....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
बहुत ऊपर उठ गए हैं हम......
विश्व मानव समाज की जीवन-पद्धति सदैव
ही मूलतः दो सामाजिक विचार-धाराओं से नियमित होती आई है -- एक धर्म-प्रधान,
दूसरी धर्म-विरोधी, जिन्हें दैवीय
व आसुरी विचार धारा भी कहा जाता है | व्यवहार में ये धार्मिक या ईश्वरवादी
दार्शनिक विकासवाद एवं मूलतः अनीश्वरवादी, भौतिकवादी, वैज्ञानिक-विकासवाद की
धाराएं हैं| ये विचारधारायें प्रायः
अतिवाद में परिणत होकर रूढ़िवादी धार्मिक विचारधारा एवं अति-भौतिकवादी विचारधाराएँ
बन जाती हैं और देव-दानव, सुर-असुर, पुरा-नवीन के युद्ध समाज में प्रत्येक स्तर पर
चलते रहते हैं जो मानवता के सर्वांगीण विकास में बाधा उपस्थित करते हैं|
भारत में वैदिक-विचारधारा की अवधारणा का
तीसरा तत्व विकसित हुआ जो सिर्फ भारत में ही फला-फूला एवं भारतीय सभ्यता की
विश्ववारा संस्कृति का वैशिष्ट्य बना और पुरा-काल से आज तक विश्व-समाज का
नीति-निर्देशन करता आया है, जगद्गुरु की उपाधि धारण करके | यह धारा दैवीय
विचारधारा का ही उन्नत व समन्वित रूप है जो दार्शनिक व वैज्ञानिक विकासवाद
के समन्वय की धारा है, धर्म-अध्यात्म व भौतिकता के समन्वित व्यवहार की
धारा जो व्यक्ति के कर्म, पुरुषार्थ के साथ साथ सामाजिकता के परमार्थ एवं धर्म व
ईश्वर-प्रणनिधान से अभिसिंचित होती है | जिसे वैदिक साहित्य में....
“
विद्यान्चाविद्या यस्तदावेदोभय सह,
अविद्ययाम मृत्युं तीर्त्वा,विद्ययां अमृतंनुष्ते ||” ........(.ईशोपनिषद )
से उद्घोषित किया गया | समस्त राजनैतिक, नैतिक,
सामाजिक, व्यवहारिक कृतित्व इन्हीं विचारधाराओं से प्रचालित होते हैं |
भारत जब विदेशी-योरोपीय दासता से स्वतंत्र हुआ तो उसके सम्मुख विश्व-पटल
सहित तीन प्रमुख धाराएं थीं, तीन राजनैतिक राहें थीं चलने हेतु...
१.-----एक स्वदेशी,
पुरातन भारतीय वैदिक धारा-- जो भौतिकता, यथार्थ, नव-वैज्ञानिकता एवं पुरातन
शास्त्रीयता की ईश्वरीय-भाव की समन्वित प्रणाली, धर्म, ज्ञान, दर्शन के साथ-साथ
भौतिक प्रगति की प्रदर्शक, उदारचेता, सर्वजन-हिताय, यथायोग्य कर्तव्य व अधिकार की
समर्थक...शनैः शनैः प्रगति के ठोस पथ पर चलने वाली वैदिक सभ्यता की राह ...जिसे नव-प्रगतिवादी पुरातनपंथी राह भी कह सकते थे|
२.-----दूसरी शीघ्रातिशीघ्र फलोत्पन्न
वाली तेजी से वैज्ञानिक प्रगति हेतु, अति-भौतिक उन्नति युत, धर्म-ईश्वर की
अपेक्षा व्यक्तिनिष्ठ, सिर्फ कर्मनिष्ठ सभ्यता की राह जो योरोप-अमेरिका की
नक़ल की संस्कृति थी |
३.----- एक अन्य तृतीय राह थी नयी
दुनिया, नए भाव-विचारों से युक्त, उंच-नीच रहित, मजदूर-श्रमिक प्रधान, समान अधिकार
वाली कम्युनिस्ट विचारों की राह जो रूस की क्रान्ति-प्रतिक्रांति की उपज थी
|
गुलामी, मैकाले की शिक्षा-नीति व पुरा-भारतीय साहित्य, शास्त्र व पुस्तकालयों
के विनाश से पीड़ित, आहत-मन भारतीय, स्व-संस्कृति से ही अनजान थे| अंग्रेज़ी व योरोप में दीक्षित पढ़े-लिखे
भारतीय जो स्व-संस्कृति से अनभिग्य थे एवं विदेशों की चकाचौंध से गुमराह थे उनका
कांग्रेस में वर्चस्व था| स्वयं गांधीजी भी योरोपीय सभ्यता-संस्कृति से चमत्कृत
थे, योरोप में पढ़े-लिखे एवं विदेश में वकालत स्थापित करने वाले गांधीजी
व्यक्तिगत अपमान के प्रतिक्रया-स्वरुप भारत लौटे, भारतीय होकर | सरदार बल्लभभाई पटेल
व उनके साथी भारतीय परम्परावादी थे | गांधीजी एवं कांग्रेस ने योरोपीय
विचारधारा वाले पंडित नेहरू को चुना | शीघ्र ही हमने नक़ल की संस्कृति की तत्वर
भौतिक-वैज्ञानिक उन्नति की योरोपीय प्रणाली की राह के विकल्प को चुन लिया और
देश तेजी से वैज्ञानिक विकासवाद की राह पर चल पडा |
आज
देश भौतिक प्रगति के चरम पर है | बहुराष्ट्रीय कम्पनियां, कर्मचारियों को मोटी-मोटी
पगार ऊंचे-ऊंचे बहुमंजिली भवन, केम्पस, अमेरिका-योरोप से कम नहीं हैं | बड़े-बड़े
मॉल ( बहुमंजिले -मल्टी-पर्पज बाज़ार—पुराने नानबाइयों की भांति) में बिना मोल-भाव
खरीदारी, ओनलाइन बिना देखे खरीदारी फिर चार-चार बार के ट्रांजेक्शन और भारतीयों को
गालियाँ देकर जाहिल बताकर हम ऊंचाइयां छू रहे हैं |
बच्चों, युवाओं व महिलाओं के रहन सहन, वस्त्र, नौकरी, व्यापार सभी में
उन्नति हुई है | वे नई-नई ऊंचाइयां छू रहीं हैं | सभी अमेरिकन, अंग्रेज़ी पुस्तकें,
गीत, कविता, सोंग्स पढने व गाने-समझने लगे हैं | हमारे बाज़ार, सेंसेक्स,
स्टॉक-एक्सचेंज, शेयर अमेरिकी बाज़ार से निर्देशित होते हैं| उपभोग की वस्तुएं
...टीवी , कम्प्युटर,मोबाइल सभी कुछ जैसे
ही अमेरिका में ईजाद होते हैं ...सबसे बड़ा उपभोक्ता व बाज़ार भारत ही होता है | हम
व हमारा देश, समाज, राष्ट्र भौतिक प्रगति व वैज्ञानिक ज्ञान में भी प्रत्येक
प्रकार की ऊंचाइयां छूता जा रहा है, भले ही वह नक़ल हो परन्तु है प्रगति |
हम व्यवहार में भी इतने ऊंचे उठ गए है कि -----
१.
हमारे बच्चे-युवा
अंग्रेज़ी, अमेरिकन, योरोपियन पुस्तकें, गीत, कविता, सोंग्स समझने-गाने लगे हैं |
हिंदी या मातृभाषा नहीं जानते-पहचानते; युवा विदेशी वस्तुएं ही खरीदते हैं व उपयोग
करते हैं...देशी वस्तुओं को स्तरहीन बताते हैं | पहले उनके आदर्श गांधी,
सुभाष, राम, कृष्ण, रामायण, गीता, सीता, सावित्री, तानसेन हुआ करते थे; अब करीना,
शाहरुख, फ़िल्में व फिल्मों के अधनंगे लोग या समलैंगिक लोग होते हैं |
२.
पहले.... हमारे यहाँ गरीब
भिखारी एक पैसा मांगता था, पढ़े-लिखे लोग उसे हिकारत की
नज़र से देखते थे और अपने देश को गाली देते थे |
---अब
चन्दा के ज़रिये जबरदस्ती भीख माँगी जाती है, माफिया बन्दूक के जोर पर भीख (
उगाही, हफ्ता ) बसूलते हैं, नाच-गाकर खुशी-खुशी पेट भरने वाले हिज़ड़े जबरदस्ती भीख
रूपी बसूली करते हुए घर, गली, गाँव, मोहल्ला, सड़क, रेल में देखे जा सकते हैं|
बच्चों को अपंग बनाकर भीख मंगवाने वाले गिरोह हैं यह भी सभी जानते हैं|
३.
पहले... छोटे-मोटे लोग ...चोर-उचक्के-उठाईगीरे राह-ठग,
चोरियां करते थे...डकैत साहूकारों से धन लूटकर जनता में बाँटते थे ....
आज-----बड़े-बड़े लोग.. अफसरों, नेताओं, मंत्रियों, पुलिसवालों, जजों, व्यापारियों, डाक्टरों, टीचरों के बेटे-बेटियाँ अपहरण, लूट, डकैती, गोलीकांडों में पकडे जा
रहे हैं|
४.
पहले... छोटे-मोटे बाबूलोग, काम के बदले वक्शीश मांग
लिया करते थे, कभी कभी रिश्वत भी ...परन्तु उन्हें बड़ी हेय दृष्टि से देखा जाता था
|
---- आज
....मंत्री, नेता, चीफ-जस्टिस ,अफसर, चिकित्सक, व्यापारी, सेना के अफसर, कम्पनियां
रिश्वत लेते हुए व भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाते हैं|
५.
पहले ... गली के टुच्चे-मुच्चे शोहदे, दुष्ट प्रकृति के
निम्न श्रेणी के लोगों द्वारा छेड़-छाड़, अश्लील बातें, फब्तियां व कभी कभी
वलात्कार जैसे कृत्यों को सुना जाता था ...
----आज.... सभी बड़े बड़े महान लोग- मंत्री, नेता, चीफ
जस्टिस, ,डाक्टर,अफसर, टीचर, प्रोफ़ेसर, प्रिंसीपल, सेवा-नियोक्ता, सेवा-योजक,
मीडिया-पत्रकार, साथी, मित्र, सहकर्मी, कंपनियों में ...सभी छेड़-छाड़ व बलात्कार
आदि में लिप्त पाए जा रहे हैं |
सचमुच ही आधुनिक प्रगतिशील हम, कितने ऊपर उठ गये
हैं आज |
“ हम कौन थे क्या होगये
और क्या होंगे अभी | “
4 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर अर्थ ,व्यंग्य लिए है रचना। बदलाव बेहूदा बहुत अखरता है।
सरदार बल्लभभाई पटेल व उनके साथी भारतीय परम्परावादी थे | गांधीजी एवं कांग्रेस ने योरोपीय विचारधारा वाले पंडित नेहरू को चुना |
हमने अपने केन्द्र सिकोड़ लिये हैं, अब हम अपने ही चारों ओर घूमते रहते हैं।
सही कहा पांडेजी...हम सिर्फ अपने तक ही सिमट कर रह गए हैं ... स्व को भूलकर स्वकेंद्रित ...
अखरेगा तो है ही वीरेन्द्र भाई.....बड़े बड़े लोग इस सब अनाचार में सम्मिलित होगये हैं...
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