....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
भाषा, हिन्दी, छंद, साहित्य एवं काव्य –----हिन्दी दिवस पर विशेष
भाषा
..
संकेतों की ध्वन्य एकार्थ (मोनोसिलेबिक ) भाषा .में अलग-अलग चिन्ह या अक्षर में
पूर्ण अर्थ निहित होता है यथा – प =पानी तथा
.....सम्मिश्र (एग्लूटीनेटेड) = जिसमें अक्षर यूंही जोड़कर अर्थ व कथ्य बनाते हैं यथा...
प+न = पानी ..एवं . उन्नत भाषा जिसमें...वैज्ञानिक उन्नत शब्द युग्म होते हैं ..जो
भावों के प्रदर्शन में सक्षम हैं उसे भाव- समन्वयक (इन्फ्लेक्टेड)
भाषा कहा गया है|
यह उन्नत भाषा सेमेटिक एवं इंडो-योरपियन
दो मूल भागों में वर्णित की गयी है जिसमें
सेमेटिक
---द.प.एशिया ..हिब्रू, अरबी, मिस्री आदि में आधुनिक समय में ...सिर्फ अरबी
बची है... एवं
इंडो-योरोपियन
जो वस्तुतः आर्यन-संस्कृत है जो विश्व की प्राचीनतम
भाषा है जो ...
(अ).आर्यन...
इंडियन --->वैदिक संस्कृत--->लौकिक संस्कृत---> भारतीय भाषाएँ --->
हिन्दी ....तथा ईरानियन -
अवेस्तन संस्कृत हुई |
(ब) ग्रीक व इटेलिक परिवार ..लेटिन –-> योरोपियन
भाषाएँ ...एवं
(स) स्लाविक, लेटिक,
सेल्टिक – भाषाओं में विकसित हुईं | अर्थात संस्कृत विश्व की प्राचीनतम
व सर्वप्रथम उन्नत भाषा है और हिन्दी उसकी आधुनिकतम शाखा है |
हिन्दी
१.पूर्व गांधी काल २. गांधी युग ३. नेहरू युग ४. वर्त्तमान
परिदृश्य .... गोस्वामी तुलसी दास जी ने
सर्वप्रथम 'रामचरित मानस' संस्कृत की अपेक्षा हिन्दी में रचकर हिन्दी को भारतीय जन-मानस
की भाषा बनाया हिन्दी तो उसी समय राष्ट्र भाषा होगई थी जब घर-घर में राम
चरित मानस पढी और रखी जाने लगी ‘भारतेंदु युग’ , ‘द्विवेदी युग’ में हिन्दी के
प्रचार-प्रसार से देश भर में हिन्दी का प्रभाव लगातार बढ़ता रहा यहाँ तक कि एक समय
मध्यप्रांत में एवं बिहार में हिन्दी निचले दफ्तरों व अदालतों की सरकारी भाषा बन
चुकी थी| मैकाले की नीति से
रंग व रक्त में हिन्दुस्तानी किन्तु रूचि, चरित्र, बुद्धि व चिंतन
से अंग्रेजों की फौज खडी करने के लिए अंग्रेज़ी का प्रचार-प्रसार व हिन्दी की
उपेक्षा से हिन्दी विरोधी पीढियां उत्पन्न हुईं ....हिन्दी के पिछड़ने की परिस्थितियाँ
उत्पन्न हुई |
गांधी जी के आविर्भाव के युग में हिन्दी को लगभग सारे
राष्ट्र ने खुले दिल से स्वीकार किया | बाद में वे स्वयं हिन्दी की बजाय
हिन्दुस्तानी के पक्षधर होगये और हिन्दी के
प्रचार-प्रसार को धक्का लगा | कांग्रेस पर विदेशों में पढ़े लिखे व अंग्रेज़ी पढ़े
लोगों के वर्चस्व से नेहरू जी के आविर्भाव के युग में हिन्दी विरोध
के स्वर मुखर होने लगे|
आज़ादी के बाद
महत्वपूर्ण पदों पर अंग्रेज़ी में पारंगत व पाश्चात्य जीवन शैली वाले व्यक्तियों के
पहुँचने से जनता में यह सन्देश गया कि अंग्रेज़ी के बिना देश का काम नहीं चलेगा|
यद्यपि दक्षिण भारत सहित पूरे देश में हिन्दी का कहीं विरोध नहीं था |
आज हिन्दी भाषा
का परिदृश्य यह है कि यद्यपि देश में सिर्फ २-३ % लोग अंग्रेज़ी जानने वाले
हैं तथा साक्षरता विकास के साथ-साथ हिन्दी के समाचार पत्रों आदि का वितरण अंग्रेज़ी
समाचारपत्रों की अपेक्षा काफी बढ़ रहा है, उत्तर से दक्षिण,पूर्व से पश्चिम समस्त
देश में हिन्दी बोली, पढ़ी व समझी जाने लगी है ; परन्तु नव-साक्षरों का
सांस्कृतिक स्तर सामान्य ही है, उनमें उच्च
सांस्कृतिक कृतियाँ पढ़ने-समझने की क्षमता नहीं है| इसका कारण है
कि हिन्दी के राजभाषा होते हुए भी, समाज के सबसे ऊपरी श्रेष्ठ व्यक्तित्व एवं
निर्णय करने वाले उच्च अधिकारी की भाषा आज भी अंग्रेज़ी है,
उनके प्रेरणा श्रोत व आदर्श पश्चिमी विचार व साहित्य है|
आज अंग्रेज़ी सिर्फ
हिन्दी ही नहीं अपितु क्षेत्रीय भाषाओं को भी प्रभावित कर रही है| माताओं
के अंग्रेज़ी भाषी होने से बच्चों की घरेलू भाषा अंग्रेज़ी होती जारही है|
भोजपुरी, अवधी, आदि हिन्दी की विविध
क्षेत्रीय बोलियों को पृथक भाषा के रूप में प्रस्तुत करने से हिन्दी के प्रसार में
बाधा हिन्दी का एक और दुर्भाग्य है |
छंद .. छंदोबद्ध-कविता, अतुकांत-छंद व
अगीत छंद.... -
बचपन में हम जो पिता, माता, गुरु कहते हैं वही करते हैं, वही कर पाते हैं नियम और अनुशासन का पालन करते हैं, और वही करना ही चाहिए | बड़े होने पर वे ही बच्चे माँ, पिता, गुरु से भी आगे निकल जाते हैं, पुरा से आगे नए-नए क्षितिज निर्माण करते हैं | स्वयं गुरु भी बनते हैं | उसके लिए बचपन में अनुशासन का पालन करना एवं पुरा अनुभव व ज्ञान को मान्यता देना आवश्यक होता है | सीढी के पिछले पायदान पर खड़े होकर अगले पायदान पर चढना ही प्रगति है | मूल प्राकृतिक व मानवता के शाश्वत नियम जिन्हें कभी भी,
कोई भी नहीं बदल सकता एवं उनके क्रियान्वन नियम दोनों में अंतर होता है और वे क्रियान्वन नियम समयानुसार
बदले जा सकते हैं, बदलने ही चाहिए आवश्यकता
एवं युगानुसार
... यही प्रगति है |
यही
बात काव्य व साहित्य के परिप्रेक्ष्य में भी सत्य है, काव्यानुशासन व छन्दानुशासन के लिए भी है |
आखिर काव्य है क्या..... गद्य क्या है..कविता क्या है
? मानव ने जब सर्व प्रथम बोलना प्रारम्भ किया होगा तो वह गद्य-कथन ही था, तदुपरांत गद्य में गाथा | अपने कथन को विशिष्ट, स्व व पर आनन्ददायी, अपनी व्यक्तिगत प्रभावी वक्तृता व शैली बनाने एवं स्मरण हेतु उसे सुर,लय, प्रवाह, व गति देने के प्रयास में पद्य का, गीत का जन्म हुआ | चमत्कार पूर्ण व और अधिक विशिष्ट बनाने हेतु विविध छंदों की उत्पत्ति हुई और तत्पश्चात छन्दानुशासन
की | विश्व में सबसे प्राचीनतम वैदिक साहित्य में गद्य व पद्य दोनों ही अनुशासन उपस्थित हैं दोनों ही अतुकांत छंद, तुकांत छंद, विविध छंद युक्त एवं लय, गति, गेयता व ताल-वृत्तता से परिपूर्ण हैं | कालांतर में समय-समय पर उत्तरोत्तर जाने कितने नए-नए छंद आदि बने, बनते गए व बनते रहेंगे | अर्थात अनुशासन
व
नियम
कोई
जड
तत्व
या
संस्था
नहीं
अपितु
निरंतर
उत्तरोत्तर
प्रगतिशील
भाव
है | व्यष्टि व समष्टि नियम के लिए नहीं अपितु नियम व अनुशासन व्यष्टि व समष्टि के लिए होते हैं एवं उनके अनुरूप होते हैं | काव्य-विधा या कविता का मूल भाव-तत्व सुर,
लय व गेयता है
| अन्य
सब
उप-नियम व विधान आदि परिवर्तनशील हैं| अतः यदि कोई कविता या पद्यांश
सुर, लय व गेयता युक्त है,
आनंदमय है - तो वह काव्य है और वह किसी भी विशिष्ट छंदीय मूल उपविभागों
में अवस्थित
है तो उस विशिष्ट
विधा व छंदों के उपनियमों आदि की अत्यधिक
चिंता नहीं करनी चाहिये ...अन्यथा यह जडता स्वयं उस छंद आदि, विधा, भाषा व साहित्य के लिए प्रगति
में बाधक होती है |
खांचों में बंटा साहित्य
आजकल साहित्य के क्षेत्र में विशेष…..कारों के विभिन्न खांचे बन गए हैं जिनमें फिट न बैठने वाले कवि, लेखक, साहित्यकार को कोई पूछता ही नहीं | अब व्यंगकार हैं, हास्य-कवि हैं, हास्य व्यंगकार हैं, स्त्री-विमर्श लेखक हैं...लेखक हैं ..लेखिकाएं हैं, कवि-कवियत्री हैं...गद्यकार है पद्य रचनाकार हैं .....दलित-लेखक-कवि-साहित्यकार हैं ...ओज के, श्रृंगार के,...छंदकार,
सनातन-छंदकार, दोहाकार, गीतकार, नव-गीतकार, भजन गायक, कहानीकार, उपन्यासकार , बाल साहित्यकार , निबंधकार , समीक्षाकार हैं.... नयी विधा के कवि...अगीतकार भी हैं जो यद्यपि एक अलग किस्म की ही विधा है अतः स्थापित कवि व साहित्यकार ही अगीत लिख पारहे हैं| अब तो प्रिंटर , प्रकाशक, सम्पादक, संवाददाता, संवादवाहक, समाचारपत्र विक्रेता, कालम लेखक आदि सभी साहित्य-लेखक होगये हैं | इन खांचों
के बीच में
जो एक साहित्यकार नाम का
सम्पूर्ण सामाजिक जीव
हुआ करता था
जो साहित्य
की हर दिशा,
हर विधा पर
दखल रखता था
कहीं दिखाई ही
नहीं पड़ता |
पुरा युग से
स्वतन्त्रता पूर्व के युग तक विद्वान् गद्य व पद्य सभी विधाओं में कहा-लिखा-रचा करते थे वे पूर्ण साहित्यकार थे | हिन्दी में भी सभी विद्वान् साहित्यकार गद्य, पद्य, कहानी, कथा, उपन्यास सब कुछ लिखा करते थे | उर्दू साहित्य के अवतरण के साथ सभी साहित्यकार ग़ज़ल, गीत, गद्य-पद्य सभी कुछ लिखने लगे| आज़ादी के प्रारम्भिक समय में भी साहित्यकार सर्व-विधायी थे |
वे सम्पूर्ण साहित्यकार
थे | परन्तु आज़ादी के फल मिलते ही सभी क्षेत्रों की भांति साहित्य में भी तेजी से प्रगति हुई और साहित्य जाने कितने नए-नए खांचों में बंटने लगा |
मुझे याद है कि हिन्दी के प्रश्नपत्रों में ---तुलसी की सामाजिक दृष्टि, तुलसी का बात्सल्य वर्णन, तुलसी का श्रृंगार, तुलसी की दलित चेतना , तुलसी की नारी, तुलसी के छंद-शास्त्रीय समीक्षा, भारतेंदु के नाटकों की समीक्षा, भारतेंदु की कविता का सौंदर्य.... प्रसाद की कविता में नारी, प्रसाद की औपन्यासिक दृष्टि...आदि आदि प्रश्न पूछे जाते थे.....| अब कहाँ एसे सम्पूर्ण साहित्यकार ? अब तो दलित चेतना के कवि.... स्त्री-विमर्श के लेखक , आज की नारी लेखिकाएं, प्रगतिशील साहित्य के लेखक , प्रगतिवादी कवि...गीतकार,... छंदकार, दोहाकार ...व्यंगकार,
हास्य-कवि आदि विशेष-ज्ञाता, विशेषज्ञता (या.विशेष+अज्ञता) के विभिन्न खांचों में बंटे “कारों” की बात होती है |
काव्य क्या है....
सभी के अनुभव व विचार लगभग समान ही होते है | ज्ञान भी सामान हो सकता है परन्तु विचारों की
गंभीरता, सूक्ष्मता, निरीक्षण की गहनता,
चिंतन, व अभिव्यंजना सभी की पृथक पृथक होती है | इसीलिये
मानव समूह में साहित्यकार,
विद्वान्, विचारक, चिन्तक, ज्ञानी, सामान्य आदि वर्ग होते हैं| यथा ...
सर्व
ज्ञान संपन्न विविधि नर,
सभी एक से कब
होते हैं |
अनुभव श्रृद्धा
तप व भावना,
होते सबके भिन्न
भिन्न
हैं |
भरे जलाशय ऊपर
समतल,
होते ऊंचे -नीचे
तल में || ---शूर्पणखा काव्य-उपन्यास से
सामान्य व्यक्ति की भाषा विवरणात्मक होती है तो कवि की भाषा में विशिष्टता व भावों व शब्दों की संश्लिष्टता होती है सामान्य भाषा में जो तथ्य मान्य नहीं हो सकते वे काव्य की
भाषा में भावालंकार रूप में सौन्दर्ययुक्त व मान्य माने जाते हैं | कविवर रविंद्रनाथ
टेगोर का कथन है कि...
‘हृदयवेग में जिसकी सीमा नहीं मिलती उसको व्यक्त करने के लिए सीमाबद्ध भाषा का घेरा तोड देना पडता है, यह घेरा तोड देना ही कवित्व है।‘
सामान्य भाषा में निश्चित अर्थात्मक तथ्य होते हैं, यथा.... मनुष्य चलता है, पेड़ों की डालियाँ हवा में हिलती हैं, चिडिया उड़ती है, घोड़ा दौडता है आदि..... वहीं कविता में पेड डालियाँ रूपी गर्दन हिलाते हैं, घोड़ा हवा से बातें करता है | अर्थात काव्य में जड़ तत्वों
की भाव ग्राहयता के साथ सौन्दर्य भी है। सामान्य भाषा को विशिष्ट भाव-शब्द देने के कारण उत्पन्न होने वाली सौन्दर्यमय, भाव-सम्प्रेषणात्मकता
युक्त सर्जनात्मक भाषा कविता व साहित्य की भाषा है। कविता में भाषा की सर्जनात्मकता, भाषा व कथ्य के निश्चित अर्थ के विपरीत शब्द-भावों का लाक्षणिक प्रयोग करके भिन्न सौन्दर्यमय
अर्थवत्तात्मकता उत्पन्न की जाती है। यही काव्य है।
१४-०९-२०१३ बेंगलोर