहरा झेंप से लाल होगया था ।
       ' बैठ  जाइए ' - प्रोफ. पंडित ने असमंजस में कहा ।
                          सावित्री, नगर के राजनीतिज्ञ- नेता  व विधायक, के एल शर्मा की पुत्री थी ।  क्लास के बाद सुमित्रा ने कहा , 'तुमको कुछ कहने की क्या आवश्यकता थी । जबदस्ती छेड़ने में मज़ा आता है ?'
        ' मुझे पक्का  कहाँ पता था, कैसे मान लेता । '
       ' वाह ! क्या सत्यवान से पाला पडा है । मज़े हैं तुम्हारे तो..... सावित्री  भी..... भई वाह ! '
       'हाउ कम ' ( कैसे पता ),  वैसे क्या ये तुम्हारी ईर्ष्या बोल रही है  या.......।
       'कोई क्यों यूंही दूसरे के मार्क्स देखेगा और भरी क्लास में बताएगा भी ।' सावित्री ने क्यों तुम्हारे नंबर देखे ?
       ' यह सिर्फ टॉपर की कौतूहलवश  जिज्ञासा है और कुछ नहीं । कोई लड़का होता तो वह भी यही करता । और तुम हर एक का नाम मेरे साथ जोड़ने के चक्कर में क्यों रहती हो ?'
      ' पर तुमने उसे बहुत नर्वस कर दिया ।' वह टालती हुई बोली ,' क्या तुम्हें उससे बात नहीं कर लेनी चाहिए ?'
       ' ओ के ' ठीक है ।
       ' चलो हमें उससे बात कर लेना चाहिए ।' सुमि उठते हुए बोली ।
       ' पर तुम क्यों गवाह बनना चाहती हो ? क्या मुझे अकेले बात नहीं करना चाहिए ?'
       ' ओह !  ओह !  हाँ,  बिलकुल ।'  वह हंसते हुए बैठ गयी ।

                          **                    **                        **

         'क्या अपना वृन्दावन - मथुरा नहीं दिखाओगे ?' 
         'मेरा वृन्दावन ! क्या मतलब ?'  मैंने पूछा ।
         'हाँ, हाँ.. कृष्ण गोपाल महाराज जी ।'
          ' तो चलो, कल ही चलते हैं ।'
         ' इतनी शीघ्र फैसला ले लेते हो ?'
         'राधारानी की आज्ञा, फैसले का प्रश्न ही कहाँ उठता है ।'
         'तो  ए. के.  व  सुधा से भी पूछ लिया जाय ?'
         'हाँ अवश्य, क्यों नहीं ।' मैंने  स्वीकृति में कहा ।
                              बिहारी जी के मंदिर में मुझे यूं ही आराम से हाथ बांधे खडा देखा कर सुमित्रा कहने लगी,       'हाथ तो जोड़ लो बिहारी जी के ।'
               'क्यों, क्या हाथ जोड़ने से वास्तव में हमारे सारे दुःख दूर व कार्य बन जाते हैं ? ' मैंने हाथ जोड़ते हुए पूछा।
              ' यह आस्था का विषय है ' ,  सुमित्रा समझाते हुए कहने लगी,   'आस्था एक व्यक्तिगत व समाजगत मनोवैज्ञानिक स्थिति है जो मनुष्य के मन में आत्मविश्वास उत्पन्न करती है ।  स्वयं पर निष्ठा रखना सिखाती है, कि यदि मैंने अपना कार्य पूर्ण निष्ठा व श्रम से किया है तो आगे आप को समर्पित,  अब जो भी हो ।  तभी तो सामान्यत: अपना कार्य सिद्ध न होने पर भी सामान्यजन की श्रृद्धा कम नहीं होती । वह भगवान को व अन्य को दोष न देकर  अपने कर्मों की कमी व भाग्यफल को मानकर पुनः सहज भाव में आगे अपने कार्य में लग  जाता है ।'
            ' तभी  तो  मैं मन में आस्था रखता हूँ ।'
           ' परन्तु व्यक्त होना भी आवश्यक है,  इससे पीछे आने वाले व अन्य लोग प्रभावित, उत्साहित व प्रेरित  होते हैं ।'
          मैं मुस्कुराते हुए चुप रह गया ।
                                   गोवर्धन परिक्रमा मार्ग पर एक ग्रामवासी ने बताया कि  इन्हीं रास्तों पर जब ये पगडंडियाँ  होंगी,  कृष्ण बांसुरी बजाते  तथा  राधा एवं गोपियाँ नृत्य करते हुए,  ग्रामबासियों को नयी नयी बातें व गतिविधियाँ बताया करते थे ।
          मैंने सुमि से पूछा,  ' सुमि ! क्या कहीं से कृष्ण की वंशी की ध्वनि सुनाई दी ?'
        ' इतनी  देर से और क्या सुन रहे हैं ?  रनिंग कमेंट्री,... ये कुसुमा बाग़- जहां कृष्ण-राधा मिला करते थे, कुसुमा-ललिता के साथ ।  यह उद्धव ताल - जहां ऊधो जी ठहरे थे गोपियों से हारने के लिए ।  ये गोवर्धन पर्वत- जहां गोपाल ने गाँव को शरण में लेकर रोज-रोज की चख-चख अति-वृष्टि से बचाया था ।  ये सीधी-सादी राधा का, "राधा-ताल " और यह त्रिभंगी कन्हैया का टेढा -मेढ़ा  नौकुचिया "कृष्ण ताल "। तुम्हारी वंशी तो अनंत काल से बज ही रही है ।' सुमित्रा बोली ।
           'क्या बोर हो रही हो ? '
          ' हूँ ',.....
                                 " कान्हा तेरी मुरली मन हरषाए ।
                                  कण कण ज्ञान का अमृत बरसे, तन मन सरसाये ।
                                  या तन-मन की बात कहूं क्या, सागर उफना जाए ।
                                  बैरन  छेड़े  तान अजानी,   मोहनि-मन्त्र  चलाये ।
                                 मानहु  मर्यादा  मोरी  मोहन, मुरली  मन भरमाये । 
                                                       कान्हा तेरी मुरली मन हरषाए ।।  "

           ' वाह ! वाह ! सुमित्रा, तुम तो कवयित्री बनती जा रही हो ।'  ए.के. ने ताली बजाते हुए कहा ।
            'सब सोहबत का असर है।'  सुधा ने जड़ा ।
           ' अब में क्या कहूं ।  कुसुम बोली , ' जब मन की वंशी बजे तो सब ओर  वंशी-धुनि सजे ।'
            ' मैं धन्य हुआ, कैसे कैसे गुणी, विज्ञ व कलाकारों की संगत में हूँ ।'  मैंने प्रणाम मुद्रा में कहा  । '
           ' हम भी हैं यहाँ, डाक्टर साहब ..' पीछे से आवाज़ आई ।
            मैंने पीछे मुड़कर देखा तो उछल पडा , ' अरे श्री ! तुम, यहाँ ।'
           ' गोवर्धन परिक्रमा देने आये हैं, पिताजी के साथ ।'
           'क्या मन्नत माँगने आये हो कि इस बार तो पार लगा ही दो, हे मुरली बजैया !'
           श्री घूरकर देख ने  लगा, 'क्यों बेइज़्ज़ती करते हो, महिलाओं के सामने ।'
           'अरे हम भी हैं' , सुमि ने नज़दीक आते हुए कहा, 'परिचय तो कराओ ।'
           'हाँ, श्रीनाथ गुप्ता, मेरा इंटर का मित्र ।'
          'आप सब  तो डाक्टर लोग होंगे ।' श्री बोला, 'क्या कलियुग के कृष्ण के प्रबचन सुन कर बोर नहीं होरहे ?'
          ' ये परिक्रमा क्यों करते हैं ?' सुधा पूछने लगी ।,
          'यही आपके ज्ञानी जी बताएँगे । मैं क्या बताऊँ ।' अब बताओ, उसने मुझे इशारा किया ।
                            ' परिक्रमा. अर्थात परिक्रमण या परिभ्रमण, एक अर्थशास्त्रीय- समाज शास्त्रीय क्रमिक व्यवस्था है ।  किसी स्थान, पीठ या दैवीय शक्ति के उद्गम, विस्तार, उसकी महत्ता, वहां की सामाजिक- आर्थिक  स्थिति के बारे में पूरा देश जान सके - वह क्यां क्यों है, कब से है, उसके युक्ति-युक्त अर्थ व प्रयोजन का सम्पूर्ण परिक्रमित ज्ञान;   न कि सिर्फ चक्कर लगा कर चल देना;  ताकि देश का प्रत्येक नागरिक देश के उस प्रदेश, क्षेत्र व सभी स्थानों की स्थिति के जानकार हों तथा उसकी उन्नति में सुझाव व सहायता से योगदान कर सकें  और सामाजिक एकता  व राष्ट्रीय समरसता बढे ।  लगभग सभी धार्मिक पीठों का यही क्रम है ताकि वहां देश भर के लोग आयें,  उस स्थान का आर्थिक  विकास हो । उसी के साथ समाज, देश व मानवता का विकास जुड़ा हुआ है ।' मैंने विस्तार से बताया ।
           ' मान गए गुरू' ,  श्री बोला,  ' लगे रहो, लगे रहो ।  मैं चलता हूँ,  नहीं तो साथ के लोग अधिक आगे निकल जायेंगे ।  जब चक्कर में पडा  ही  हूँ तो चक्कर लगा ही लूं ।'
          ' ये क्या करता है?',  अचानक सुमित्रा ने पूछा ।
          'रोड-इंसपेक्टरी ',  'बी ए में दो बार फेल होकर धक्के खारहा है ।'
          'वाह ! क्या कृष्ण-सुदामा की जोड़ी है ।'  और ऐसे कितने मित्र हैं तुम्हारे ?
          ' लोकल हूँ भई,  और चुंगी वाले स्कूल से ।  धोबी, नाई, सब्जी वाले, दुकानदार, दूधवाले, पड़ोसिनें, बचपन की सखियाँ - सभी को झेलना-निभाना होता है ।  अपनी तो आदत ही ख़राब है, अब भी वही हाल है ।'
          सब हँसने लगे, सुमित्रा मुस्कुराकर चुप होगई ।
         ' क्या हम सब चलने ही चलने आये हैं या बैठकर आपस में कुछ हंसें बोलें भी ।'  कुसुम ने थकी थकी आवाज में कहा ।
        ' तो अब तक क्या होरहा था?' मैंने कहा,  ' हाँ. जिन्हें आपस में स्पेशल हंसना-बोलना हो तो करें ।'
        ' चलो थर्मस निकालो, चाय पीते हैं, बैठकर' , पेड़ तले बैठती हुई सुमित्रा बोली  ।

                **                                     **                                        **

                               प्रोफ़ेसर सचान बहुत धीमे बोलते थे, परन्तु उनके व्याख्यान बहुत महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर होते थे ।  सभी पढ़ाकू छात्र उनकी क्लास में आगे बैठना चाहते थे ।  यहाँ तक कि कभी-कभी तो आधी से अधिक क्लास आठ बजे के लेक्चर के लिए सात बजे ही  आकर बैठ जाती थी ।  लड़कियों-लड़कों,  होस्टलर -डे स्कोलर ..में क्लास में जल्दी पहुँचने की प्रतियोगिता रहती थी  और कभी सब आगे कभी पीछे होते रहते थे ।
                 जब सुमि और मैं तेजी से आकर आगे की सीट पर बैठ गए तो पीछे से ए.के. जैन ने कमेन्ट मारा,        'चुंगी के स्कूल वालों की समझ में देर से आता है,  आगे बैठना आवश्यक है ।  कान्वेंट में पढ़ने से अक्ल की आँखें खुल जाती हैं और दौड़कर आगे बैठने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।'
            ' हुज़ूर, बड़े बाप के बेटे हो, पढ़ कर करोगे भी क्या ?  बाप की चलती हुई क्लिनिक चला लेना ।'  मैंने कहा,  ' वैसे अंग्रेज़ी बोलने और टाई लगाने के अलावा वहां पढ़ाया ही क्या जाता है ,  कान्वेंट में,  बहुत सी फीस लेकर ।'
            'सुमित्रा दार्शनिकों के से अंदाज़ में कहने लगी,  'मेरे ख्याल से सभी इंगलिश स्कूल बंद कर दिए जाने चाहिए ।  सारे प्राइमरी स्कूल सरकारी नियंत्रण में या सामाजिक संस्थाओं द्वारा  या सरकार द्वारा बिना फीस के चलाये जाने चाहिए ।  कोई प्राइवेट स्कूल नहीं होना चाहिए ।  सभी स्कूलों में समान कोर्स,  समान पढाई व फीस होनी चाहिए ।  नहीं तो क्या पता आगे चलकर ये प्राइवेट स्कूल भी एक व्यवसाय ही बन जाय ।'
         ' अपने ख्याल अपने पास ही रखो, हेड मास्टरनी जी ।'  किसी ने पीछे से कमेन्ट किया ।
        ' चुप चुप '  पीछे से अन्य आवाज़ आई,  ' प्रोफ़ेसर साहब आगये ।'

               ....................  अंक छः समाप्त ......क्रमश: अंक सात .... अगली पोस्ट में .....