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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

गुरुवार, 19 मई 2011

कहानी—---न गांव न शहर... डा श्याम गुप्ता ...

                                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


                                          
 “ ये तो मुख्य शहर से बहुत दूर है, भाई साहब!'
’ क्या तुम सोच सकते हो कितनी दूर है ?’
'इसका क्या अर्थ ?' मैंने प्रश्नवाचक नज़रों से अपने बडे भाई से पूछा।
'यही कि बचपन में शहर से हम अपने जिस गांव तीन घन्टे में पहुंचते थे,अब सिर्फ़ ८ किमी दूर है।' 
'क्या? अपना गांव इतना पास है। मैंने आश्चर्य व उत्सुकता से पूछा ।
'हां, चलना है क्या? भाई साहब बोले ।'
'हां, हां अवश्य ।'
        और हम लोग स्कूटर उठाकर अपने गांव चल दिये। ४० वर्ष बाद मैं जा रहा था अपने गांव, जहां अपना कहने को कुछ भी नहीं था। बावन खम्भों वाली हवेली पहले ही हथियायी जा चुकी थी,  अनधिकृत लोगों द्वारा, जमींदारी समाप्त होने के साथ ही, ला. गिरिधारी लाल-बैजनाथ के परिवार के गांव छोडकर दूर-दूर जा बसने के उपरान्त। जिसका मन होता अपना घर उस जमीन पर बसा लेता और सुना करते थे, खुदाई में मिले गढे हुए धन की चर्चायें, जिस पर उसी का अधिकार होता जो बसता जाता। शेष बची प्रापर्टी गिरधारीलाल जी के बडे पुत्र बेच-बाच कर शहर पलायन कर गये। सम्पत्ति का कोई बट्वारा भी न होपाया था ।
          छोटे पुत्र जगन जी बाज़ार वाली दुकान को ही घर बनाकर रहने लगे। कठिनाई से मिडिल तक शिक्षा प्राप्त करके व अन्य दायित्वों का निर्वहन करके वे भी शहर में नौकरी करने लगे। जन्म भूमि व घर का मोह बडा गहरा होता है, अत: जब भी शहर से ऊब जाते हम सब को लेकर गांव में आकर रहने लगते। हम सब उसी दुकान को ही अपना घर समझते थे, और लगभग प्रत्येक वर्ष स्कूल की गर्मियों की छुट्टियों में गांव रहने चले आते। जब हम सब भी शिक्षा के एक स्तर के उपरान्त अन्य शहरों में रहने लगे तो गांव जाना लगभग छूट ही गया। क्योंकि कोई नियमित बट्वारा नहीं हुआ था अत: उस तथाकथित दुकान-घर को भी गिरधारी लाल जी के बडे सुपुत्र के नालायक पुत्र द्वारा आधा अपना कहकर बेच दिया गया । अत: पिताजी को भी मजबूरी वश शेष आधा भाग बेचना पडा और गांव से नाता ही टूट गया।
         पांच मिनट बाद ही वह प्याऊ आगयी जहां पहले सभी ठंडा –ठंडा पानी पीकर, हाथ मुंह धोकर थकान मिटा लेते थे। पानी अब भी ठंडा है पर लोग रुकते नहीं हैं। बगल में “ठन्डा” व मिनरल वाटर की बोतलें मिलने लगी हैं, छोटी छोटी चाय की दुकानों पर। रास्ते में बडॆ बडे ढाबे भी खुल गये हैं ।
          थोडी देर में ही बडी-नहर आगयी, जो दो तिहाई रास्ता पार करलेने की निशानी थी , और फ़िर गांव के प्रवेश द्वार पर स्थित छोटी नहर जिसके चारों ओर अमराइयां, नीबू, करोंदे, आडू, बेर, जामुन के बाग थे। लगभग प्रतिदिन ही अम्बियां, कैरी, कच्चे-आम बटोरने के लिये बच्चों व बडों की भीड लगी रहती थी । अब तो कोई घुसने भी नहीं देता । अमराइयां व बाग उज़डे-उज़डे से हैं, नहर चुपचाप से बहती सी दिखाई दे रही है। शायद अब बच्चों व स्त्रियों के झुंड रोज़ाना नहाने नहीं आते। किसी के पास समय ही कहां है अब ।
        मुख्य बाज़ार की सडक अब पक्की बन गयी है, पर खडन्जे वाली; बिकास का यह आधा-अधूरा द्रश्य लगभग हर गांव में ही दिखाई देता है। मैं मूलचन्द हलवाई, जगन जलेबी वाला को ढूंढता हूं, वे कहीं नहीं है वहां। कई मन्ज़िलों वाली बिल्डिन्गें खडी हैं। हां मुख्य बाज़ार के मुहाने पर स्थित कुआं आज भी वहीं है, उस पर हेन्ड-पम्प लग गया है।  कुए की जगत पर चारों ओर रस्सी से पानी खींचने पर घिसने के निशान अब भी हैं, जिनका ह्रदयस्थ अन्तर्द्रश्यान्कन मैं प्राय: कबीर के दोहे--“रसरी आवत जात ते सिल पर होत निसान“  पढते-सुनते हुए उदाहरण स्वरूप किया करता था।  हां नये निशान नही हैं ।
          मैं अपना घर ढूंढने लगता हूं, तो भाई साहब हंसने लगते हैं; फ़िर एक बहुमन्ज़िला भवन की ओर इशारा करते हुए कहते हैं..वह रहा ..। अब ये ला. मूलचन्द की हवेली है। आगे नीम के पेड व पीछे कब्रिस्तान , मस्ज़िद व बडे से इमली के पेड से मैं पहचानता हूं, कन्फ़र्म करता हूं, अपने घर को जहां न जाने कितने महत्वपूर्ण पल बिताये थे। वो नीम के पेड के नीचे खाट बिछाकर लेटना व कहानियां कहने–सुनने का दौर, दोपहर में सभी के चिल्लाते रहने पर भी गैंद-तडी,गिट्टी-फ़ोड का चलते रहना। पत्थर फ़ैंक कर इमली तोडना। रात में छत पर इमली के पेड व कब्रिस्तान के भूतों की कहानी सुनकर-सुनाकर एक दूसरे को डराना, पर चांदनी रात में वहीं देर तक खेलते रहना.......। ये हाट वाला कुआं है, गौशाला वाला.....अचानक भाई साहब की आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटती है।
         ओह ! हां, यह तो हाट बाज़ार है। और वो चौराहे वाला मन्दिर....। जिसके चंद्रमा से होड करते शिखर-कलश गांव में सबसे ऊंचे होते थे, अब ऊंची बिल्डिन्गों से नीचे होगये है। मैं खोजाता हूं, सुबह-शाम मन्दिर के घंटों की सुमधुर ध्वनि में, गौधूलि-बेला में गाय-भेंसों का गले की घन्टियां बजाते हुए, रम्भाते हुए, पैरों से धूल उडाते हुए लौटकर आना । दिन में बैलगाडियों का जाना, जिन
पर लद कर बच्चों का दूर-दूर तक सैर कर आना। रविवार की पेंठ की हलचल, पतिया की जात की स्म्रतियां...और....जाटिनी की छोरी व बनिया के छोरे की तू..तू...मैं ..मैं.... अचानक हंस पडने पर भाई साहब प्रश्न वाचक मुद्रा में पूछने लगे.. ..क्या हुआ?...  कुछ नहीं, मैंने कहा.....एसे ही पुरानी बात याद आगई ।
         अब यहां पुराना कुछ भी नहीं है । रघुबर के पेडे, लस्सी, कलाकन्द, जलेबी, मठरी के थाल के स्थान पर...चाय-ठन्डा, केक, चाकलेट, तरह तरह की नयी नयी रंग व मिलावटी खोये वाली मिठाइयां, लेमन.....और ये दुकान पर जगह-जगह लटके हुए सुपारी, गुटखा, पान-मसाला के पाउच दिख रहे हैं न ..भाई साहब ने बताया। कुओं मे हेन्ड पंप लग गये हैं।
         वो गड्ढा व घूरा, छोटावाला मन्दिर व भुतहा कमरा कहां है। अचानक मैंने पूछा।
         वो घर के सामने वाले केम्पस में हैं न। वो घूरा तो कूडेदान बन चुका है, गड्ढा सूख चुका है, ठन्डे पानी की कुइया पत्तों व कूडे से भर कर पट चुकी है। भुतहा कमरा नया बन गया है, उसमें एक परिवार रहता है। मैं कुइया के सामने वाले घर को हसरत से देखता हूं | भाई साहब कह उठते हैं.. चलो अन्दर गांव में देखते हैं
          मकान पक्के होते जारहे हैं, गलियां अब भी वही हैं, हां पक्की अवश्य होगयी हैं। पर वही आधी-अधूरी, नालियों के निकास व प्लानिन्ग के बिना; जो वस्तुत: आधे-अधूरे बिकास की ही गाथा हैं।
          मैं भारी मन से लौट कर आया । चुप-चुप चलते देखकर भाई साहब ने पूछा...कैसा लगा? मैंने कहा , “ वह अब न तो गांव ही रहा है, न शहर ही हो पाया है।“

4 टिप्‍पणियां:

Rakesh Kumar ने कहा…

काल चक्र सभी कुछ ग्रस लेता है. रह जातीं हैं तो बस स्मर्तियाँ कुछ मिठ्ठी कुछ खट्टी.शरीर भी तो कालचक्र का नित्य ग्रास है.मधुर बचपन,सुन्दर जवानी और फिर अधेड़ावस्था से बुढ़ापा ,जिसका कोई इलाज नहीं.अंत में तो सब'राम राम सत् '
ही कहतें हैं.
तब डॉ. साहब 'राम राम' अभी ही जप लिया जाये,शान्ति तो मिलती ही है.
आपकी भावपूर्ण स्मर्तियों से ओत प्रोत सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार ,जिसने मुझे दार्शनिक ही बना दिया.बुरा न मानियेगा, प्लीज.

shyam gupta ने कहा…

---बहुत सत्य कहा राकेश जी---राम नाम तो स्वयं में एक शाश्वत सत्य है और सदा ही जपा जासकता है उसके लिये क्या उम्र..क्या समय, क्या दर्शन और क्या संसार...
---दुनिया के सारे कष्ट व झगडे-झन्झट सबका एक यही इलाज़ है...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वह अब न तो गांव ही रहा है, न शहर ही हो पाया है।

यही सत्य है हम सबका।

मदन शर्मा ने कहा…

बिलकुल सही कहा है आपने अब गावं में वो पहले वाली बात नहीं रह गयी है वह सौंदर्य जाने कहाँ खो सा गया है वह आत्मीयता भी नजर नहीं आती सब कुछ शहर की भेंट चढ़ चुका है !