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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

मेरी फ़ोटो
Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

ये होता तो वो होता .

ये होता तो वो होता,
यूँ होता तो ये होता ,
ये न हुआ तो वो न हुआ ,
यूँ न हुआ तो क्यों न हुआ।
यह भी कोई बात हुई ,
बात बात की बात हुई।
यह मत सोचो ये न हुआ ,
ये न हुआ तो क्यों न हुआ।
सोचो हमने किया है क्या?
जग को हमने दिया है क्या?
क्यों न देश हित कार्य किया?
क्यों न सत्य -परमार्थ जिया?
तू करता तबतो होता ,
तूने एसा क्यों न किया?

डॉ श्याम गुप्त

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

विधान सभा चुनाव परिणाम

लोकल व अपने व्यक्तिगत लाभ के पक्ष मैं वोटिंग है। राष्ट्रीय मुद्दों पर कोई नहीं सोच रहा ।

सोमवार, 8 दिसंबर 2008

हिंदू धर्म -पंथ निरपेक्ष

आजकल ही नहीं , सदैव से ही हिंदू धर्म पर यह आक्षेप लगते रहे हैं किहिंदू संगठित व एक नहीं होते , स्वयं हिंदू लोग व हिंदू संगठन ही आलोचना करते रहे हैं कि हम एक नहीं हैं । वास्तव मैं हिंदू धर्म पंथ -सापेक्षी धर्म नहीं है , वह अन्य धर्मों की भांति किसी एक व्यक्ति, या विचारधारा या पुस्तक के पीछे नहीं चलसकताअपितु वह सदा सत्य व धर्म पर चलने वाला धर्म है। अतः किसी एक आवाज़ के पीछे नहीं चलता । सत्य के पीछे ही चलता है। ---सत्यम वदधर्मं चर जो शाश्वत विचार धारा व जीवन धारा है।

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

जोड़ने का धर्म -अनहद हिन्दु-समा.

हाँ हिन्दु धर्म जोड़ने का धर्म है। सामान्य समाज धर्म मैं यह मध्यम मार्गीय है। परन्तु आपातकाल मैं आपद धर्म अपनाना होता है। वह सदैव उच्चव कठोर अतिवादी मार्ग से ही सफलता दिलाता है। राम ,कृष्ण व गांधी ने शौर्य ,प्रेम ,भक्ति व कूटनीति तथा अहिंसा के अतिवादी मार्ग से ही सामाजिक परिवर्तन किए थे। वे सर्वकालिक नेता व सुधारक हुए । अतः ६ दिस .हिन्दु समाज को जोड़ने का दिन था । सम्भ्र्मों व असंगत तुष्टीकरण को बंद कियाजाना चाहिए । विद्वजन सोचें व समझें।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

आतंकवाद= दिलों की दूरी

प्रीतिका एक दीपक जलाओ सखे !
देहरी का सभी तम् सिमट जायगा ।
प्रीति का गीत यदि गुनगुनाओ सखे !
ये ह्रदय दीप भी जगमगा जायगा ।
ये अँधेरा है क्यों ,
विश्व मैं छारहा ?
साया आतंक का ,
कौन बिखरा रहा
राष्ट्र के भाव अंतस सजाओ सखे !
ये कुहासा तिमिर का भी छंट जायगा ।
मन मैं छाया हो ,
अज्ञान- रूपी तमस
सूझता सत-असत,
भाव कुछ भी नहीं।
ज्ञान का दीप तो इक जलाओ सखे !
वाल - रवि से छितिज़ जगमगा जायगा।

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

कृष्ण की आवश्यकता है.

कृष्ण जो नेत्रत्व को मोहमुक्त कराकर उसे स्वधर्म का भान कराये, उसके अंतर्मन मैं इच्छा व संकल्प शक्ति को जगाये और कहे-- नपुंसक मत बन पार्थ , दुर्वलता त्याग , उठ खडा हो , युद्ध कर।

नेताओं पर टिप्पणियाँ -मुंबई हमले के बाद

नेताओं पर टिप्पणियाँ उनकी बुराई खूब की जारहीं हैं ; जनता, मीडिया व सभी लोग ज़रा अपने गरेवान मैं भी झाँक कर देखें वे स्वयं कहाँ खड़े हैं । नेता जनता से ही आते हैं .यदि वे नाकारा हैं तो जनता स्वयं ही दोषी है। जनता स्वयं क्यों अपने छोटे छोटे कार्यों के लिए नेताओं को तरजीह देती है। उन्हें बिगाड़ने वाले ,नाकारा बनाने वाले हम ही हैं। दूसरों को दोष देना कितना आसान है? आज हम सब , सारी मानवता ,मानवता से गिर गयी है, हर व्यक्ति सिर्फ़ स्वयं के बारे मैं ही सोचता है तो नेता कैसे अपवाद रह सकता है? जो नेता उचित बात कहता है ,कैसे मीडिया के स्वयंभू विद्वान् ( जो शायद एजूकेशन तथा ज्ञान की सबसे निम्न स्तर से आते हैं। ) उनसे अदालत की तरह हाँ या ना कहलवाने की कोशिश करते हैं। रोजाना टी.वीपर देखिये । जनता सोचे और समझे ।

शनिवार, 8 नवंबर 2008

योग =जीवन योग .-मेरी व्याख्या

-छात्र जीवन मैं ज्ञान प्राप्त करना --ज्ञान योग .---गृहस्थ जीवन मैं कर्म करके , धनोपार्जन के साथ दान ,पुण्य , सिद्दी -प्रिसिद्दी प्राप्त करना ,--कर्म- योग ।----
-बिना लालच ,लोभ ,मोह के सिद्दि-prasiddi (प्रभाव -तथा स्थिति ) का दूसरों एवं समाज के लिए उपयोग --निष्काम कर्म
-फल व सिद्दि प्राप्ति की इच्छा से कर्म --सकाम कर्म।
-सिद्दि- प्रसिद्दी व जीवन मैं सफलता के बाद सारे कार्य केवल भगवद्भक्ति ,समाज सेवा ,संतति-सेवा ,धर्म, दर्शन, ईश्वरीय ज्ञान प्राप्ति के लिए ही कार्य करना -----भक्ति- योग ।
-अगली पीढी को तैयार करदेने के पश्चात , केवल स्वयं की आत्म संतुष्टि के लिए ईश्वरीय ज्ञान प्राप्ति की ओर समस्त मोह त्यागकर ,कर्मत्याग व मुक्ति की इच्छा ----ईश्वर -योग ,अमृत -योग, या योग है।
ज्ञान के साथ कर्म व भक्ति ; कर्म के साथ ज्ञान व भक्ति ; भक्ति के साथ कर्म व ज्ञान अतियावश्यक है । अतः तीनों प्रकार के योग साथ -साथ प्रत्येक स्तरपर होने चाहिए = यही संसार व ज्ञान दोनों पाकर माया बंधन से मुक्ति व अमृत प्राप्ति व मोक्ष है। यही जीवन योग है।

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2008

समाज मैं विश्रिन्खलता

समाज मैं जब कभी भी विश्रीन्ख्लता उत्पन्न होती है ,तो उसका मूल कारण सदैव मानव मन की नैतिक -बल की कमी होता है। भौतिकता के अति -प्रवाह मैं -शौर्य ,नेतिकता ,सामाजिकता, धर्म, अध्यात्म, व्यवहारगत शुचिता, धैर्य ,समता ,संतोष, अनुशासन आदि उदात्त भावों की कमी होने से असंयमतापनपती है। अपने इतिहास ,शास्त्र ,पुराण , गाथाएँ ,भाषा व ज्ञान को जाने वगैर , भागमभाग मैं नवीन अनजाने मार्ग पर -विना अपने देश, कालधर्मिता व तर्क की शास्त्रीय कसोटी पर कसे , चल देना अंधकूप की ओरचल देना ही है । आज की विश्रिन्खलता का यही कारण है। हमें इतिहास मैं जाना ही होगा। परन्तु प्रारंभ कहाँ से हो? साहित्य व शिक्षा जगत किसी भी समाज के प्रगति व सुधार के प्रचेता होते हैं। नेटिक, आध्यात्मिक, व धार्मिक शिक्षा को तथा इतिहास के श्रेष्ठ चरित्रों के उदाहरण व वर्त्तमान के शुची आचरण वाले प्रसिद्द चरित्रों के कार्य -कलापों का समावेश ,प्राथमिक कक्षाओं से ही होना चाहिए जो स्वभाषा व लोक भाषा मैं हों बुराई का परिणाम बुरा व अच्छाई का अंत अच्छा , वाली भारतीय शेली की कथाओं का यही उद्देश्य है , जिन्हें आज हम भूलते जा रहे हैं।
शूर्पनखा काव्य- उपन्यास से

शनिवार, 18 अक्टूबर 2008

इन्द्रधनुष

इन्द्रधनुष यद्यपि सदैव आपकी आंखों के सम्मुख , आपके आस -पास , चहुँ ओर रहता है। बरसात मैं आसमान मैं बर्षा की सुखद फुहारों मैं ,तुहिन कणोंमैं ,फुब्बारों की जलधाराओं मैं ,झूमरों मैं ,खिड़की के पार शीशे मैं ,सुन्दरी की नथके हीरे मैं, कान के कर्णफूल व कंगनों मैं, .....मन को ललचाता , महकाता, तरसाता, हरषाता रहता है, परन्तु दूर से , आप उसे छू नहीं सकते । ऐसा ही एक इन्द्रधनुष तरंगित होता है ,डॉ श्याम गुप्ता के नए उपन्यास ' ;इन्द्रधनुष' मैं ,स्त्री -विमर्श के परिप्रेछ्यमैं , एक नवीन भाव मैं , स्त्री -पुरूष मैत्री - संबंधों को नए दृष्टिकोण से व्याख्यायित करता है।

rainbow

A Rainbow is always in front of your eyes, in around you. During rains in the pleasent raindrops, in the dripping drops of fog, in the springs and fountains, in the hanging shendaliars, on the window pans glasses, scattering from the dimonds of the nose-ornament of a beutiful lady's, and from the ear rings and the breslet ......attrecting your mind and thoughts vindicatively...but from distances only,you cannot touch it. Like such , one Rainbow is scattered in the novel 'INDRADHANUSH', th e rainbow--by Dr. shyam gupta, in a new colour of analysing and describing the women- man friedship and relationship.

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2008

siddhant, belief and rules and hero worship

People usually say that indians usually beieve in hero pooja on -religious, and philosophic ideas etc. As also stated by J. krishnamurthy--we should develope such a system (shailly) which should have not based on principles,beliefs and rules.
In view of this one should also not believe on J. murthy's also. IN fact till we are not having shriddha, and belief on already existing knowledge, thoughts , principles--we are not able to understand those fully and deeply, and we are not able to analyse them and toadjust in accordence to our own thoughts and the new advances required for sanscrati and culture---
"JIN KHOJA TIN PAIYA GAHRE PANEE PETH. and
BHAWANI SHANKARO BANDE SHRIDDHA BISHVAS RUPINON'
what is imporant --to enter the unknown darkness of fast advancement on his own and try again and again OR to steady advancement on correct path with help of already existing dharmik and sanskarit (verified by time and exhistance) learnings.
WE must think.

सोमवार, 13 अक्टूबर 2008

sant ki upadhi and bharat ko salah. ( making of saints )

what a nice thing to do ? sant ki upadhi too is beeing distributed like administrative laurets and presants to players or laufter jokers etc ,worldly immateril gifts. Servent of god, do god maintain his household or a buiseness and require servents. Blessed, who blessed or who has seen God blessing him/her.
I have always since childhood have learnt that 'a saint' is one to whome all the people, good or bad, poor or rich, learned or illiterate ones --call SAINT. Also saints do not like to be called saint and they do not accept any upaadi or gifts or laurets.
And so Bharat do not requre any advise on religion or dharm or what should be and what not in this cou ntry from any outsider to interfere in internal matters.

गुरुवार, 9 अक्टूबर 2008

durga devi rahasy -the secrate of DURGA goddesh and the defeat of tenheaded evil Ravan.

THE mahadevi durga is said to be , the incarnation of three basic forces -Maha kali, the goddesh of power; Maha laxmi, the goddesh of wealth; Mahasarasvati, the goddesh of learning and wisdom The maha shakti durga mata is supposed to destroy the all demons i.e. all evils.
the real meaning of the fact is that whenever a force in society is required to destroy the evils ,the persons in power,persons with wealth and persons of great learninga and wisdom
should combine to fight with evils ,to drag them away from society. Lord Ram also worshipped this SHAKTI before his expidition to concur the Ravan. It means that even most powerful person can not win without joining hands with these three natural powers existing in society.

बुधवार, 8 अक्टूबर 2008

the negative thinking , is right thinking.

In fact every thing should be first judged by its negative aspects. the so called only positive thinkers ,in fact are afraid of facing bad aspects of life, so they donot want to even look into the negative aspects of the things. The positive aspects of the things are aiways open and they are very attrective often, more so far in this todays deceptive world of advertisements.
Since the MANAV MAN( mind) is developed from VAYU Tatva, it is very fluiditive in nature and immediately run after an easy ways of life, so by only seeing positive aspects there are chances of mistakes. Therefore every thing must be first seen by its negative side . Very importent is this NEGATIVE THINKING. Even in practical life every one aiways fisrt of all see the dark aspects . for example- whenever you click for a file on your computer , a caption is seen for safe and unsafe, and unwanted courupt masseges. So contradictory to, the most discussed example by so called positive thinkers of half ful glass of water, before acceptig any thing one must think , why the glass is half empty?--and so on...

ताकि खंडित न हो आस्था .हिन्दी हिन्दुस्तान -एक समाचार.

ताकि खंडित न हो आस्था - ग्रामीणों ने स्वयं हटाया मन्दिर जो रमाबाई मैदान के बीच मैं आरहा था। ---वाह इसे कहते हैं , हिंदू- उदारतावाद व हिन्दू धर्म -निर्पेछिता --सीखें अन्य श्रृद्धा केन्द्र वाले । यह है सच्ची वैज्ञानिक -उदार प्रगतिवाद धार्मिकता । धर्म ,आस्थाएं ,नीति- नियम , पूजा , श्रृद्धा , पूजा- स्थान आदि मनुष्य की सुविधा -सुलभता के लिए हैं , न की मनुष्य इन के लिए ।

लेखको का महोत्सव -मसूरी मैं

लेककों का अंतर्राष्ट्रीय महोत्सव मसूरी मैं शुरू ।फ्रीडम स -चिल्ड्स पुस्तक का विमोचन ।
क्या बात है? छोटे राज्यों को व्यापक पहिचान मिलेगी --सौभाग्य की बात है? -वुड- स्टोक स्कूल के प्रिन्सिपल डेविड लयूरेंसन व स्टीफन आल्टर ने -----वाह क्या बात है ? सिर्फ़ अंग्रेजी के लेखकों से ही यह सब होगा ?हिन्दी के लेखकों का तो एइसा मेला वहाँ कभी नहीं लगाया गया , सोंचे समझें - उद्देश्य । वेचारी हिन्दी और हिन्दी लेखक -हमारे अपने देश हिन्दुस्तान मैं , और हिन्दी पुस्तकें ? संभल जाओ हिन्दुस्तानियों ।

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2008

देश का क्या हाल कर दिया , भाइयो ,हिन्दुस्तान समाचार

आपकी राय ,
महोदय, हिंदुत्व की आत्मा पहचानो ,सुदर्शन तथा अडवानी जी बांटो मत ,जोडो, ---एसा लगता है की सुरेन्द्र मोहन एवं सच्चर जी का भ्रम वश यह मानना है किदेश के बटवारे ,के लिए तथा सारे दंगों के लिए सिर्फ़ हिन्दू ही जिम्मेदार हैं, वे व हिन्दू संगठन ही दंगों की पहल करते हैं, जवकि yathaarth इसके vipreet है। आप ही hindee ,हिंदुत्व ,हिन्दुस्तान की आत्मा को pahichaane सुरेन्द्र व सच्चर जी ,gaharaaee से shaatraadik तथा geetaa paden .

मंगलवार, 30 सितंबर 2008

मूल्यों का अब भी है मोल -एक समाचार युवा हिन्दुस्तान.

हाँ , हमारी जीवन शैली अलग है, हकीकत है किआज भी हम अपनीं राहें

उन्ही बातों से तय कर रहे हैं ,जो हमारे बुजुर्गों ने बनाईं हैं। --मनिका मेरठ ।

हाँ, बुजुर्गों की राहें व उनके परामर्श के व्यापक ज्ञान व विचार के साथ अधुना विचारों से युक्त राहों के युक्ति युक्तविश्लेषण के बाद ही जीवन व आदर्शों की राहें चुननीचाहिए। इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं ।

हाँ, प्रोफेशनल तथा रोज़गार की बातों मैं स्वविवेक को मानना चाहिए ,परन्तु यह देखकर किसलाह देने वाला बुजुर्ग का ज्ञान स्तर क्या है।

कितना ज़रूरी है धर्म - देवराज भारती

पूरवसंसार को माया कहता है, ---पूरब अपनी अधूरी व अधार्मिकं धारणा के कारण भौतिक रूप से दीं हीन होगया है। ---अधूरा ज्ञान व धारणा है, भारतीय वास्तविक धारणा के अनुसार , संसार अज्ञान- व माया तो है, परन्तु त्याज्य नही , हमें पहले इसको प्राप्त करके ,तैर कर इसे पार करना है पर रुकना नही है,फ़िर आगे बढ़कर ,परमार्थ भाव सहित मोक्ष प्राप्ति की ओरचलना है। यही धर्म है। तभी तो ईशावाश्योप्निषद कहता हैं।
विद्याम (ईश्वरीय ज्ञान) चाविध्याम (सांसारिक ज्ञान) यस् तद वेदोभायम सह (का साथ साथ ज्ञान होना चाहिए ) । अविद्यया (सांसारिक ज्ञान से) मृत्युम तीर्त्वा (संसार को जीतकर )विद्यया अम्रित्मश्नुते ।

पोशाक व हाव -भाव का असर. एक परिचर्चा.

अस्माहुस्सैन फैशन डिजाइनर --हम क्या पहनते हैं ,और सामने वाले को कैसे प्रस्तुत करते हैं , इशी से पहली छवि बनतीहै, अतः हमें परिवेश के हिसाव से पोशाक चुननी चाहिए।
डॉ विश्वजीत कुमार होपकिंस यूनीवर्सिटी ---व्यक्तित्व वनावती नहीं होना चाहिए ,जो अन्दर हो वही बाहर झलके ,तो बेहतर छवि बनती है। इसमें पोशाकों की कोई बहुत बड़ी भुमिका नहीं होती।
जयंत कृष्णा टी सी एस हेड---पूरी दुनिया भारत को टेलेंट -पूल के रूप में देखती है, भारतीयों में मैनर्स को लेकर विदेशियों की सोच अच्छी नहीं है ,यदि यह अच्छी होजाय-------जरूरी है की हमारा क्लाइंट हमारे बारे मैं क्या सोचता है ,हम अपनी कैसी छवि उसके सामने प्रस्तुत करना चाहते हैं।
--------- सोचिये ,विचारिये -- अब व्यक्तित्व व छवि के बारे मैं हमें कपड़े बेचने व सिलने वाले तथा विदेशी विचारों से भ्रमित सॉफ्टवेयर बेचने वाले बताएँगे । विदेशी जो कल्चर के नाम पर अधकचरे हैं ,युगों पुराणी शाश्वत नवीन ,इतिहास मैं सबसे अधिक मैनर्स वाली भारतीय संस्कृति को मैनर्स सिखायेंगे। हाँ, अंग्रेजी व विदेशी अर्धसत्य विचारों से भ्रमित लोगों के बारे मैं यह हो सकता है।
-----डॉ विस्वजीत का कहना ही वास्तविक है ,जो अमेरिका से सम्बद्ध होकर भी भटके नहीं । बाकी तो सब
तो भ्रमित धंधे बाज़ ही हैं। ---हम कब सुधरेंगे।

रविवार, 28 सितंबर 2008

के-जी.एम् .यू. मैं बवाल .

के जी एम् यूं मैं कल जो डाक्टरों ने किया, वह थानेदारों ने किया होता तो हमारी कलम इतनी बेचेनी मैं चलती ही क्यों कर ?----हिन्दी हिन्दुस्तान , एक समाचार ।
अर्थात पुलिस को दंगा,प्रदर्शन आदि यह सब करने का लाइसंसदिया हुआ है ,पत्रकारों के समर्थन से । और किसी की यह सब कराने की हिम्मत कैसे हुई , अपने पर दुर्व्यवहार के बावजूद ।

शनिवार, 27 सितंबर 2008

बहुत जानते हैं, हम.

बच्चे बहुत कुछ जानलेते हैं। युवा उनसे अधिक ही जानते हैं। बड़े उनसेभीअधिक जानते हैं। ज्ञानी और बहुत कुछ जानते हैं। सामान्य जन जान ते हैं ,परन्तु विशेषज्ञ, विशिष्ट विषय मैं उनसेभी अधिक जानते हैं। परम ज्ञानी ,सच्चे संत ,आत्मज्ञानी त्रिकाल दर्शी होते हैं। सबकुछ जानने वाला ,सर्वज्ञ कोई व्यक्ति नही होता ।
सबकुछ एकमात्र ,ईश्वर ही जानता है। ईश्वर, ह्रदय, आत्मतत्व मैं बसता है, अतः स्वयं को पहचानें ,ईश्वरीय गुन परमार्थ को धारण करें ।

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

आशा, सुख -चैन की.

सुख -चैन की आशा मैं ।
नित नए साधनों की अभिलाषा मैं ,
कितने साधन -प्रसाधन ,उत्पादित हुए ;और-
कितनों के सुख- चैन ,
बाधित हुए।
------ श्याम स्मृति से।

भूलते पदचिन्ह

वे चलते थे ,पिता के अग्रजों के पदचिन्हों पर
ससम्मान , सादर , सानंद,
आग्यानत होकर ,
देश ,समाज , राष्ट्र उन्नतिहित ;
सुपुत्र कहलाते थे ।
आज वे पिता को अग्रजों को ,
मनमर्जी से चलाते हैं ,एन्जॉय करने के लिए ,
अवग्यानत होकर ,
स्वयं को एडवांस बताते हैं ,
सनी , कहलाते हैं। -------श्याम स्मृति से।

किताबों मैं ढूदते हैं जिंदगी का मंत्रा.

मंत्रा अर्थात , अंग्रेजी मैं मन्त्र । यही तो आज के नौजवानों की ज़िंदगी ,प्रत्येक वस्तुको अंग्रेजी मस्तिष्क, व दृष्टि से ही देखना व देखपाना।
युवाओं के फेवरिट -फाइव --चेतन भगत'फाइव पॉइंट समवन '; अबदुलकलाम --'यूआर बोर्न टू ब्लोस्सम ';
शिवखेडा --'यू कैन विन'; अमिताव घोष ---द ग्लास पेलेस ; रोबिन शर्मा ---डिस्कवर यौर डेस्टिनी आदि -आदि ।
अर्थात सिर्फ़ अंग्रेजी की तथा मनुष्य को व्यक्तिपरक व अपने पर गर्व ,हम सब कुछ कर सकते हैं की मानसिकता बेचकर ,झूठे अहम् व सपनों मैं बहकाकर गुमराह करके अपनी पुस्तकें बेचना । हिन्दी ,हिन्दुस्तानी ,साहित्य व संस्कृति मैं वास्तविक समाजपरक,आदर्श्स्थिति को युवाओं से दूर रखना ।
क्या कोई हिन्दी की पुस्तक युवाओं को नहीं आकर्षित करती? बाजारवाद व धंधे बाजों से सावधान ऐ हिन्दी -वालो,और देश के कर्णधारो अब तो जागो ।

गुरुवार, 25 सितंबर 2008

अगीत--जारी

२- लयबद्ध सप्तपदी या षट्पदीअगीत --
नर ने भुला दिया प्रभु , नर से ,
ममता बंधन नेह समर्पण ,
मानव का दुश्मन बन बैठा ,
अनियंत्रित वह अति- अभियंत्रण ।
अतिसुख अभिलाषा हित जिसको ,
स्वयं उसी ने किया सृजन था। --सोलह मात्रा, छः पंक्तियाँ सहित , सुर व लयबद्ध अगीत छंद ।
३-नव-अगीत --तीन से पाँच पंक्तियाँ ,मात्रा ,तुकांत बंधन नहीं ।
दहेज़ के अजगर ने,
कितने जीवन लीले ,
समाज बन संपेरा ,
अब तो इसको कीले।
४-लयबद्ध त्रिपदा अगीत --तीन पंक्तियाँ ,सोलह मात्रा, लय व सुर सहित अगीत छंद ---
चमचों के मज़े देख हमने ,
आस्था को किनारे कर दिया,
दिया क्यों जलाएं हमीं भला।

साहित्य में पद्य की दो विधाएं .

पद्य अर्थात कविता की दो विधाएं हैं -गीत एवं अगीत। अगीत तुकांत रहित छंद हैं । निम्न भेद व नियम देखें --

१.अगीत छंद- ५ से आठ पक्तियां ,अतुकांत ,मात्रा बंधन नहीं ,लय बंधन नहीं ,-उदहारण --

मनुष्य व पशु मैं है यही अन्तर ,

पशु नहीं कर पाता

छल -छंद और जंतर -मंतर।

शेतान ने पशु को ,मायासंसार नहीं दिखाया था,

ज्ञान का फल तो ,

सिर्फ़ आदम ने ही खाया था।

----जारी अगीतजारी से आगे ।

डिग्री नही ,बोलेगा प्रेजेंटेशन .

डिग्री नहीं , बोलेगा आपका प्रेजेंटेशन । न्यूज़ दिनांक -२५,सेप्टेम्बर, २००८
उपस्थिति व बॉडी लेंग्वेज ---५५ %
बोलने की कला ---- ३८ %
शब्दों का चयन ---- ०७ %
वाह ! क्या भूल गए ,
सुबरन कलश सुरा भरा , साधू निंदा सोय।

बुधवार, 24 सितंबर 2008

न कहना .

न कहना भी एक कला है। यदि हम यह जानलें कि हमें कब व कहाँ रुकना है , तो मर्यादा की प्रत्येक सीमा स्वयं तय हो जाती है, एवं व्यक्ति अनिर्वन्धित-बंधित हो जाता है, सीमाहीन -सीमित होजाता है।
' विश्व मैं वह कौन सीमाहीन है ,
हो न जिसका छोर सीमा मैं बंधा। '

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

कटु बातें

मुझे न छेडो इस मानस मैं ज्वालामुखी भरे हैं।
जाने क्या- क्या कैसे -कैसे अंतर्द्वंद भरे हैं।
हमने बहुत जतन कर देखा सेवा भाव जताया,
मति -विपरीत विनाशकाल जब, वे नर कब सुधरे हैं।
कोने -कोने छाई क्यों ,आतंकबाद की छाया,
सामाजिक शुचि मूल्य आज टूटे -टूटे बिखरे हैं।
हमने अतिसुख अभिलाषा मैं ,आग लगाई घर को ,
कटु -बातें कह डालीं हमने ,मन के भाव खरे हैं।

शनिवार, 30 अगस्त 2008

ओलिम्पिक मैं सफलता

आपकी राय ------------- यही तो कमी है हमारी की ज़रा सी सफलता पर हम उन्हें सितारे बना देते हैं , सामान्य जन नहीं रहने देते ,तभी लोग उनकेउदाहरण पर चलने की जगह ,पूजने लगते हैं । इससे देश मैं खेल के प्रति ललक नहीं बदती वरनप्रतितोगिता,पैसा व शीघ्र नाम कमाने की ललक बदती है।
डॉ । श्याम गुप्ता

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

ईश्वर - जेसा मैंने समझा -सोचा .

ईश्वर =इष(इच्छा ) +वर (श्रेष्ठ )। अर्थात श्रेष्ठ इच्छाए या श्रेष्ठ इच्छा व कर्म करने वाला ही ईश्वरीय गुणया ईश्वर होता है। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ इच्छा है , 'एकोअहम वहुस्याम ', अर्थात् एक से बहुत होजाना ,तभी सृष्टि होती है। स्वयं मैं ही मस्त न रहकर समस्त समाज व जगत का होजाना ,व्यष्टि से समष्टि की ओरचलना । अपने को जग को समर्पित कर देना। व्यर्थ वस्तुका समर्पण कहाँ होता है? अतः अपनेआप को कुछ बनाएं ,ईश्वरीय गुणों से युक्त कराने योग्य बनाएं ,श्रेष्ठ व्यक्तित्व बनाएं , तभी हम ईश्वर के निकट पहुँच सकते हैं । यही ईश्वर है।

बुधवार, 27 अगस्त 2008

मैं का त्याग एवं अहम् का नाश .

मैं को मारें ,अहम् का नाश करें ,सभी धर्म व नीति ग्रंथों मैं कहागया है,तभी भगवत्प्राप्ति होती है। आख़िर 'मैं क्या है? जो वस्तुआपके पास है ही नहीं उसे छोड़ने का प्रश्न ही कहाँ उठता है।' अतः पहले आप अपने 'मैं 'को तो उत्पन्न करें, अहम् का ज्ञान प्राप्त करें ,अपने को कुछ कहने और कहलाने योग्य बनाएं ,तब मैं एवं अहम् को त्यागें


अपने को 'मैं' कहने योग्य बनाने का अर्थ है किअपने मैं मानवीय गुणउत्पन्न करना व सदाचार,सत्कर्म, युक्तियुक्त नीतिधर्म द्वारा सांसारिक सफलता प्राप्तकरना, सिद्दिप्रसिद्दि प्राप्त करके ईश्वरीय गुणों से तदनुरूपता
श्री कृष्ण ने तभी गीता मैं 'मैं' का प्रयोग किया है। इसप्रकार फ़िर इस मैं तथा अहम् का त्याग करके सत्पुरुषों संतों
जेसी एकरूपता के साथ जीवन गुजारना ,विदेह होजाना , निर्लिप्त होजाना ही ईश्वरसे तदनुरूप होना ही भगवत्प्राप्ति
है। तभी ईशोपनिषद कहता है-
"विद्या चाविद्या च यस् तद वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्यं तीर्त्वा विध्य्याम्रिताम्श्नुते ॥ '

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

सुधार की इबारत .

आजकल बाढ़ आई हुई है,
सेवा ,देश सेवा ,समाजसेवा करने वालों व् -
करनेवाली संस्थाओं की ।
सभी अपने- अपने ढंग से ,
कर रहे हैं ,सेवा ,
लिख रहे हैं ,सुधार की इबारत ।
पर सुधार है कहाँ ? कहीं नहीं ,क्यों ?
सुधार की इबारत ,लिखना नहीं है ,
स्वयम को ही ,सुधार की ,
नींव बनाना होता है ,
सुधार की इमारत बनाना होता है।
सुधार स्वयम के सुधार से होता है,
क्या कोई कर पा रहा है ?
ba

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

simple living why?

whenever one see someone in better luxurious position then himself he might think that why he is not in that luxurious position. now there may be two aspects of thoughts in his mind.
1. I myself should also work harder like him and lead such luxurious life.-this thinking invokes every one to work harder and not only his own life is advanced but also the society and the country.
2. why they should enjoy such life if we are not, we should snatch the money from riche people and divide the same to poor to eqalise all. this thinking , no need to tell will create chaos in the society.
now the quesion arise , will every body think on (1), since the human MAN (Manas) has great flights, and resorts to mostly easy ways and no. (2) is an easy way. so if everyone resorts to simple living with money earened in right way by thinking as per no.(1), there will be harmony in the society as whole.

सोमवार, 11 अगस्त 2008

भ्रांतियां एवं अन्धविश्वास कैसे बढ़ते हें.

आम लोगों की , आदत हाँ में हाँ मिलाने की होती है। आजकल यह आदत बढ़ती जारही हे। भ्रांतियों का खंडन करके ठीक राह दिखाने योग्य बुद्दिमानों व सत्यआग्रही लोगों की कमी होती जारही है। अतःभ्रांतियों व अन्ध्विशासो के बढ़ने का सिलसिला इसी प्रकार बढ़ता जाता है।

बुधवार, 6 अगस्त 2008

समाज में विकृति का कारण.

समाज में जब कभी भी विश्रंखलता उत्पन्न होती है ,तो उसका मूल कारण सदैव मानव मन में नैतिक-बल की कमी होता है। भौतिकता के अति प्रवाह में शौर्य ,नैतिकता ,सामाजिकता ,धर्म ,अध्यात्म ,व्यवहारगत शुचिता ,धैर्य ,समता ,संतोष ,अनुशासन आदि उदात्त भावौं की कमी होने से असंय्मतापनपती है ।अपने इतिहास शास्त्र ,पुराण ,गाथायें ,भाषा व ज्ञान को जाने बिना भागमभाग में नवीन अनजाने मार्ग पर ,बिना अपने देश ,कालधर्मिता व तर्क की शास्त्रीय कसौटी पर कसे ,चल देना अंधकूप की ओरचलना ही है । आज की विश्रंखलता का यही कारण है। हमें इतिहास में जाना ही होगा ।
शूर्पनखा काव्य उपन्यास से (डॉ श्याम गुप्त )

मंगलवार, 5 अगस्त 2008

जंग घर के अन्दर और बाहर.

घर हो बाहर हो जंग हर जगह पर जारी है
कहीं संस्कृतिक हमला हे ,कहीं आतंकी तैयारी है ।
खुश नशीं हें श्याम जो देश की सरहद पे लड़े
अन्दर के दुश्मनों से लड़ेंअब हमारी बारी है ।

साम ,दाम,दंड विभेद -आधुनिक तत्वार्थ

साम - शमा ,नारी का प्रयोग ; दाम ,-धन का लालच ,रिश्वत ; दंड ,-गोली मारना ,हत्या ,पिटाई आदि ; विभेद ,-धमकाना ,साथियों रिश्तेदारों परिवार के लोगों को लालच देना । आधुनिक युग में किसी भी तरह अपना काम निकालनेके उपाय हैं ।

सोमवार, 4 अगस्त 2008

TIME IS MONEY .?

Time is money. but we always cry for short of this money? why we want more time? just to do morework to earn more money in that saved pieceof time. it means to keep us buisyto earn more money. what a controversy? if we donot care for time but use it to enjoy life to make life easy,pleasant and devoted to good deeds for society,mankind and self,there will not be any shortage of time and time will not be only money but LIFE. so time is life and enjoy every moment of life, only than time can be called as money.

अन्धविश्वास को बढ़ावा देना

आजकल हर जगह समाचार पत्रों ,टीवी आदि में फंगश्वे पर तमाम आलेख आदि आरहे हें ,चीनी ड्रेगन ,मेंढक आदि के शुभ ,अशुभ कथन । चीनी वास्तु क्यों ?भारतीय वास्तु क्यों नही ? फ़िर यह अन्धविश्वास को बढ़ाना नही है ?पर उन्हें क्या ,धंधा चाहिए ,पैसा चाहिए । चाहे अपनी संस्कृति बचकर या भुलाकर या कैसे भी ।

आवश्यक उपभोक्ता बस्तुओं का अपव्यय .

सिर्फ़ गाना गाने के लिए इतना बढ़ा मंच ,सजावट विजली ,गैस बरबाद किया जाता है ,इन आयोजनों मैं । गाना तो सदा मंच व एक लाइटमें ही गया जा सकता है ,तभी असली गायक की पहचान होगी । दस साल तक यह सब बंद करदें तो कितना धन व विजली, गैस आदि आवश्यक वस्तुओं के अपव्यय से बचा जा सकता है ,पर किसे पढ़ी है ,बस पैसा आना चाहिए । धंधा होना चाहिए ।

शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

विचारक्रांति एवं भोतिक उन्नति

भौतिक उन्नति ,नवीन आविष्कार, कला,संस्कृति व मानव जीवन को "सत्यम,शिवम्,सुन्दरम "भावः से समतल मार्गे पर चलाने के लिए होते है। यदि वहीउचित व श्रेष्ठ विचारों से संचालित न हों तो कुविचारों या विचारहीनता से पोषित खलनायक की भांति मानवता की अवनति के साधक बन जाते हैं । दूरदर्शन , सचल टेलेफोन ,रेडियो आदि का हर बच्चे के हाथ मैं ,युवाओं के हाथ में होना भ्रष्ट आचरण के कारन हो रहे हैं । अत्यधिक भौतिक साधनों का प्रयोग व उपलब्धता व्यक्ति को उच्च वैचारिक अकाल , कुविचारों व असत्य विचारों में रत करके उसे अनास्थावादी व रोटी, कपड़ा और मकानतक सीमित कर देता है । अतः आज विचारक्रांति की महती आवश्यकता है।

मंगलवार, 8 जुलाई 2008

Just thinking

People usually talk about positive and negative thinking specially the young energetic people now-a-days, but in my opinion there is nothing like this, instead it should be "the just thinking".

The commonly given example - the half-full and half-empty glass of water - half-full water is optimistic thinking and the other the passimistic thinking', in fact the just thinking should be - why the glass is half empty...the reasons may be either there is shortage of water and the person is saving water, not to waste by taking full glass and throwing the rest; or why the glass is half-full, either the person is only that much thirsty and doesn't want to waste the water or there is shortage of water, and so on.

रविवार, 6 जुलाई 2008

प्रेम शाश्वत है

प्रेम शाश्वत है , शाश्वतता प्रेम से ही है। सृष्टि के प्रादुर्भाव ,स्थिति ,लय व पुनर्सृजन की निरंतरता का आधार प्रेम ही है । सृष्टि ,प्रेम,से है ,प्रेम ही सृष्टि है ।
सृष्टि के कण-कण मैं जो स्पंदन ,क्रंदन ,नर्तन व निलयनहै ,सभी कुछप्रेम ,प्रेम की अभिव्यक्ति ,एवं प्रेम की परिणति ही है .संयोग प्रेम है ,वियोग प्रेम है ,स्थिति प्रेम है .जीवन की अभिव्यक्ति ,कृति व सांसारिकता का भवचक्र प्रेम सेही है .
विश्व मैं जो कुछ भी घटता है ,प्रेम की ही अभिव्यक्ति है ,और जो कुछ नहीं होता वह भी प्रेम की ही अभिव्यक्ति है (या अनभिव्यक्ति है ).लौकिक संसार के आचार व्यवहार ,संचार व संगठन की जो मूल शक्ति "एक्य" है ,आपसी प्रेम की ही अभिव्यक्ति है । एकता ,विश्व की सबसे बड़ी शक्ति है और उस शक्ति का बीज मूल प्रेम ही है। । प्रेम काव्य ,महाकाव्य मैं पढें ।