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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

गुरु पूर्णिमा पर---- सूरज बन कर ज्ञान का, जब गुरु करे प्रकाश...ड़ा श्याम गुप्त ...

                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


गुरु पूर्णिमा पर----

गुरु

दावानल संसार में, दारुण दुःख अनंत,|
श्याम करे गुरु वन्दना, सब दुखों का अंत ||

सदाचार स्थापना, शास्त्र अर्थ समझाय।
आप करे सदआचरण, सो आचार्य कहाय॥

यदकिन्चित भी ग्यान जो, हम को देय बताय।
ज्ञानी उसको मानकर, फ़िर गुरु लेंय बनाय॥

इस संसार अपार को किस विधि कीजै पार।
श्याम गुरु कृपा पाइये, सब विधि हो उद्धार।।

अध्यापक को दीजिये, अति गौरव सम्मान।
श्याम करें आचार्य का, सदा दश गुना मान ॥

गु अक्षर का अर्थ है, अन्धकार अज्ञान।
रु से उसको रोकता, सो है गुरु महान ॥

जब तक मन स्थिर नहीं, मन नहिं शास्त्र विचार।
गुरु की कृपा न प्राप्त हो, मिले न तत्व विचार॥

आलोकित हो श्याम का,मन रूपी आकाश ।
सूरज बन कर ज्ञान का, जब गुरु करे प्रकाश॥

गुरु पूर्णिमा पर--त्रिभुवन गुरु और जगत गुरु ...ड़ा श्याम गुप्त ...

                                             ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


गुरु पूर्णिमा पर------
                                   अन्योनास्ति----जगत गुरु-----ईश्वर........

त्रिभुवन गुरु और जगत गुरु,जो प्रत्यक्ष प्रमाण।
जन्म मरण से मुक्ति दे, "ईश्वर" करूं प्रणाम॥


ईशोपनिषद के प्रथम मन्त्र .------

.”ईशावास्यम इदं सर्वं यद्किंचित जगत्याम जगत |”
”तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध कस्यविद्धनम "


के प्रथम भाग..”ईशावास्यम इदं सर्वं यद्किंचित जगत्याम जगत |” का काव्य-भावानुवाद......
कुंजिका- इदं सर्वं =यह सब कुछ...यदकिंचित=जो कुछ भी ...जगत्याम= पृथ्वी पर, विश्व में ...जगत= चराचर वस्तु है ...ईशां =ईश्वर से ..वास्यम=आच्छादित है |

मूलार्थ- इस समस्त विश्व में जो कुछ भी चल अचल, जड़,चेतन वस्तु, जीव, प्राणी आदि है सभी ईश्वर के अनुशासन में हैं, उसी की इच्छा /माया से आच्छादित/ बंधे हुए हैं/ चलते हैं|

ईश्वर माया से आच्छादित,
इस जग में जो कुछ अग-जग है |
सब जग में छाया है वह ही,
उस इच्छा से ही यह सब है |

ईश्वर में सब जग की छाया,
यह जग ही है ईश्वर-माया |
प्रभु जग में और जग ही प्रभुता,
जो समझा सोई प्रभु पाया |

अंतर्मन में प्रभु को बसाए,
सबकुछ प्रभु का जान जो पाए |
मेरा कुछ भी नहीं यहाँ पर,
बस परमार्थ भाव मन भाये |

तेरी इच्छा के वश है नर,
दुनिया का यह जगत पसारा |
तेरी सद-इच्छा ईश्वर बन ,
रच जाती शुभ-शुचि जग सारा |

भक्तियोग का मार्ग यही है ,
श्रृद्धा भाक्ति आस्था भाये |
कुछ नहिं मेरा, सब सब जग का,
समष्टिहित निज कर्म सजाये |

अहंभाव सिर नहीं उठाये,
मन निर्मल दर्पण होजाता|
प्रभु इच्छा ही मेरी इच्छा,
सहज-भक्ति नर कर्म सजाता ||


-----------------ईशोपनिषद के प्रथम मन्त्र .. "के द्वितीय भाग ..”तेन त्यक्तेन भुंजीथा..." का काव्य-भावानुवाद......

कुंजिका – तेन = उसी के /उसे...त्यक्तेन= उपयोगार्थ दिए हुए /त्याग के भाव से...भुंजीथा = भोगकर /भोगना चाहिए ...

मूलार्थ- उसके द्वारा उपयोगार्थ दिए हुए पदार्थों को ही भोगना चाहिए, उसे ईश्वर का दिया हुआ ही समझकर ( प्राकृतिक सहज रूप से प्राप्य)...अथवा उसे त्याग के रूप में, अनासक्त भाव से भोगना चाहिए |

सब कुछ ईश्वर की ही माया,
तेरा मेरा कुछ भी नहीं है |
जग को अपना समझ न रे नर !
तू तेरा सब कुछ वह ही है |

पर है कर्म-भाव आवश्यक,
कर्म बिना कब रह पाया नर |
यह जग बना भोग हित तेरे,
जीव अंश तू, तू ही ईश्वर |

उसे त्याग के भाव से भोगें,
कर्मों में आसक्ति न रख कर|
बिना स्वार्थ, बिन फल की इच्छा,
जो जैसा मिल जाए पाकर |

कर्मयोग है यही, बनाता -
जीवनमार्ग सहज, शुचि, रुचिकर |
जग में रहकर भी नहिं जग में,
होता लिप्त कर्मयोगी नर |

पंक मध्य ज्यों रहे जलज दल,
पंक प्रभाव न होता उस पर |
सब कुछ भोग-कर्म भी करता,
पर योगी कहलाये वह नर ||


ईशोपनिषद के प्रथम मन्त्र .--- के तृतीय भाग ..”मा गृध कस्यविद्धनम." का काव्य-भावानुवाद......

कुंजिका –मा गृध =लालच मत कर/ अपहरण मत कर ...कस्यविद्धनम = किसी के भी धन एवं स्वत्व का /किसी के भी/ किसका हुआ है ..धनं = धन की /यह धन...|

मूलार्थ -किसी के भी धन व स्वत्व का अपहरण व लालच मत करो | यह धन किसी का नहीं हुआ है |


किसी के धन की सम्पति श्री की,
इच्छा लालच हरण नहीं कर |
रमा चंचला कहाँ कब हुई ,
किसी एक की सोच अरे नर !

धन वैभव सुख सम्पति कारण,
ही तो द्वेष द्वंद्व होते हैं|
छीना-झपटी, लूट हरण से,
धन वैभव सुख कब बढ़ते हैं |

अनुचित कर्म से प्राप्त सभी धन,
जो कालाधन कहलाता है |
अशुभ अलक्ष्मी वास करे गृह,
मन में दैन्य भाव लाता है |

शुचि भावों कर्मों को प्राणी,
मन से फिर बिसराता जाता |
दुष्कर्मों में रत रहकर नित,
पाप-पंक में धंसता जाता |

यह शुभ ज्ञान जिसे हो जाता,
शुभ-शुचि कर्मों को अपनाता |
ज्ञानमार्ग युत जीवन-क्रम से,
मोक्ष मार्ग पर चलता जाता ||



गुरुवार, 30 जुलाई 2015

."HOW DOES HIGHER EDUCATION HELP ONESELF ? DOES STUDYING MORE BRINGS MORE FEAR IN AN INDIVIDUAL ?-ड़ा श्याम गुप्त

                                ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


                             WORTH READING - DON'T MISS

."HOW DOES HIGHER EDUCATION HELP ONESELF ? DOES STUDYING MORE BRINGS MORE FEAR IN AN INDIVIDUAL ?

THE STORY OF CHICKPET BAZAR.....

        One of my friend had an interesting investigation and observed the following which is being quoted as such in his own words ----
         CHICKPET is known the business hub of Bangalore City with more than 1000 shops in the locality. This place is always crowed as people throng to buy clothes, furniture, toys etc. at a wholesale price.
           Yesterday, I had been there as part of my educational research to talk to few shop keepers to understand how they do business and what education has to do to them with regards to their business. During my interaction with many shop keepers in Chickpet I found that, most of them were from Rajasthan. One more interesting thing that I found was that most of them were in their teenage (18, 19, 20, 21 ). Out of all, meeting a young 10th std dropout who runs a clothes shop was very interesting. His name is Bramhadev from Rajasthan. I thought of sharing few our discussions here.
         As I went into the crowded shop as a customer, he greeted me with a great smile calling "Anna banni en bekithu". (Meaning: Brother, what do you want)
(The conversation was in Kannada. I have translated it below)

  
Myself: I wanted to check for some nice shirt and pant piece.
Bramhadev: Tell me sir, what is the range you are looking at ?


Myself: You first show me all the clothes, let me choose out of those.
Bramhadev: Sure sir and started showing me all his collections. (Meanwhile during the selection time, I thought of asking him few questions, which was my only intention)


Myself: How did you learn Kannada ?
Bramhadev: Sir, obviously by talking to people.


Myself: But, your Kannada is very fluent !
Bramhadev: Sir, initially, I found it difficult, but, when I continued speaking to customers, I learnt it on the fly. Now, I speak better than Bangalore Kanndigas. ( Laughing loud )

Myself: Superb. When did you start this business ? Bramhadev: Its almost 10 years now. I started it when I failed in my 10th. My uncle got me into this business.

Myself: How many languages can you speak ?
Brahmadev: I can speak, Hindi, English, Kannada, Marathi, Tamil, Telugu, Malayalam(To an extent).

Myself: Oh my God ! How did you learn so many ?
Brahmadev: I told you sir, Customers taught me (Laughs again)


Myself: Sorry to ask you, but still out of curiosity, I just wanted to know what would be your monthly turn over ?
Brahmadev: Ummmm, it depends on the festival season. Normally, the turnover would be around 8 - 9 lakhs per month, and during festivals it will shoot up to 15 lakhs. Profit upto Rs. 4 lakh per month.


Myself: What ? Oh my God ! Thats a super number ! Great man !
Brahmadev: What great sir ? In Chickpet, this is very very less. Others make double than what I do.


Myself: Didn't you feel like completing your education by studying further ?
Brahmadev: Sir, to be honest, none of our family members completed education. To complete my education it might take another 5 - 6 years which I feel is a big waste of time and money. I invested both in my business. Today, I will challenge none of the educated person with 10 years experience will earn as much as I do. What do you say sir ?


Myself: Hmmm....Yes. True. But still education would have helped you grow more than what you are earning today.
Brahmadev: Seriously No sir. Education would give us fear and make us feel that, one has to work under someone to earn their livelihood. Education does not teach us to live independently. I also have many friends who studied along with me and completed graduation. None are into business. Almost all are working in some private firm.


Myself: Hmmmm....So you don't regret completing education ?
Bramhadev: Definitley No sir. I am very happy. (In between our conversation, another customer had purchased around 20 pairs of shirt and pant, and few sarees. Without using a calculator Bramhadev calculated the total cost of the purchase and told the customer the total cost including 10% discount in just 15 - 20 seconds. )


Myself: Boss, you don't even use calculator ?
Bramhadev: Sir, educated people need calculator and mobile phones to calculate. Not me ( Laughs aloud


Myself: Started smiling and put my head down (because I was using calculator to calculate the cost of my purchase. LOL.)
Bramhadev: I continuously practiced calculating. I am doing this since 10 years and I have become perfect. I am sure, I will never err in my calculation.
                    After this, I made a purchase and the next whole day, I was thinking about our conversation again and again. I would like to infer what I learnt. ----
1. Without higher education, Bramhadev is not jobless. Where as our today's graduates with distinction are still in search of a job.
2. Without higher education, Bramhadev has good communication skills. But, today's corporate world complains about our graduates for having no communication skills.
3. Without higher education, Bramhadev earns in lakhs, where as our current generation graduates complains of not having enough salary to pay their EMIs.
4. Without higher education, Bramhadev's mathematical mind works faster than today's graduates who has cleared different levels of mathematics papers with high scores. Today's graduates needs Mobile Phones to perform simple calculation.
5. Without higher education, Bramhadev has no fear of losing his job, but today's graduate employees are always fear of getting fired from the company they are working in.

-------Now, my question in mind is----

"HOW DOES HIGHER EDUCATION HELP ONESELF ? DOES STUDYING MORE BRINGS MORE FEAR IN AN INDIVIDUAL ?
Finally this was his Question..

बात मेरी न सुने सारा ज़माना चाहे -----कुछ शायरी की बात होजाए-------ड़ा श्याम गुप्त ....

                                                     ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


कुछ शायरी की बात होजाए ---डा श्याम गुप्त ...

                                         


                     










                   
                                     मेरी सद्य प्रकाशित कृति--कुछ शायरी की बात होजाए

बात मेरी न सुने सारा ज़माना चाहे
चंद जाहिद तो सुनेंगे औ सुधर जायेंगे | ---ड़ा श्याम गुप्त
Drshyam Gupta's photo.
  ----आभार---
                            उन सभी नामचीन्ह, गुमनाम, अनाम, बेनाम शायरों-शायराओं, उस्तादों, ग़ज़लगो, गज़लनवीसों, ग़ज़लकारों का जिनकी शायरी व गज़लें सुनते-पढ़ते शायरी व ग़ज़ल में रूचि, समझ व कहने-लिखने की इच्छा जागृत हुई |                                          ----- ड़ा श्याम गुप्त ..

------मूल कथ्य -----

-------जब मैंने विभिन्न शायरों की शायरी—गज़लें व नज्में आदि सुनी-पढीं व देखीं विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया बस लय व गति से गाते चलिए, गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी | कुछ फिसलती गज़लें होंगी कुछ भटकती ग़ज़ल| हाँ लय गति यति युक्त गेयता व भाव-सम्प्रेषणयुक्तता तथा सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए और आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान व कथ्य-शक्ति होना चाहिए|
बस गाते-गुनगुनाते जो गज़ले-नज्में आदि बनतीं गयीं... जिनमें ‘त्रिपदा-अगीत गज़ल’, अति-लघु नज़्म आदि कुछ नए प्रयोग भी किये गए है.. यहाँ पेश हैं...मुलाहिजा फरमाइए ........
                                                                                                         ------डा श्याम गुप्त
--------परम सत्ता नमन ---- ( वंदना )

बड़े बड़ों के ढीले सुर - तेवर होजाते हैं |
क्या तिनका क्या गर्वोन्नत गिरि नत होजाते हैं |

कुछ भी तेरे हाथ नहीं रे नर तू फिर क्यों ऐंठा,
उस असीम के आगे अबके सिर झुक जाते हैं |

हमने बड़े बड़े बलशाली पर्वत-गिरि देखे ,
बरसे पानी कड़के बिजली सब ढह जाते हैं|

आंधी बिजली तूफानों ने तेवर खूब दिखाए
मन की दृढ़ता के आगे वे क्या कर पाते हैं |

चाहे जितना राग-द्वेष , छल-छंद करे कोई
सत्य राह के आगे सब नत सिर होजाते हैं |

तूफानों के बीच भंवर में नैया डगमग डोले
मांझी के मज़बूत इरादे खेकर ले जाते हैं|

सत पौरुष बल मन की दृढ़ता, अपने निज पे भरोसा
हो ईश्वर पर श्रृद्धा तब ये गुण मिल पाते हैं |

वही भरोसा बल है सत है वही आत्मविश्वास
उसे भूलते अहं-भाव रत, कष्ट उठाते हैं|

जिसके आगे बड़े बड़ों की अकड नहीं चल पाए ,
श्याम' परमसत्ता के आगे शीश झुकाते हैं||

बुधवार, 22 जुलाई 2015

हिन्दी के विरुद्ध एक और षडयंत्र-----ड़ा श्याम गुप्त ....

                                              ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 -----------हिन्दी के विरुद्ध एक और षडयंत्र-----
-----जिस प्रकार पुरा युग में संसार की समस्त भाषाओं का संस्कार कर के संस्कृत भाषा बनी थी जो विश्व भाषा हुई, उसी प्रकार समस्त भारतीय भाषाओं का समन्वय-संस्कार करके आज की हिन्दी बनी और देश में ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित हुई |
---प्रारम्भ से ही हिन्दी के विरुद्ध षड्यंत्र रचे जाते रहे हैं क्योंकि यह देश की सांस्कृतिक समन्वय की भाषा व पहचान बनती जारही है | दक्षिण भारत में हिन्दी विरोध , अपने ही मूल प्रदेश में , भोजपुरी, अवधी , ब्रजभाषा, उर्दू आदि बोलियों को हिन्दी से प्रथक रूप में अपनाने का षडयंत्र, जबकि ये सभी देश भर की बोलियाँ हिन्दी की ही बहनें हैं, हिन्दी में सम्मिलित हैं |
----- अब नीचे चित्र में समाचार देखिये ------ हम बड़े प्रसन्न एवं गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं कि एक विदेशी युवती हिन्दी में लिखती है, बात करती है , राजस्थानी सीख रही है ..परन्तु राजस्थानी को भाषा बताकर, उसे हिन्दी बहन होना नकारकर, राजस्थानी को भारत में न्याय न मिलने की बात फैला कर , हिन्दी, हिन्दू, हिन्स्तान की संस्कृति व देश के विरुद्ध सांस्कृतिक व राजनैतिक षडयंत्र की नीव डाली जा रही है ...मैकाले के षडयंत्र की भाँति..|
---हम सोचें व समझें ....|

शनिवार, 18 जुलाई 2015

मेरी नवीन कृति ...कुछ शायरी की बात होजाए --ड़ा श्याम गुप्त ...

                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

        मेरी नवीन कृति ...कुछ शायरी की बात होजाए ...ग़ज़ल, नज़्म, रुबाई, कतए व शेर का संग्रह ....







.                                                          बात शायरी की
             कविता, काव्य या साहित्य किसी विशेष, कालखंड, भाषा, देश या संस्कृति से बंधित नहीं होते | मानव जब मात्र मानव था जहां जाति, देश, वर्ण, काल, भाषा, संस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं था तब भी प्रकृति के रोमांच, भय, आशा-निराशा, सुख-दुःख आदि का अकेले में अथवा अन्य से सम्प्रेषण- शब्दहीन इंगितों, अर्थहीन उच्चारण स्वरों में करता होगा | आदिदेव शिव के डमरू से निसृत ध्वनि से बोलियाँ, अक्षर, शब्द की उत्पत्ति के साथ ही श्रुति रूप में कविता का आविर्भाव हुआ| देव-संस्कृति में शिव व आदिशक्ति की अभाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह की सर्वप्रथम कथा के उपरांत देव-मानव या मानव संस्कृति की, मानव इतिहास की सर्वप्रथम भाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह गाथा ‘उर्वशी–पुरुरवा’ की है | कहते हैं कि सुमेरु क्षेत्र, जम्बू-द्वीप, इलावर्त-खंड स्थित इन्द्रलोक या आज के उजबेकिस्तान की अप्सरा ( बसरे की हूर) उर्वशी, भरतखंड के राजा पुरुरवा पर मोहित होकर उसकी पत्नी बनी जो अपने देश से उत्तम नस्ल की भेड़ें तथा गले के लटकाने का स्थाली पात्र, वर्फीले देशों की अंगीठी –कांगड़ी- जो गले में लटकाई जाती है, लेकर आयी। प्रणय-सुख भोगने के पश्चात उर्वशीगंधर्वों अफरीदियों के साथ अपने देश चली गई और पुरूरवा उसके विरह में छाती पीटता रोता रहा विश्व भर में उसे खोजता रहा। उसका विरह-रूदन गीत ऋग्वेद के मंत्रों में है, यहीं से संगीत, साहित्य और काव्य का प्रारम्भ हुआ।  अर्वन देश (घोड़ों का देश) अरब तथा पुरुर्वन देश फारस के कवियों ने इसी की नकल में रूवाइयां लिखीं एवं तत्पश्चात ग़ज़ल आदि शायरी की विभिन्न विधाएं परवान चढी जिनमें प्रणय भावों के साथ-साथ मूलतः उत्कट विरह वेदना का निरूपण है । शायरी ईरान होती हुई भारत में उर्दू भाषा के माध्यम से आयी, प्रचलित हुई और सर्वग्राही भारतीय संस्कृति के स्वरूपानुसार हिन्दी ने इसे हिन्दुस्तानी-भारतीय बनाकर समाहित कर लिया| आज देवनागरी लिपि में उर्दू के साथ-साथ हिन्दुस्तानी, हिन्दी एवं अन्य सभी भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में भी शायरी की जा रही है |
        शायरी  अरबी, फारसी उर्दू जुबान की काव्य-कला है | इसमें गज़ल, नज़्म, रुबाई, कते शे आदि विविध छंद काव्य-विधाएं प्रयोग होती हैं, जिनमें गज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय हुई | गज़ल नज़्म में यही अंतर है कि नज़्म हिन्दी कविता की भाँति होती है | नज़्म एक काव्य-विषय कथ्य पर आधारित काव्य-रचना है जो कितनी भी लंबी, छोटी अगीत की भांति लघु होसकती है एवं तुकांत या अतुकांत भी | गज़ल मूलतः शेरों (अशार या अशआर) की मालिका होती है और प्रायः इसका प्रत्येक शे विषयभाव में स्वतंत्र होता है |
            नज़्म  विषयानुसार तीन तरह की होती हैं ---मसनवी अर्थात प्रेम अध्यात्म, दर्शन अन्य जीवन के विषय, मर्सिया ..जिसमें दुःख, शोक, गम का वर्णन होता है और कसीदा यानी प्रशंसा जिसमें व्यक्ति विशेष का बढ़ा-चढा कर वर्णन किया जाता है | एक लघु अतुकांत नज्म पेश है...
             सच,
               यह तुलसी कैसी शांत है
               और कश्मीर की झीलें
              किस-किस तरह
              उथल-पुथल होजाती हैं
             और अल्लाह
             मैं !               ...........मीना कुमारी ...       

                 रुबाई  मूलतः अरबी फारसी का स्वतंत्र ..मुक्तक है जो चार पंक्तियों का होता है पर वो दो शेर नहीं होते इनमें एक ही विषय भाव होता है और कथ्य चौथे मिसरे में ही मुकम्मिल स्पष्ट होता है | तीसरे मिसरे के अलावा बाकी तीनों मिसरों में काफिया रदीफ एक ही तुकांत में होते हैं तीसरा मिसरा इस बंदिश से आज़ाद होता है | परन्तु रुबाई में पहला तीसरा दूसरा चौथा मिसरे के तुकांत भी सम होसकते हैं और चारों के भी | फारसी शायर ...उमर खय्याम की रुबाइयां विश्व-प्रसिद्द हैं |..उदाहरण- एक रुबाई...--.              
                                                         इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
                               अपने ज़ज्वात की हसीं तहरीर |
                               किस मौहब्बत से तक रही है मुझे,
                                दूर रक्खी हुई तेरी तस्वीर || “       .... निसार अख्तर
                     कतआ  भी हिन्दी के मुक्तक की भांति चार मिसरों का होता है,  यह दो शेरों से मिलकर बनता है | इसमें एक मुकम्मिल शे होता है..मतला तथा एक अन्य शे होता है| जब शायर ..एक शेर में अपना पूरा ख्याल ज़ाहिर कर पाए तो वो उस ख्याल को दुसरे शेर से मुकम्मल करता है कतआ शायद उर्दू में अरबी-फारसी रुबाई का विकसित रूप है| अर्थात दो शेरों की गज़ल| एक उदाहरण पेश है....--  
       दर्दे दिल को जो जी पाये |
         जख्मे-दिल को जो सी पाए |
       दर्दे-ज़मां ही ख्वाव हैजिसका  
खुदा  भी उस दिल में ही समाये ||”     ... डा श्याम गुप्त                                                                                                                                            


                   शे दो पंक्तियों की शायरी के नियमों में बंधी हुई वह रचना है जिसमें पूरा भाव या विचार व्यक्त कर दिया गया हो | 'शेर' का शाब्दिक अर्थ है --'जानना' अथवा किसी तथ्य से अवगत होना और शायर का अर्थ जानने वाला ...अर्थात कविर्मनीषी स्वयंभू परिभू ...क्रान्तिदर्शी ...कवि |  इन दो पंक्तियों में शायर या कवि अपने पूरे भाव व्यक्त कर देता है ये अपने आप में पूर्ण होने चाहिए उन पंक्तियों के भाव-अर्थ समझाने के लिए किन्हीं अन्य पंक्ति की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | गज़ल शेरों की मालिका ही होती है | अपनी सुन्दर तुकांत लय, गति प्रवाह तथा प्रत्येक शे स्वतंत्र मुक्त विषय-भाव होने के कारण के कारण साथ ही साथ प्रेम, दर्द, साकी-मीना कथ्यों वर्ण्य विषयों के कारण गज़ल विश्वभर के काव्य में प्रसिद्द हुई जन-जन में लोकप्रिय हुई |  ऐसा स्वतंत्र शे जो तन्हा हो यानी किसी नज़्म या ग़ज़ल या कसीदे या मसनवी का पार्ट हो ..उसे फर्द कहते हैं |

             गज़ल दर्दे-दिल की बात बयाँ करने का सबसे माकूल खुशनुमां अंदाज़ है | इसका शिल्प भी अनूठा है | नज़्म रुबाइयों से जुदा | इसीलिये विश्व भर में जन-सामान्य में प्रचलित हुई | हिन्दी काव्य-कला में इस प्रकार के शिल्प की विधा नहीं मिलती | मैं कोई शायरी गज़ल का विशेषज्ञ ज्ञाता नहीं हूँ | परन्तु हम लोग हिन्दी फिल्मों के गीत सुनते हुए बड़े हुए हैं जिनमें वाद्य-इंस्ट्रूमेंटेशन की  सुविधा हेतु गज़ल नज़्म को भी गीत की भांति प्रस्तुत किया जाता रहा है | उदाहरणार्थ - फिल्मे गीतकार साहिर लुधियानवी का गीत/ग़ज़ल......
       संसार से भागे फिरते हो संसार को तुम क्या पाओगे।
       इस लोक को भी अपना सके उस लोक को में भी पछताओगे।

       ये पाप है क्या ये पुण्य है क्या रीतों पर धर्म की मोहरें हैं
       हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे। ---


                      गज़ल का मूल छंद शे या शेअर है | शेर वास्तव में दोहा का ही विकसित रूप है जो संक्षिप्तता में तीब्र सटीक भाव-सम्प्रेषण हेतु सर्वश्रेष्ठ छंद है | आजकल उसके अतुकांत रूप-भाव छंद ..अगीत, नव-अगीत त्रिपदा-अगीत भी प्रचलित हैं| अरबी, तुर्की फारसी में भी इसेदोहा ही कहा जाता है अंग्रेज़ी में कसीदा मोनो राइम( quasida mono rhyme)|  अतः जो दोहा में सिद्धहस्त है अगीत लिख सकता है वह शे भी लिख सकता है..गज़ल भी | शेरों की मालिका ही गज़ल है |

          छंदों गीतों के साथ-साथ दोहा अगीत-छंद लिखते हुए गज़ल सुनते, पढते हुए मैंने यह अनुभव किया कि उर्दू शे भी संक्षिप्तता सटीक भाव-सम्प्रेषण में दोहे अगीत की भांति ही है और इसका शिल्प दोहे की भांति ...अतः लिखा जा सकता है, और नज्में तो तुकांत-अतुकांत गीत के भांति ही हैं, और गज़लोंनज्मों का सिलसिला चलने लगा |

                  भारत में शायरी गज़ल फारसी के साथ सूफी-संतों के प्रभाववश प्रचलित हुई |   मेरा उर्दू भाषा ज्ञान उतना ही है जितना किसी आम उत्तर-भारतीय हिन्दी भाषी का | मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा (.प्र.) मेरा जन्म शिक्षा स्थल रहा है जहां की सरकारी भाषा अभी कुछ समय तक भी उर्दू ही थी | अतः वहाँ की जन-भाषा साहित्य की भाषा भी उर्दू हिन्दी बृज मिश्रित हिन्दी है | इसी  क्षेत्र के अमीर खुसरो ने सर्वप्रथम उर्दू हिन्दवी में मिश्रित गज़ल-नज्में आदि कहना प्रारम्भ किया | अतः इस कृति में अधिकाँश गज़लें, नज़्म, कते आदि उर्दू-हिन्दी मिश्रित कहीं-कहीं बृजभाषा मिश्रित हैं | कहीं-कहीं उर्दू गज़लें हिन्दी गज़लें भी हैं |

              मुझे गज़ल आदि के शिल्प का भी प्रारंभिक ज्ञान ही है | जब मैंने विभिन्न शायरों की शायरीगज़लें नज्में आदि  सुनी-पढीं देखीं  विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया बस लय गति से गाते चलिए, गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी | कुछ फिसलती गज़लें होंगी कुछ भटकती ग़ज़ल|  हाँ लय गति यति युक्त गेयता भाव-सम्प्रेषणयुक्तता  तथा सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए और आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान कथ्य-शक्ति होना  चाहिए|  यह बात गणबद्ध छंदों के लिए भी सच है | तो कुछ शे आदि जेहन में यूं चले आये.....
             मतला बगैर हो गज़ल, हो रदीफ भी नहीं,
             यह तो गज़ल नहीं, ये कोइ वाकया नहीं |

           लय गति हो ताल सुर सुगम, आनंद रस बहे,
             वह भी गज़ल है, चाहे  कोई काफिया नहीं | “  

           बस गाते-गुनगुनाते जो गज़ले-नज्में आदि बनतीं गयीं... जिनमें त्रिपदा-अगीत गज़ल, अति-लघु नज़्म आदि कुछ नए प्रयोग भी किये गए है..  यहाँ पेश हैं...मुलाहिजा फरमाइए ........
                                                                                               ------डा श्याम गुप्त