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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

स्त्री-विमर्श गाथा-भाग-५...पुरुष अधिकारत्व समाज....ड़ा श्याम गुप्त....

                                       ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


                पुरुष  सत्तात्मक समाज में भी नारी की स्थिति कोई दासी की नहीं रही, अपितु सलाहकार की आदरणीय स्थिति थी | देखा जाय तो  प्रारंभ से ही मूलतः समाज व्यवस्था की तीन धाराएं दिखाई पडती हैं----आदम को फल देने वाली व भटकाकर स्वर्ग से च्युत कराने वाली घटना पाश्चात्य देशों व अरब देशों में है जबकि भारत में यह घटना मनु , इडा व श्रृद्धा की आदरणीय  भाव की कथा है | अतः मूलतः पाश्चात्य समाज में नारी को अपराधी, शैतान की कृति आदि माना जाता रहा वहीं भारत में वह सदा  आदरणीय  रही इस प्रकार ....

 ----प्रथम धारा --जिसमें योरोप, अमेरिका, द अमेरिका, चीन, अफ्रीका, मध्य एशिया आदि भाग थे ...जिनमें मूलतः स्त्री सतात्त्मक समाज होने पर भी, अडम्स व ईव की कथा के कारण स्त्री को गर्हित समझा जाता रहा व युद्धों में उन्हें लूट, उपयोग व उपभोग की सामग्री व वलात्कार व अत्याचार के योग्य समझा जाता रहा|
----द्वितीय धारा----जिसमें मूलतः भूमध्य सागर के समीपवर्ती  देश, अरब भूमिखंड , उत्तरी अफ्रीकी  देश आदि थे , जिनमें मूलतः पुरुष सत्तात्मक समाज होने पर भी आदम व हव्वा --कथा के कारण ..स्त्री को उपभोग, लूट व वलात्कार की सामग्री समझा जाता रहा और   अत्याचारों का सिलसिला रहा |
---तृतीय धारा.....जो सिर्फ भारतीय उप महादीपीय भूखंड में रही....जहां आदि कथा आदम -हब्बा की न होकर मनु-इडा-श्रृद्धा की है ...जो अनुशासन, विद्वता व श्रृद्धा भावना की प्रतीक हैं.....अतः भारत में  पुरुष प्रधान  समाज होने पर भी  सदैव से ही  नारी विद्वता, कला की प्रतीक व आदर का पात्र  रही |  भारत में भी -द.भारत  में स्त्री- सत्तात्मक व्यवस्था -स्त्री  व्यवस्थात्मक  परिवार में परिवर्तित  होकर आज भी चल रही है वहीं अधिक उन्नत होने पर  उत्तर भारत  में पुरुष परिवार नियामक व्यवस्था बनी ---परन्तु दोनों व्यवस्थाओं में ही स्त्री आदर का पात्र रही |  उसे कभी भी पाश्चात्य देशों की भाँति शैतान की कृति नहीं समझा गया......यह इस बात का द्योतक है की मनुष्य अपनी प्राचीन व्यवस्थाओं के साथ उत्तर भारत से पहले समस्त उत्तर- पश्चिम व पूर्व की दुनिया में फैला एवं आगे प्रगति से दूर रहने के कारण पुरा-युग में रहा  (इसी  प्रकार  दक्षिण भारत में ) परन्तु अपने मूल स्थान  उत्तर भारतीय भूखंड में नए नए उन्नत  व्यवस्थाओं की स्थापना करता रहा....  | इसीलिये आज भी भौतिकता व उससे सम्बंधित भोग पूर्ण उन्नति पाश्चात्य व्यवस्था का भाव रहा जबकि धर्म, अध्यात्म, मानवता  के  भाव के साथ साथ उन्नति भारतीय भूभाग का मूल चरित्र रहा  |
               ------- यूं तो पुरुष सत्तात्मक समाज में मानव सर्वाधिक उन्नति की और अग्रसर हुआ|  परन्तु फिर भी  प्रारम्भ से ही ईश्वर सत्ता को चुनौती  के साथ साथ, आसुरी-भाव व दैवीय-भावों के द्वंद्व प्रारम्भ होने से अनाचार , अत्याचार , द्वंद्व आदि प्रारम्भ होगये थे |  परन्तु नारी मूलतः स्वतंत्र व आदरणीय थी |   हाँ स्त्रियों द्वारा प्रेम भक्ति के कारण  स्वयं की ओढी हुई --त्याग, श्रृद्धा, भक्ति, पति पारायणता की सतीत्व भावना  ( यह सामंती- युग की सती प्रथा नहीं थी ) की नींव पड़ने लगी थी |  साथ ही साथ आसुरी-भाव समाज में स्त्री स्वच्छंदता भी  चलती रही |  राम की शबरी, अहल्या प्रसंग  व कृष्ण-राधा  का प्रेम प्रसंग और कुब्जा प्रसंग व द्रौपदी का सखा भाव इसी प्रेम भक्ति स्वतन्त्रता व आदर भाव  के उदारहरण माने जा सकते हैं | स्वयंवर आदि प्रथाएं भी इसी  का प्रतीक हैं |  यद्यपि.राजनैतिक कारणों से या प्रेम -प्रसंगों के कारण स्वयंबर प्रथा व आठ प्रकार के विवाह अस्तित्व में आये परन्तु  स्त्रियों  के अधिकार सीमित होने प्रारम्भ होगये थे....स्त्रियों के सदैव पिता, पति व पुत्र की सुरक्षा में रहने के उपक्रम भी उपस्थित हुए | शर्तों पर स्वयंवर----सीताके लिए धनुष-यज्ञ , द्रौपदी के लिए मछली की आँख भेदन आदि  शर्तें मूलतः स्त्री की स्वायत्तता पर अंकुश का ही प्रतीक हैं  |



          वहीं  दूसरी ओर  स्त्री -पुरुष स्वच्छंदता के अनुचित परिणाम आने लगे...तो नैतिकता के प्रश्न उठे एवं स्त्री-पुरुष दोनों के लिए ही नैतिकता , शुचिता के नियम बने |  धर्म, अध्यात्म , योग, ब्रह्मचर्य आदि भाव पुरुषों के लिए बने, ताकि स्त्रियों की अमर्यादा भाव व यौवन-काम की उद्दाम भावनाओं को पुरुष- निर्लिप्तता द्वारा  भी  मर्यादित किया जा सके..... गंगा अवतरण  व शिव का उसे अपनी जटाओं में बाँध लेना सिर्फ नदी कथा नहीं अपितु नारी के उद्दाम वेग को योग द्वारा नियंत्रण  की कथा भी है.... क्योंकि अनुभव में स्त्रियाँ अधिक हानि उठाने वाली स्थिति में होती थीं अतः मर्यादा, आचरण, शुचिता के बंधन   अधिक कठोर होने लगे  कुलीन, शिक्षित व सदाचारी स्त्रियों ने स्वयं ही त्याग, भक्ति, सतीत्व आदि के उदात्त भाव स्वीकार किये व राजनैतिक और परिस्थितियों वश वे पुरुष की परमुखापेक्षी व बंधन में होती गयीं, और समाज पूर्ण रूप से पुरुष अधिकारत्व समाज में परिवर्तित  होता गया. |


             फिर भी  भारत में  स्त्रियों की अवस्था दासी की भांति नहीं थी,  यह सीता व राधा के चरित्र से समझा जा सकता है कि उनमें विरोध के स्वर तो हैं पर  असामाजिकता के तत्व नहीं अपितु स्वयं ओढी हुई  प्रेम-दास्य भावना  है, जबकि विश्व के अन्य सभी समाजों में  स्त्रियों को मानवी मानने में भी शक था, उन्हें शैतान की कृति, पापी समझा जाता था एवं हर प्रकार से तिरस्कार व अत्याचार के योग्य |  मिश्र, बेबीलोन आदि की संस्कृतियाँ व  नेफ्रेतीती आदि की कथाओं के प्रसंगों, से यह समझा जा सकता है  |       

                                                                                ---चित्र साभार....
-----क्रमश ...भाग --६ 
               

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

स्त्री-विमर्श गाथा -भाग ४--पुरुष-सत्तात्मक समाज....

                                        ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



चित्र-1 - मातृसत्ता-(हरप्पा ) - पुरुष (शिव-पशुपति) स्त्री सत्ता ( देवी या पार्वती )की अर्चना करते हुए..व  सहायिका के रूप में सप्त मातृकाएं........
-------इस प्रकार स्त्री ने संतति हित व अपनी अन्य मूल प्रकृतिगत विशेषताओं के कारण घर पर रहना स्वीकार किया और सारी व्यवस्था-प्रबंधन व अन्तः सुरक्षा भार नारी पर व आर्थिक भरण-पोषण, वाह्य प्रबंधन , शत्रु से सुरक्षा व युद्ध आदि का मूल दायित्व पुरुष पर रहा , और स्त्री -प्रबंधन समाज की स्थापना हुई |  यद्यपि आवश्यकता पड़ने पर व आवश्यक मसलों पर शत्रु से युद्ध, युद्ध प्रवंधन, सुरक्षा व परामर्श व भरण-पोषण के लिए आवश्यक कार्यों में स्त्री , पुरुषों का साथ देती थी | वस्तुतः यह समन्वयात्मक -प्रवंधन समाज व्यवस्था थी व सह जीवन ही था | यही व्यवस्था आगे चलकर बनी मातृसत्तात्मक परिवार व पितृ सत्तात्मक परिवार का प्रतीक थी |
चित्र-........महाकाली रूप

-------ज्ञान - विज्ञान की उन्नति हुई, स्त्री-पुरुष द्वंद्व बढे, जनसंख्या के दबाव , बल व मस्तिष्क के उपयोग , युद्धों ,आर्थिक व सामाजिक दबाव व द्वंद्व व युगों की संतति-मोह, प्रेम व गर्भावस्था में अक्रियता के कारण पुरुष नारी का सुरक्षा-भाव बनने लगा | मानव स्थिर होने लगा, कबीले, वर्ग, कुटुंब, बनने लगे | युगों के जीवन प्रभाव वश नारी में मूलतः ..सौम्यता,प्रेम, त्याग, लज्जा, कला, संस्कृति के उपयोग रक्षण के भाव मूल भाव उत्पन्न होने लगे व पुरुष में...कठोरता , बल, शौर्य,वीरता, विद्वता, ज्ञान, नेतृत्त्व क्षमता आदि के भाव...जो युगानुकूल आवश्यकता भी थी | इस प्रकार बल को पौरुष व सौम्यता , संकोच , लज्जा को नारीत्व का पर्याय माना जाने लगा |
--- चित्र-३- लिंग -योनि पूजा ( हरप्पा)--- व आदि शिव ...पशुपति समाधिस्थ......
                          इस कारण जहां परिवाद बाद की स्थापना व बाद में काल-क्रमानुसार -विवाह संस्था के साथ देव-देवी युग्म उनकी पूजा -अर्चना का आविर्भाव हुआ वहीं नेतृत्त्व - क्षमता के कारण -पुरुष में  प्रधान ,मुखिया ..राजा , देवता व किसी सर्व-शक्तिमान सत्ता की कल्पना का आविर्भाव हुआ और आदि-मातृका के स्थान पर पुरुष- ईश्वर, ब्रह्म की कल्पना अस्तित्व में आई, साथ ही साथ माया, प्रकृति आदि- नारी भाव  ईश्वर-रूपों की कल्पना भी हुई, जो मूल रूप में समन्वयात्मक समाज के ही चिन्ह हैं | | कबीला-मुखिया ,राजा में -देवता व ईश्वर के भाव की स्थापना हुई | शायद इसी समय सर्व-प्रथम अर्धनारीश्वर भाव ..लिंग-योनि पूजा , अस्तित्व में आई, जो बाद में पार्वती-शिव एवं पशुपति , देवाधिदेव महादेव शिव अदि-देव व ईश्वर बने, व अन्य विष्णु, ब्रह्मा आदि विभिन्न देवों की -देवियों की कल्पना हुई , पहले प्रकृति के विभिन्न उपादानों के रूप में तत्पश्चात उनके मानवीकरण के रूप में | इस प्रकार पूर्ण-रूपेण पुरुष-सत्तात्मक समाज की स्थापना हुई | परन्तु यह केवल एक प्रकार का श्रम-विभाजन ही था , व्यवहार में यह भी एक समन्वयात्मक- समाज ही था, जिसका प्रमाण प्रत्येक देव के साथ एक देवी की कल्पना व ईश्वर के साथ माया , प्रकृति आदि की कल्पना से मिलता है |


-------नारी इस व्यवस्था में भी आधीन नहीं थी, आदरणीय सलाहकार के रूप में पूज्य थी , स्त्री के बिना यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकती थी | कोई भी अनुष्ठान...धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक ---स्त्री परामर्श व उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता था.... शायद मानव इतिहास के इसी काल-क्रम में विभिन्न ज्ञान, विज्ञान, धर्म, दर्शन, व कला , अभियांत्रिकी, मानवता,व्यवहार, स्त्री-शिक्षा आदि की सर्वाधिक उन्नति हुई  व मानव उन्नति के नए नए द्वार खुले   " यस्तु नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता "   के मूल मन्त्रों की स्थापना इसी समय होने लगी थी | ऋग्वेद १०/१५/१०४२०/२ में ऋषिका शची पोलोमी का कथन है ..."अहं केतुरहं मूर्धामुग्रा विवाचानी | ममेदनु क्रत पति: सेहनाया उपाचरेत ||.......अर्थात मैं ध्वज स्वरुप ( परिवार की गृह स्वामिनी ) तीब्र बुद्धिवाली व प्रत्येक विवेचना में समर्थ हूँ |  मेरे पतिदेव सदैव मेरे कार्यों का अनुमोदन करते हैं | तथा "अहं बदामि नेत त्वं, सभामा त्वं वद:| मेयेदस्तम्ब केवलो नान्यासि कीर्तियाश्चन ||" अर्थात ..हे स्वामी ! सभा में भले ही आप बोलें परन्तु घर पर मैं ही बोलूंगी | उसे सुनकर आप अनुमोदन करें |..... विवाह संस्था कोई कठोर व बंधन नहीं थी, स्त्रियाँ अपने क्रिया-कलापों में स्वतंत्र थी एवं इच्छा से किसी भी पुरुष अथवा जीवन साथी चुनने को स्वतंत्र थीं |
-----------वास्तव में ये दोनों ही व्यवस्थाएं स्थान, काल, देश के अनुसार युगों युगों तक साथ साथ ही चलती रहीं | आदि- मानव के उन्नत होकर मानव बनने , घुमंतू से स्थिर होने, कबीले, वर्ग, ग्राम व्यवस्था व श्रम विभाजन की विभिन्न कोटियों के उत्पन्न होने तक,  जिनके मूल प्रभाव का पता अभी तक उपस्थित मातृसत्तात्मक -परिवार (यथा द.भारत ) व पितृसत्तात्मक परिवारों (यथा उत्तर भारत ) की उपस्थिति से  चलता है |   मूलतः पृथ्वी के भूखंडों के बनते -बिगड़ते रहने से, नए-नए देशों व आश्रय -स्थलों के परिवर्तन होते रहने से, जन संख्या के निरंतर दवाब के कारण मानव कुल, समूह, वर्ग लगातार अन्य स्थलों को पलायन करते रहे |  उत्तर भारतीय भूखंड, जीवन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होने से यहाँ मानव की उत्पत्ति हुई एवं यहाँ से विश्व के अन्य उत्तरी, पश्चिमी, पूर्वी भागों की ओर पलायन के साथ अपने समयानुकूल समाज-व्यवस्था को भी साथ लेजाते रहे | मूल स्थान उत्तर भारत में जन संख्या व ज्ञान के प्रसार के साथ नयी व्यवस्थाएं आती रहीं |  इसी प्रकार दक्षिण भारतीय भूखंडों के सम्मिलित होने पर हिमालय आदि श्रृंखलाएं बनी व मानव ने विन्ध्य श्रृंखला पार करके दक्षिण की ओर पलायन किया अपने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के साथ | इसीलिये हम देखते हैं कि उत्तर-भारत, अरब देशों, अफ्रीकी देशों आदि में पुरुष प्रधान व्यवस्था उत्पन्न होती गयी जबकि दक्षिण भारत, पूर्वी भारत, योरोप, चीन, अमेरिका , लेटिन अमेरिका आदि देशों में स्त्री सत्ता अधिक प्रभावी रही व आज भी परिलक्षित है | यद्यपि धीरे धीरे यह पुरुष प्रवंधित समाज में बदलती गयी |

----सभी चित्र ..साभार ...

अभी तो शेष है......अन्ना गीत...ड़ा श्याम गुप्त....

                                                                         ..कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

(कारण,  कार्य व प्रभाव गीत....)

अभी तो शेष है मुझमें ,
अथक संघर्ष की क्षमता |
        
          तिमिर होने लगी है किन्तु -
              धुंधली सी किरण भी है |
                 मुझे  लगता है यह संदेह,
                     बस यूंही अकारण है ||

अँधेरे भेद कब पाए ,
भला उजियार की क्षमता |

     साथ मेरे चले जो भी ,
         वही झिलमिल किरण होगा |
             राग दीपक की लहरी से,
                 तिमिर का तम हरण होगा ||

समझ तूफ़ान कब पाए,
तरणि-संघर्ष की क्षमता |

       बहुत चाहा, नहीं जलयान,
            तट की  शरण जा पाये |
               धैर्य संकल्प के आगे ,
                   कहाँ तूफ़ान टिक पाए ||


   कहाँ साए की ठंडक में,
  धूप की तपन सी क्षमता |

       पला सायों में उसने कब ,
           जहां का दर्द जाना है |
             तप दिनभर वही समझा ,
                दर्दे-गम का तराना है ||

  अँधेरे भ्रम के कब समझे  ,
  मौन विश्वास की क्षमता |

        नहीं होती कोइ सीमा ,
            किसी भ्रम के निवारण की |
                 नहीं होती मगर श्रृद्धा,
                    कभी यूंही अकारण ही ||


   अहं का गीत क्या जाने ,
  समर्पण भाव की क्षमता |

         अहं में अनसुनी चाहे,
             करो तुम वन्दना मेरी |
                 समर्पण भाव में मैं तो,
                    तुम्हारे छंद गाता हूँ ||

बुधवार, 24 अगस्त 2011

अन्ना शक्ति-भाग दो ..जन क्रान्ति व उसका इतिहास ....



वामन व राजा बलि

राजा वेन की जंघा मंथन





भगवान राम

 युग कांतिकारी कृष्ण  



महात्मा गांधी
 



                   सरकार व उसके अधिकाँशतर चुप रहने वाले पीएम व सर्व विज्ञ मंत्रीगण एवं मसखरे सिब्बल यह कहते नहीं अघाते कि नियम, क़ानून व व्यवस्था हर एक के या  चार-पांच लोगों के या सिर्फ अन्ना के   कहने से नहीं बनते अपितु एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत संसद में ही बन् सकते हैं | क्या वे नहीं जानते कि यहाँ लोक तो रहता ही सडकों पर है; या  येन केन प्रकारेण संसद में पहुंचे हुए लोग सत्ता- सुन्दरी, सत्ता की कुर्सी व आलीशान महलों , ठंडे  कमरों में रहकर ,बैठकर लोक व जन को सडकों पर रहने को मजबूर करदेते हैं ;  यह जन तंत्र है जनता का तंत्र | अब जनता स्वयं  तो संसद में जायेगी नहीं , वह तो सदा सडकों से ही सत्ताओं, सत्ताधीशों को पदच्युत करती आई है , सुधारती आई है, सबक सिखाती आई है | जब सारा देश ही अन्ना हजारे  के समर्थन में है, जन-लोकपाल बिल के समर्थन में है जैसा कि आज पूरा विश्व देख रहा है तो फिर जनतंत्र में इस जन के सम्मुख किसी संसद या सांसद की क्या बिसात ?
                              हम भूल जाते हैं कि जनक्रांतियां सदैव सडकों से ही उठती हैं |  मानव इतिहास की प्रथम सांकेतिक जन-क्रान्ति जन सामान्य- वामन अवतार द्वारा बलवान,पराक्रमी, ज्ञानी, परन्तु असांस्कृतिक-भाव युत  राजा बलि का पराभव व सु-सांस्कृतिक व्यवस्था का प्रारम्भ  तथा दूसरी वास्तविक जन क्रान्ति  "वेन जंघा भंग " भी जन द्वारा ही अत्याचारी राजा वेन के शरीर का मंथन करके नवीन व्यवस्था का के प्रारम्भ की कहानी है | त्रेता -युग में राम-लक्षमण व सीता द्वारा अत्याचारी विश्व विजयी रावण व उसके रावणत्व के विरुद्ध भी भारत भर के आंचलिक , दीन-हीन जन जन को शिक्षित, उद्वेलित करके  जन -जागरण के माध्यम् से सडकों पर आकर ही जन क्रान्ति द्वारा उसका पराभव किया था |  द्वापर में श्री कृष्ण -राधा ने बृज क्षेत्र में युवा व महिला जनजागरण  द्वारा देश में क्रान्ति का मूल बीज बोया  व  श्रीकृष्ण-अर्जुन ने समस्त भारत भर में  जन जागरण के महामंत्र से जन जन के सहयोग से ही महाभारत जैसी विश्व क्रान्ति का महानतम  कार्य किया था |
                         आधुनिक युग में भी एसी कौन सी क्रान्ति या व्यवस्था परिवर्तन है जिसमें जन जन ने सडकों पर आकर परिवर्तन का सूत्रपात न किया हो व सफल न रही हो | दुनिया भर में नवीन व्यवस्थाओं की स्थापना सडकों पर ही हुई है | आधुनिक इतिहास का सबसे बड़ा व महत्त्वपूर्ण आंदोलन महात्मा गांधी जी का भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का आंदोलन क्या सड़क पर से जन जन द्वारा नहीं हुआ था जिसने विश्व साम्राज्य के ताबूत में अंतिम कीलें जड़ दीं |
                        क्या हम, हमारी सरकार व जनता के धन-बल से ही एसी-बंगलों -संसद  में बैठे  मंत्रीगण-सांसद  इतिहास से  सबक लेंगे?
                
     

सोमवार, 22 अगस्त 2011

सृजन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था, लखनऊ का वार्षिक सम्मान समारोह.... श्याम गुप्त

                                      ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                लखनऊ के  युवा रचनाकारों की साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्था  'सृजन' का वार्षिक समारोह स्थानीय गांधी भवन के लाइब्रेरी हाल में दिनांक २१ अगस्त २०११ को संपन्न हुआ | सरस्वती पूजन व माल्यार्पण के पश्चात वाणी वन्दना प्रातिभ युवा कवि श्री सुभाष चन्द्र रसिया ने की | अतिथियों का स्वागत संस्था के अध्यक्ष डॉ योगेश गुप्त ने किया एवं संस्था की गतिविधियों व उसकी स्थापना के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला  | संस्था द्वारा  नगर के वरिष्ठ कवि साहित्यकार , रेलवे के अवकाश प्राप्त वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक  व सर्जन ड़ा श्याम गुप्त  को 'सृजन साधना वरिष्ठ रचनाकार सम्मान व युवा कवि श्री अखिलेश त्रिवेदी को सृजन साधना युवा रचनाकार सम्मान प्रदान किया गया |
ड़ा श्याम गुप्त को सम्मानित करते हुए पूर्व महानिदेशक पुलिस श्री महेश चन्द्र द्विवेदी एवं श्री विनोद चन्द्र पांडे  आई ऐ एस 

संस्था के उपाध्यक्ष परिचय पढते हुए
श्रीमती सुषमा गुप्ता परिचय पढते हुए
सम्मानित साहित्यकार ड़ा श्याम गुप्त व अखिलेश त्रिवेदी व मंचस्थ  डॉ सत्य, श्री द्विवेदी जी, सिन्हा जी, विनोद चन्द्र पांडे जी व अन्य



संस्था केअध्यक्ष ड़ा योगेश द्वारा धन्यवाद ज्ञापन व साथ में महामंत्री देवेश कुमार देवेश व श्री पार्थो सेन

                  समारोह की अध्यक्षता अगीत विधा के संस्थापक ड़ा रंग नाथ मिश्र 'सत्य' ने की | मुख्य अतिथि श्री विनोद चन्द्र पांडे 'विनोद' आई ऐ एस पूर्व अध्यक्ष हिन्दी संस्थान, , विशिष्ट अतिथि श्री महेश चन्द्र द्विवेदी पूर्व डीजीपी लखनऊ, श्री गदाधर नारायण सिन्हा पूर्व डीजीपी  व श्री राम चन्द्र शुक्ल पूर्व न्यायाधीश थे |
                  संस्थाके उपाध्यक्ष श्री राजेश कुमार श्रीवास्तव  व कवयत्री श्रीमती सुषमा गुप्ता ने ड़ा श्याम गुप्त का जीवन परिचय दिया एवं श्री गौरव दीक्षित 'मासूम' ने श्री अखिलेश त्रिवेदी का परिचय दिया |  प्रमुख वक्ताओं साहित्यकार व कवि  प्रोफ ओम प्रकाश गुप्त 'मधुर, कवयित्री श्रीमती स्नेह लता , सुषमा गुप्ता, श्री पार्थो सेन  व मशहूर शायर सुलतान शाकिर हाशमी  ने ड़ा श्याम गुप्त के रचना संसार व रचना धर्मिता की विशद रूप से चर्चा की |
            समारोह में उपस्थित  ड़ा आर के गुप्ता पूर्व मुख्य चिकित्सा अधीक्षक ,मंडल रेलवे  चिकित्सालय,  लखनऊ   ने भी ड़ा श्याम गुप्त के जीवन वृत्त व रचनाओं पर प्रकाश डाला |

           ड़ा श्याम गुप्त  व  श्री अखिलेश त्रिवेदी 'शाश्वत'  द्वारा काव्य-पाठ  किया गया | संस्था द्वारा अन्य कविगणों को भी सम्मानित किया गया | अध्यक्ष, मुख्य अतिथि व अन्य मंचस्थ वरिष्ठ विद्वानों ने काव्य जगत में सृजन जैसी युवाओं की संस्थाओं की अत्यंत आवश्यकता व उनके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए संस्था  के कार्य कलापों की भूरि -भूरि  प्रशंसा की | संस्था के अध्यक्ष ड़ा योगेश द्वारा धन्यवाद ज्ञापन किया गया |        
     








रविवार, 21 अगस्त 2011

जन्माष्टमी पर विशेष ... ड़ा श्याम गुप्त ..

                                                   ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 





 
 
 
गोवर्धन गिरिधारी ने जब, गिरि गोधन को उठाया होगा ।
मन में एक बार तो हरि के, एसा भी कुछ आया होगा।
 
गीता ज्ञान दिया गोविन्द ने, मन कुछ भाव समाया होगा |
नटवर ने कुछ सोचा होगा, मन कुछ भाव बसाया होगा।।

युग युग तक ये कर्म कथाएँ ,जन मानस में पलती रहें।
तथा
कर्म, कर्मों की गति पर,संतति युग युग चलती रहें ।

कर्म भाव को धर्म मानकर ,जनहित कर्म ध्वजा फहरे ।
परहित भाव सजे जन जन में,मन यह भाव सुहाया होगा ।।

सुख समृद्धि पले यह अंचल, युग युग यह युग-धर्म रहे।
दुःख दारिद्र्य दूर हों सारे, मन श्रम -ज्ञान का मर्म रहे ।

भक्ति, ज्ञान ,विज्ञान, साधना, में रत रहें सभी प्रियजन ।
सत्-आराधन की महिमा का, मन में भाव सजाया होगा।।

रूढि, अंध श्रृद्धा को छोड़कर, गोवर्धन पूजन अपनाया ।
गर्व चूर करने सुरपति का,गोवर्धन कान्हा ने बसाया।

चाहे जितना कुपित इंद्र हो, चाहे जितनी वर्षा आये।
नहीं तबाही अब आयेगी,मन दृढ भाव बनाया होगा।।

कान्हा,राधा, सखी-सखा मिल,कार्य असंभव करके दिखाया।
सात दिवस में सभी ग्राम को, गोवर्धन अंचल में बसाया।

कुशल संगठन दृढ संकल्प,श्रमदान का एसा खेल रचा।
कहते कान्हा ने उंगली पर गोवर्धन को उठाया होगा ।।

वही देश वासी कान्हाके,भूल गए हैं श्रम-आराधन
भक्ति श्रृद्धा का भक्तों की,करते रहते केवल दोहन


ताल, सरोवर, नदी, गली सब, कूड़े-करकट भरे पड़े हैं।
जिन्हें कृष्ण-राधा ने मिलकर,निज हाथों से सजाया होगा।।

कर्म भावना ही न रही जब, धर्म भाव कैसे रह पाए।
दुहते धेनु अंध-श्रृद्धा की,पत्थर पर घृत -दुग्ध बहाए।

रूढि, अन्ध श्रृद्धा में जीते, दुःख-दारिद्र्य हर जगह छाया।
जिसे मिटाने कभी 'श्याम' ने ,जन अभियान चलाया होगा।।

आज जो गिरिधारी आजायें, कर्मभूमि की करें समीक्षा।
निज कान्हा की कर्मभूमि की, राधारानी करें परीक्षा।

अश्रु नयन में भर आयेंगे, वंशी नहीं बजा पायेंगे
कर्म साधना भूलेंगे सब, कभी मन में आया होगा ॥ 
                                                                                              ----चित्र साभार ..

शनिवार, 20 अगस्त 2011

अन्ना-शक्ति-भाग १...युवा व महिला शक्ति को सलाम....




                                                                       ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


                 यूं तो लोकपाल बिल पर अन्ना के समर्थन में समस्त देश है  | यद्यपि बढे व अनुभवी लोग सदा ही किसी भी जन आंदोलन की अगुवाई करते हैं परन्तु किसी भी आंदोलन की सफलता के मूल में जब तक युवाओं के शक्ति नहीं होती वह आगे नहीं बढ़ सकता एवं सफलता के भी गारंटी नहीं होती | यह अत्यंत ही हर्ष की बात है कि आज देश का युवा पूर्ण रूप से अन्ना के समर्थन में है ...इससे यह निश्चय ही सिद्ध होता है कि देश का युवा मूलतः भ्रष्टाचार/ अनाचार  के विरुद्ध है परन्तु उसे दिशा दिखाने वाला तो कोई हो , यह  आगे आने वाले समय  के प्रति आशा का शुभ-संदेश है | इसी प्रकार समाज का आधा भाग---स्त्री शक्ति द्वारा , किसी भी आंदोलन या  सामाजिक कार्य में क्रियात्मक योगदान के बिना कोई भी मुहीम सम्पूर्ण नहीं होती ...वह ही तो पुरुष व युवा की मूल प्रेरणा दायी  शक्ति होती है | अन्ना आंदोलन के साथ नारी-शक्ति योगदान एक अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु है जो निश्चय ही यह संदेश का वाहक है कि अब देश भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिये  तैयार है |
जन रैली
 आशियाना, लखनऊ में अन्ना-रैली
महिला शक्ति
अन्ना के तेवर



                आज युवा व महिलाओं व जन जन के महा समर्थन व सड़क पर आकर स्वतः-भूत  विभिन्न कार्यक्रमों से- हम व जिस पीढ़ी ने स्वतन्त्रता आंदोलन में भाग नहीं लिया या नहीं देखा बस सुना -पढ़ा ही है  वे अनुमान लगा सकते हैं कि महात्मा गांधी की अगुवाई में एवं  क्रांतिकारियों के समर्थन व सरफरोशी  के उस युग में जन जन की क्रान्ति का यही रूप रहा होगा |  यद्यपि विदेशी शक्ति के विरुद्ध व लाठी-गोली खाना निश्चय ही कठिन रहा होगा परन्तु वास्तविक भावात्मक रूप में अपनों , अपनी सरकार के विरुद्ध लड़ना निश्चय ही कठिन होता है और इसके लिये ...देश की युवा व नारी शक्ति को पुनः पुनः सलाम....|
                         परन्तु यह स्थिति आई ही क्यों ? वास्तव में विश्व के इतने बड़े जन आंदोलन /क्रान्ति की सफलता के पश्चात हम गांधीजी व क्रांतिकारियों के मूल उद्देश्य व राहों को भूल गए और हम हमारी तत्कालीन पीढ़ी व सरकारें आज़ादी के फल खाने में व्यस्त होगई | संस्कृति, देश भक्ति , आचरण, पर हमने युवाओं को कोई दिशा नहीं प्रदान की फलतः देश व समाज अनाचरण व संस्कृति भ्रष्टता व नैतिक पतन  की ओर बढता गया | भ्रष्टाचार तो नैतिक पतन का परिणामी  प्रभाव व  पराकाष्ठा है |
               इस वर्त्तमान अन्ना-जन आंदोलन को  एक प्रकार की दूसरी क्रान्ति या प्रतिक्रांति कहा जासकता है .....और निश्चय ही हम सब चाहेंगे कि इस शुरूआत के पश्चात हम मूल उद्देश्य व भ्रष्टाचार  के मूल कारण -जन जन में व्याप्त अनाचरण, सांस्कृतिक पतन व अकर्मण्यता  को भूल न जायं, जिससे हमें लडने के लिए हमें अभी से कृतसंकल्प रहना है | भ्रष्टाचार समाप्ति तो शुरूआत है ...पर शुरूआत तो हो कहीं से हो ...|

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

स्त्री -पुरुष विमर्श गाथा --भाग ३ --स्त्री सत्तात्मक समाज ....

                                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

   चित्र-१..मातृ-देवी ---             चित्र-२-मातृ-देवी व पुजारी -              चित्र-३--मातृ-देवी द्वारा पशु से युद्ध- 









चित्र४- -- स्त्री सत्ता की स्वच्छान्द्चारिता












                         इस प्रकार मानव द्वारा सहजीवन अपनाने के पश्चात अपनी प्रकृतिगत कार्य दक्षता, कार्य-लगन ,तीक्ष्ण-बुद्धि, दूरदर्शिता व प्रत्युत्पन्नमति एवं संतान के प्रति स्वाभाविक अधिक लगाव के कारण स्त्री ने स्वयं ही श्रम विभाजन की आवश्यकतानुसार संतान-परिवार-समूह- कबीला -के साथ गुफा, बृक्ष-आवास या एक स्थान पर स्थित आवास पर( घर पर ) ही रहकर ही समस्त आतंरिक व वाह्य प्रबंधन व्यवस्था स्वीकार की | इस प्रकार स्त्री-प्रवंधन समाज का गठन हुआ |  समाज मूलतः खाद्य-वस्तु एकत्रक (फ़ूड-गेदरर) था |  बाहर जाकर अन्न, फल, या शिकार एकत्र करना पुरुष का व उसका प्रबंधन, वितरण, संरक्षण व समस्त आतंरिक प्रबंधन स्त्री का कार्य हुआ| स्त्री-पुरुष सम्बन्ध स्वच्छंद थे | मूलतः समाज "लिव इन रिलेशन शिप " के रूप में था | स्त्रियाँ व पुरुष स्वच्छंद थे व अपनी इच्छानुसार किसी भी एक या अधिक पुरुष-स्त्री के साथ सम्बन्ध रख सकते थे |
               ज्ञान बढ़ा, मानव गुफाओं से झोपडियों में आया | घुमंतू से स्थिर हुआ | वह प्रकृति के अंगों ...सूर्य, चन्द्र, वर्षा आदि की आश्चर्य, भय व श्रृद्धा वश आराधना तो करता था परन्तु ईश्वर का कोई स्थान न था न पुरुष देवताओं का | स्त्री सत्ता अधिक दृढ हुई और स्त्री प्रबंधन से स्त्री-सत्तात्मक समाज की स्थापना हुई |सभी पुरुष पूर्णतया स्त्री-सत्ता के अधीन होकर ही कार्य करते थे | पुरुष धीरे धीरे सिर्फ आज्ञापालक की भांति होता गया | संतान आदि .माताओं के सन्दर्भ से ही जाने व माने जाते थे ..., वन-देवी , आदि-माता, माँ , मातृका , सप्तमातृका , प्रकृति-देवी के साथ, वन देवी आदि विभिन्न देवियों की पूजा स्त्री सत्तात्मक समाज की ही देन है | उस काल में किसी पुरुष देवता की पूजा या मूर्ति -लिंग का उल्लेख नहीं मिलता | सबसे प्राचीन मूर्तियां पुरुष देवताओं की न होकर , देवी के थान -(स्थान-सिर्फ चबूतरा बिना किसी मूर्ति के ) व मातृका , सप्तमातृका की ही मूर्तियां हैं |
                  इस प्रकार स्त्रियाँ शासक व पुरुष प्राय: सैनिक की भांति -सुरक्षा व कार्मिक व सलाहकार - हेतु उपयोग होने लगे...स्वच्छंदता व सामूहिकता के दुष्परिणाम आने लगे , स्त्रियाँ अत्यंत स्वच्छंद व स्वेच्छाचारी होने लगीं तो पुरुष द्वारा भी बल प्रयोग की घटनाएँ होने लगीं |  दोनों के आचरण से द्वंद्व बढ़ने लगे|  धीरे धीरे शक्ति- सलाहकार-सैनिक-सेनापति के रूप में पुरुष के हाथ में आती गयी | गर्भावस्था के दौरान अक्रिय रहने व संतति -पालन के दौरान शक्तिहीन होने के कारण पुरुष स्त्री का सुरक्षा -भाव बनने लगा | शारीरिक शक्ति व बल का बर्चस्व बढ़ा और समाज का प्रबंधन पुरुष के हाथ में चलागया| इस प्रकार पुरुष प्रवंधित समाज की स्थापना हुई | यद्यपि आवागमन आदि के संसाधन न  होने से सुदूर स्थानों से तारतम्य,आदान प्रदान  व आपसी संपर्क  होने की दुष्करता व असंभवता  के  फलस्वरूप  दोनों ही व्यवस्थाएं अपने अपने क्षेत्रों में साथ साथ चलती रहीं |

स्वतन्त्रता दिवस पर...ड़ा श्याम गुप्ता ...

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


 १-दोहा...
हम स्वतंत्र एडवांस हैं ,मन में गर्व असीम |
पर इस सब में बिक गया, दरवाजे का नीम |

२- त्रिपदा अगीत ....
मौसम श्रृंगार नख शिखों की,
बातें   पुरानी  होगईं  हैं;
कवि ! गीत गाओ राष्ट्रके अब |

 ३- अगीत ..खून सना धागा....
अब वो हिन्दोस्तां ,
कभी वापस नहीं आएगा ;
खून सना धागा ,
कहाँ इतने टुकड़ों को ,
जोड़ पायेगा |

४- अगीत - विकास ...
बिकास की
कुलाचें मारता मेरा देश ,
व्यक्ति को धकियाकर
चढ गया ऊंचा,
होकर निर्धनों का धनी देश |

रविवार, 14 अगस्त 2011

स्वतन्त्रता दिवस पर विशेष ...ड़ा श्याम गुप्त...




                                                 ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
पर  भा की बात निराली 

सारा जग सुंदर अति सुंदर,
पर भारत की बात निराली |
गूंजे  प्रेम-प्रीति की भाषा ,
 वन उपवन तरु डाली डाली |
मेरे देश की बात निराली,
भारत की हर बात निराली ||

गली गली है गीत यहाँ की ,
गाँव शहर संगीत की थिरकन |
पगडंडी सी   नीति -कथाएं ,
हाट डगर मग प्रीति की धडकन |
नदी नहर जल मधु की प्याली , 
पथ पथ सत् की कथा निराली |

प्रेम की भाषा डाली डाली .
इस भारत की बात निराली ||

अपने अपने नियम धर्म सब,
अपने अपने ब्रह्म ईश सब |
अपनी अपनी कला कथाएं ,
अपनी अपनी रीति व्यथाएँ |
अलग अलग रंग प्रीति निराली ,
भिन्न भिन्न हर ड़ाली डाली |

एक तना जड़ एक निराली,
इस भारत की बात निराली ||

कर्म के साथ धर्म की भाषा ,
अर्थ औं काम मोक्ष अभिलाषा |
जीवन की गतिमय परिभाषा |
विविधि धर्म मत जाति के बासी ,
बहु विचार बहु शास्त्र कथा सी |
भोर-सांध्य की प्रेम-व्यथा  सी |

बहुरंगी संस्कृति की थाली,
प्रेम की भाषा डाली डाली ||

गीता स्मृति वेद उपनिषद ,
गूढ़  कथाएं ये पुराण सब |
विविधि शास्त्र इतिहास सुहाना,
 कालिदास प्रभृत्ति विद्वाना |
सुर  भूसुर  भूदेव  महीसुर,
नर-नारायण, संत कवीश्वर |

प्रथम भोर ऊषा की लाली ,
प्रिय भारत की छटा निराली ||

स्त्री-पुरुष विमर्श गाथा...भाग दो ..सहजीवन.व श्रम विभाजन ...डा श्याम गुप्त...

                                                                 ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 ------वह आकृति अपनी गुफा में से अपने फल आदि उठाकर आगंतुक की गुफा में साथ रहने चली आई | यह मैत्री भाव था, साहचर्य --निश्चय ही संरक्षण-सुरक्षा भाव था..पर अधीनता नहीं ....बिना अनिवार्यता..बिना किसी बंधन के.....| इस प्रकार प्रथम बार मानव जीवन में सहजीवन की नींव पडी |  साथ साथ रहना...फल जुटाना ..कार्य करना..स्वरक्षण...स्वजीवन रक्षा...अन्य प्राणियों की भांति |  चाहे कोई भी फल या खाना जुटाए...एक बाहर जाए या दोनों ...पर मिल बाँट कर खाना व रहने की निश्चित प्रक्रिया -सहजीविता - ने जीवन की कुछ चिंताओं को -खतरे की आशंका व खाना जुटाने की चिंता -अवश्य ही कुछ कम किया | और सिर्फ खाना जुटाने की अपेक्षा कुछ और देखने समझने जानने का समय मिलने लगा
--------फिर एक दिन उन्होंने ज्ञान का फल चखा ....स्त्री-पुरुष का भेद जाना ;...(  वास्तव में यह फल खाने-खिलाने व स्त्री द्वारा पुरुष को भटकाने -स्त्री को शैतान की कृति मानने की कथा -मुस्लिम व ईसाई जगत में ही प्रचलित  है ---हिन्दू जगत --भारतीय कथ्यों में यह कथा नहीं है ..अपितु आदि एवं साथ साथ उत्पन्न -स्त्री-पुरुष --मनु व श्रृद्धा हैं जो साथ साथ मानवता व श्रद्धात्मकता भाव से साथ साथ रहते हैं ....हाँ जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में इडा ( बुद्धि ) नामक चरित्र की स्थापना की है जिसके कारण मनु ( मानव ) श्रृद्धा को भूल जाते हैं ...कष्ट उठाते हैं ..और पुनः स्मरण पर वे दोनों का समन्वय करते हैं |) ; वे पत्तियों से अपना शरीर ढंकने लगे, बृक्षों पर आवास बनने की प्रक्रिया हुई,   अपने जैसे अन्य मानवों की खोज व सहजीवन के बढ़ने से अन्य साथियों का साहचर्य..सहजीवन..के कारण सामूहिकता का विकास हुआ...नारी स्वच्छंदथी....स्त्री-पुरुष सम्बन्ध बंधन हीन  उन्मुक्त थे | एक प्रकार से आजकल के  'लिव इन रिलेशन' की भांति |  स्त्री-पुरुष सम्बन्ध विकास से संतति  मानव समाज केविकास  के साथ ही संतति सुरक्षा का प्रश्न  खड़े हुए, जो मानवता का सबसे बड़ा मूल प्रश्न बना, क्योंकि प्रायः नर-नारी दोनों ही भोजन की खोज में दूर दूर चले जाते थे व बच्चे जानवरों के बच्चों की  भांति पीछे असुरक्षित होजाते थे ...| समाज बढ़ने से द्वंद्व भी बढ़ने लगे | अतः शत्रु से संतति रक्षा के लिए किसी को आवास स्थान पर रहना आवश्यक समझा जाने लगा, इस प्रकार प्रथम बार कार्य विभाजन, श्रम विभाजन (Division of labour) की आवश्यकता पडी |
--------क्योंकि नारी शारीरिक रूप से चपल, स्फूर्त, प्रत्युत्पन्न मति, तात्कालिक उपायों में पुरुष से अधिक सक्षम, तीक्ष्ण बुद्धि वाली, दूरदर्शी होने के साथ साथ, संतति की विभिन्न आवश्यकताओं व प्रेम भावना की पूर्ति हित सक्षम होने के कारण --उसने स्वेच्छा  से निवास-स्थान पर असहाय संतान के साथ रहना स्वीकार किया, और स्त्री प्रबंधन समाज की स्थापना हुई | जो बाद में स्त्री -सत्तात्मक समाज भी कहलाया |                                      ----चित्र--साभार .....
----------------क्रमश : भाग तीन..स्त्री-सत्तात्मक समाज.....