....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
आज विश्व में हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला है...साथ ही देश की राजनीति एवं प्रत्येक क्षेत्र में उसके विरुद्धआवाजें भी उठ रही हैं जो एक अच्छा प्रतीक है ...मानवता के लिए ....परन्तु प्रत्येक बुराई का ..अनीतिशास्त्र का वास्तविक मूल कहाँ है ...असीमित सुख की अभिलाषा....प्रस्तुत है एक कविता......
बुराई की जड़
प्रत्येक बुराई की जड़ है,
अति सुखाभिलाषा ;
जो ढूंढ ही लेती है
अर्थशास्त्र की नई परिभाषा;
ढूंढ ही लेती है
अर्थ शास्त्रं के नए आयाम ,
और धन आगम-व्यय के
नए नए व्यायाम |
और प्रारम्भ होता है
एक दुश्चक्र, एक कुचक्र -
एक माया बंधन -क्रम उपक्रम द्वारा
समाज के पतन का पयाम |
प्रत्येक बुराई की जड़ है,
अति सुखाभिलाषा ;
जो ढूंढ ही लेती है
अर्थशास्त्र की नई परिभाषा;
ढूंढ ही लेती है
अर्थ शास्त्रं के नए आयाम ,
और धन आगम-व्यय के
नए नए व्यायाम |
और प्रारम्भ होता है
एक दुश्चक्र, एक कुचक्र -
एक माया बंधन -क्रम उपक्रम द्वारा
समाज के पतन का पयाम |
समन्वय
वादी, तथा-
प्राचीन व अर्वाचीन से
नवीन को जोड़े रखकर,बुने गए-
नए नए तथ्यों, आविष्कारों, विचारों से होता है,
समाज-उन्नंत... अग्रसर |
पर, सिर्फ सुख अभिलाषा, अति सुखाभिलाषा-
उत्पन्न करती है, दोहन-भयादोहन,
प्रकृति का,समाज का, व्यक्ति का;
समष्टि होने लगती है, उन्मुख
व्यष्टि की ओर;
समाज की मन रूपी पतंग में बंध जाती है-
माया की डोर |
ऊंची, और ऊंची, और ऊंची
उड़ने को विभोर ;
पर अंत में कटती है ,
गिरती है, लुटती है वह डोर-
क्योंकि , अभिलाषा का नहीं है, कोई-
ओर व छोर |
नायकों, महानायकों द्वारा-
बगैर सोचे समझे
सिर्फ पैसे के लिए कार्य करना;
चाहे फिल्म हो या विज्ञापन ;
कर देता है-
जन आचार संहिता का समापन |
क्योंकि इससे उत्पन्न होता है
असत्य का अम्बार,
झूठे सपनों का संसार ;
और उत्पन्न होता है ,
भ्रम, कुतर्क, छल, फरेब, पाखण्ड का
विज्ञापन किरदार ,
एक अवास्तविक, असामाजिक संसार |
साहित्य, मनोरंजन व कला-
जब धनाश्रित होजाते हैं;
रोजी रोटी का श्रोत , व-
आजीविका बन जाते हैं ;
यहीं से प्रारम्भ होता है-
लाभ का अर्थ शास्त्र,
लोभ व धन आश्रित अनैतिकता की जड़ का ,
नवीन लोभ-कर्म नीति शास्त्र , या--
अनीति शास्त्र ||
प्राचीन व अर्वाचीन से
नवीन को जोड़े रखकर,बुने गए-
नए नए तथ्यों, आविष्कारों, विचारों से होता है,
समाज-उन्नंत... अग्रसर |
पर, सिर्फ सुख अभिलाषा, अति सुखाभिलाषा-
उत्पन्न करती है, दोहन-भयादोहन,
प्रकृति का,समाज का, व्यक्ति का;
समष्टि होने लगती है, उन्मुख
व्यष्टि की ओर;
समाज की मन रूपी पतंग में बंध जाती है-
माया की डोर |
ऊंची, और ऊंची, और ऊंची
उड़ने को विभोर ;
पर अंत में कटती है ,
गिरती है, लुटती है वह डोर-
क्योंकि , अभिलाषा का नहीं है, कोई-
ओर व छोर |
नायकों, महानायकों द्वारा-
बगैर सोचे समझे
सिर्फ पैसे के लिए कार्य करना;
चाहे फिल्म हो या विज्ञापन ;
कर देता है-
जन आचार संहिता का समापन |
क्योंकि इससे उत्पन्न होता है
असत्य का अम्बार,
झूठे सपनों का संसार ;
और उत्पन्न होता है ,
भ्रम, कुतर्क, छल, फरेब, पाखण्ड का
विज्ञापन किरदार ,
एक अवास्तविक, असामाजिक संसार |
साहित्य, मनोरंजन व कला-
जब धनाश्रित होजाते हैं;
रोजी रोटी का श्रोत , व-
आजीविका बन जाते हैं ;
यहीं से प्रारम्भ होता है-
लाभ का अर्थ शास्त्र,
लोभ व धन आश्रित अनैतिकता की जड़ का ,
नवीन लोभ-कर्म नीति शास्त्र , या--
अनीति शास्त्र ||
5 टिप्पणियां:
सुख की अभिलाषा और नित ही सुख की नयी परिभाषा।
सुन्दर प्रस्तुति -
आभार आपका-
सादर -
धन्यवाद पांडे जी एवं रविकर .....
स्वार्थी ,भ्रष्ट लोगो ने आय ,व्याय,अर्थशास्त्र को बदनाम कर दिया !
नया वर्ष २०१४ मंगलमय हो |सुख ,शांति ,स्वास्थ्यकर हो |कल्याणकारी हो |
नई पोस्ट सर्दी का मौसम!
नई पोस्ट विचित्र प्रकृति
धन्यवाद कालीपद जी ...सच कहा ...
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