ब्लॉग आर्काइव
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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...
- shyam gupta
- Lucknow, UP, India
- एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त
बुधवार, 31 मार्च 2010
्साहित्य में आलोचना--वि श्वमान्य सत्य--डा श्याम गुप्त...
---आज कल साहित्य जगत में आलोचना विधा का पूर्ण रूप से अभाव है , समीक्षाएं भी निरपेक्ष ढंग की बजाय सभी सापेक्ष भाव से कि लेखक को बुरा लगेगा की जाती हैं , बिना आलोचना के; इससे हिन्दी कविता व साहित्य की अपार क्षति होरही है | | इस ब्लॉग में हम आलोचना को पुनर्जीवित करके क्रमश साहित्य के विभिन्न बिन्दुओं पर आलोचना लिखने का प्रयत्न करेंगे |
आज आपा-धापी भरे जीवन ( जीवन कब आपा-धापी से मुक्त था ??) में , विशुद्ध मूल्यों के क्षरण,ग्यान की कमी, साहित्य -ग्यान की कमी , गुण्वत्ता की अपेक्षा आर्थिकता व सन्ख्या के महत्व के कारण -साहित्य व कविता में भाव ,कथ्य व तथ्यात्मक अशुद्धियों का प्रचलन हो चला है जो आलोचना के अभाव में प्रश्रय पाकर कविता को जन सामान्य की द्रष्टि में अप्रमाणिक बनाकर उसे कविता से दूर कर रहा है । इस पोस्ट में हम एक मूल बिन्दु----विश्व मान्य सत्यों की अनदेखी पर कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं------
१। -- चित्र में प्रस्तुत -उपरोक्त अतुकान्त कविता, वरेण्य व प्रसिद्ध कवि की है, अच्छे भाव हैं, परन्तु एक विश्व मान्य सत्य है कि "नाग" शब्द सदैव अनैतिकता, अनय, आदि रिणात्मक व्रत्तियों के लिए प्रयोग होता है,जबकि यहां मूल कथ्य , एक ईमानदार , मेहनत कश जन के बारे में है ; फ़िर नाग के "पन्जे" भी नहीं होते। शब्दावली भी कोमलकांत पदावली नहीं है|
२।-- एक अच्छे कवि की अच्छी गेय कविता है, जिसमें कहागया है----"ढूंढ रहे शैवाल वनों में हम मोती के दाने"
शैवालों के वन नहीं होते , वे जल में या जलीय स्थानों में उत्पन्न होते हैं ।
३।--तथाकथित नव-गीत में तो नये-नये दूरस्थ-कूटस्थ भाव लाने के लिये सभी तरह के सत्यों को त्यागा जारहा है। एक उदाहरण देखें---
"गन्धी ने
गन्धों के बदले
उपवन बेच दिये
उगे कटीले शब्दों में
सौ-सौ खुरपेंच नये।"----- गन्धी सिर्फ़ इत्र बेचता है उपवन पर उसका अधिकार, अधिकार क्षेत्र कहां होता है, वह माली नहीं है । जब शब्द ही कंटीले हैं, वे स्वयम ही सबसे बडे खुरपेंच हैं; तो और नये क्या खुरपेंच होंगे।
शब्दावली , स्वयं खुरपेंच वाली व खुरदरी है , कविता की कोमल कान्त नहीं |
मंगलवार, 30 मार्च 2010
हनुमान जयंती पर विशेष ------
१.
दुर्गम जगत के हों कारज सुगम सभी ,
बस हनुमत गुण- गान नित करिये ।
सिन्धु पारि करि,सिय सुधि लाये लन्क जारि,
ऐसे बजरन्ग बली का ही,ध्यान धरिए ।
करें परमार्थ सत कारज निकाम भाव ,
ऐसे उपकारी पुरुशोत्तम को भजिये ।
रोग दोष,दुख शोक,सब का ही दूर करें,
श्याम के हे राम दूत !अवगुन हरिये ॥
२.
(जल हरण घनाक्षरी-,३२ वर्ण,१६-१६ ,अन्त-दो लघु)
विना हनुमत क्रिपा ,मिलें नहीं राम जी,
राम भक्त हनुमान चरणों में ध्यान धर ।
रिद्धि–सिद्धि दाता,नव-निधि के प्रदाता प्रभु,
मातु जानकी से मिले ऐसे वरदानी वर ।
राम ओ लखन से मिलाये सुग्रीव तुम ,
दौनों पक्ष के ही दिये सन्कट उबार कर।
सन्कट हरण हरें, सन्कट सकल जग,
श्याम अरदास करें,कर दोऊ जोरि कर ॥
हनुमत—क्रपा
(आवाहन )
( कुन्डली –छन्द )
१.
पवन तनय सन्कट- हरण,मारुति सुत अभिराम,
अन्जनि पुत्र सदा रहें, स्थित हर घर –ग्राम ।
स्थित हर घर- ग्राम, दिया वर सीता मां ने ,
होंय असम्भव काम ,जो नर तुमको सम्माने ।
राम दूत ,बल धाम ,श्याम, जो मन से ध्यावे,
हों प्रसन्न हनुमान, क्रपा रघुपति की पावे ॥
२.
निश्च्यात्मक बुद्धि, मन प्रेम प्रीति सम्मान,
विनय करें तिनके सकल,कष्ट हरें हनुमान ।
कष्ट हरें हनुमान, पवन सुत अति बलशाली,
जिनके सम्मुख टिकै न कोई दुष्ट कुचाली ।
रामानुज के सखा ,दूत,प्रिय भक्त ,राम के ,
बिगडे काम बनायं,पवन-सुत,सभी श्यामके ॥
रविवार, 28 मार्च 2010
डा श्याम गुप्त की ग़ज़ल---तेरे वादे सा नहीं.....
तेरे वादे सा नहीं, में तो बदल पाऊंगा |
मैं तो इक भीगी घटा बनके बरस जाऊंगा ।
बात जब जब भी उठेगी तेरे दीवानों की,
प्रीति कंटक सा सज़ा मन में कसक जाऊंगा ।
तुम मेरे गीत न चाहे गुनुगुनाओ कभी,
नज़्म बनाकर तेरे होठों पे लरज़ जाऊंगा ।
हम भी कुछ चाँद सितारों का संग रखते हैं,
तेरे किस्मत के सितारों में चमक जाऊंगा ।
प्रीति के रंग मेरे चाहे न तुम पहचानो,
बन के इक इन्द्रधनुष मैं तो लहक जाऊंगा ।
श्याम' इन नेक वफाओं का सिला जो भी हो,
बन के वादाए- वफ़ा जग में महक जाऊंगा ॥
बुधवार, 24 मार्च 2010
राम नवमी पर विशेष ---डा श्याम गुप्त
रात सपने में, श्री राम आये,
अपनी मोहक मुद्रा में -मुस्कुराए, बोले -
वत्स , प्रसन्न हूँ -वर मांगो ;
मैंने कहा,-प्रभु, कलयुगी तार्किक भक्त हूँ,
शंका रूपी एक गुत्थी सुलाझादों |
राम ! तुम्ही थे, जिसने-
समाज द्वारा ठुकराई हुई,
छले जाने पर ,किंकर्तव्य विमूढ़ -
ठुकराए जाने पर,
संवेदन हीन, साधन हीन, परित्यक्ता ,
पत्थर की शिला की तरह, कठोर-
क्रियाहीन, निश्चेष्ट , कर्तव्यच्युत ।
समाज विरोधी, एकाकी जड़ -अहल्या को;
चरण कमलों में स्थान देकर ,
समाज सेवा का पाठ पढ़ाकर,
मुख्य धारा में प्रतिष्ठापित किया था |
शबरी के बेर, प्रेम भाव से खाकर,
नारी व शूद्र उत्थान के पुरोधा बनकर,
तत्कालीन समाज में , उनके-
नए आयामों को परिभाषित किया था |
फिर क्या हुआ हे राम ! कि-
सिर्फ शंका मात्र से ही तुमने
सीता का निर्वासन कर दिया ?
राम बोले, 'वत्स ! अच्छा प्रश्न उठाया है -
सदियों से शंकाओं की शूली पर टंगा हुआ था,
आज उतरने का अवसर आया है |'
आखिर शंका ने ही तो
तुम्हें समाधान को उकसाया है |
तुमने भी तो, शंका का समाधान ही चाहा है |
शंका उठी है तो -
समाधान होना ही चाहिए |
समाधान के लिए सिर्फ बातें ही नहीं-
उदाहरण भी चाहिए |
अहल्या व शबरी-
सारे समाज की आशंकाएं हैं ,
जबकि, सीता राम की व्यक्तिगत शंका है |
व्यक्ति से समाज बड़ा होता है ,
इसीलिये तो , सीता का निर्वासन होता है |
स्वयं पुरुष का निर्वासन-
कर्तव्य विमुखता व कायरता कहाता है;
अतः कायर की पत्नी कहलाने की बजाय ,
सीता को निर्वासन ही भाता है ||
शनिवार, 20 मार्च 2010
brahmaa ---baal kavita
डा श्याम गुप्त की बाल कविता -----
दाड़ी वाले ब्रह्मा जी हैं ,
चार मुखों वाले दिखते जो |
चार वेद का ज्ञान चार मुख,
दुनिया रचने वाले हैं जो ||
ज्ञान नहीं यदि होगा तो फिर,
कोई काम न हो पायेगा |
धर्म अर्थ ओ काम मोक्ष युत ,
जीवन चक्र न चल पायेगा ||
इन्हें विधाता भी कहते हैं,
भाग्य सभी का लिखना काम |
यही पितामह हैं सब जग के,
बच्चो ! इनको करो प्रणाम ||
सोमवार, 15 मार्च 2010
गीत का गीत --- डा श्याम गुप्त का गीत....
मंगलवार, 9 मार्च 2010
डॉ श्याम गुप्त का आलेख ---नई सदी में नारी--नारी मुक्ति का मार्ग व आरक्षण
( डा श्याम गुप्त )
पश्चिमी जगत के पुरुष विरोधी रूप से उभरा नारी मुक्ति संघर्ष आज व्यापक मूल्यों के पक्षधर के रूप में अग्रसर हो रहा है । यह मानव समाज के उज्जवल भविष्य का संकेत है। बीसवीं सदी का प्रथमार्ध यदि नारी जागृति का काल था तो उत्तरार्ध नारी प्रगति का । इक्कीसवी सदी क़ा यह महत्वपूर्ण पूर्वार्ध नारी सशक्तीकरण क़ा काल है। आज सिर्फ पश्चिम में ही नहीं वरन विश्व के पिछड़े देशों में भी नारी घर से बाहर खुली हवा में सांस लेरही है , एवं जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों से भी दो कदम आगे बढ़ा चुकी है। अब वह शीघ्र ही अतीत के उस गौरवशाली पद पर पहुँच कर ही दम लेगी जहां नारी के मनुष्य में देवत्व व धरती पर स्वर्ग की सृजिका तथा सांस्कृतिक चेतना की संबाहिका होने के कारण समाज 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ' क़ा मूल मन्त्र गुनुगुनाने को बाध्य हुआ था ।
नारी की आत्म विस्मृति , दैन्यता व पराधीनता के कारणों में विभिन्न सामाजिक मान्यताएं व विशिष्ट परिस्थितियाँ रहीं हैं , जो देश ,काल व समाज के अनुसार भिन्न भिन्न हैं। पश्चिम के दर्शन व संस्कृति में नारी सदैव पुरुषों से हीन , शैतान की कृति,पृथ्वी पर प्रथम अपराधी थी। वह पुरोहित नहीं हो सकती थी । यहाँ तक कि वह मानवी भी है या नहीं ,यह भी विवाद क़ा विषय था। इसीलिये पश्चिम की नारी आत्म धिक्कार के रूप में एवं बदले की भावना से कभी फैशन के नाम पर निर्वस्त्र होती है तो कभी पुरुष की बराबरी के नाम पर अविवेकशील व अमर्यादित व्यवहार करती है।
पश्चिम के विपरीत भारतीय संस्कृति व दर्शन में नारी क़ा सदैव गौरवपूर्ण व पुरुष से श्रेष्ठतर स्थान रहा है। 'अर्धनारीश्वर ' की कल्पना अन्यंत्र कहाँ है। भारतीय दर्शन में सृष्टि क़ा मूल कारण , अखंड मातृसत्ता - अदिति भी नारी है। वेद माता गायत्री है। प्राचीन काल में स्त्री ऋषिका भी थी , पुरोहित भी। व गृह स्वामिनी , अर्धांगिनी ,श्री ,समृद्धि आदि रूपों से सुशोभित थी। कोइ भी पूजा, यग्य, अनुष्ठान उसके बिना पूरा नहीं होता था। ऋग्वेद की ऋषिका -शची पोलोमी कहती है--
"" अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचानी । ममेदनु क्रतुपति: सेहनाया उपाचरेत ॥ ""---ऋग्वेद -१०/१५९/२
अर्थात -मैं ध्वजारूप (गृह स्वामिनी ),तीब्र बुद्धि वाली एवं प्रत्येक विषय पर परामर्श देने में समर्थ हूँ । मेरे कार्यों क़ा मेरे पतिदेव सदा समर्थन करते हैं । हाँ , मध्ययुगीन अन्धकार के काल में बर्बर व असभ्य विदेशी आक्रान्ताओं की लम्बी पराधीनता से उत्पन्न विषम सामाजिक स्थिति के घुटन भरे माहौल के कारण भारतीय नारी की चेतना भी अज्ञानता के अन्धकार में खोगई थी।
नई सदी में नारी को समाज की नियंता बनने के लिए किसी से अधिकार माँगने की आवश्यकता नहीं है,वरन उसे अर्जित करने की है। आरक्षण की वैशाखियों पर अधिक दूर तक कौन जासका है । परिश्रम से अर्जित अधिकार ही स्थायी संपत्ति हो सकते हैं। परन्तु पुरुषों की बराबरी के नाम पर स्त्रियोचित गुणों व कर्तव्यों क़ा बलिदान नहीं किया जाना चाहिए। ममता , वात्सल्य, उदारता, धैर्य,लज्जा आदि नारी सुलभ गुणों के कारण ही नारी पुरुष से श्रेष्ठ है। जहां ' कामायनी ' क़ा रचनाकार " नारी तुम केवल श्रृद्धा हो" से नतमस्तक होता है, वहीं वैदिक ऋषि घोषणा करता है कि-"....स्त्री हि ब्रह्मा विभूविथ :" उचित आचरण, ज्ञान से नारी तुम निश्चय ही ब्रह्मा की पदवी पाने योग्य हो सकती हो। ( ऋ.८/३३/१६ )।
नारी मुक्ति व सशक्तीकरण क़ा यह मार्ग भटकाव व मृगमरीचिका से भी मुक्त नहीं है। नारी -विवेक की सीमाएं तोड़ने पर सारा मानव समाज खतरे में पड़ सक़ता है। भौतिकता प्रधान युग में सौन्दर्य की परिभाषा सिर्फ शरीर तक ही सिमट जाती है। नारी मुक्ति के नाम पर उसकी जड़ों में कुठाराघात करने की भूमिका में मुक्त बाज़ार व्यवस्था व पुरुषों के अपने स्वार्थ हैं । परन्तु नारी की समझौते वाली भूमिका के बिना यह संभव नहीं है। अपने को 'बोल्ड' एवं आधुनिक सिद्ध करने की होड़ में, अधिकाधिक उत्तेज़क रूप में प्रस्तुत करने की धारणा न तो शास्त्रीय ही है और न भारतीय । आज नारी गरिमा के इस घातक प्रचलन क़ा प्रभाव तथाकथित प्रगतिशील समाज में तो है ही, ग्रामीण समाज व कस्बे भी इसी हवा में हिलते नज़र आ रहे हैं। नई पीढी दिग्भ्रमित व असुरक्षित है। युवतियों के आदर्श वालीवुड व हालीवुड की अभिनेत्रियाँ हैं। सीता, मदालसा, अपाला,लक्ष्मी बाई ,ज़ोन ऑफ़ आर्क के आदर्श व उनको जानना पिछड़ेपन की निशानी है।
इस स्थिति से उबरने क़ा एकमात्र उपाय यही है कि नारी अन्धानुकरण त्याग कर ,भोगवादी संस्कृति से अपने को मुक्त करे। अपनी लाखों , करोड़ों पिछड़ी अनपढ़ बेसहारा बहनों के दुखादर्दों को बांटकर उन्हें शैक्षिक , सामाजिक, व आर्थिक स्वाबलंबन क़ा मार्ग दिखाकर सभी को अपने साथ प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होना सिखाये । तभी सही अर्थों में सशक्त होकर नारी इक्कीसवीं सदी की समाज की नियंता हो सकेगी ।
-----डा श्याम गुप्त
सोमवार, 8 मार्च 2010
महिला दिवस पर-डा श्याम गुप्त की कविता ----
सकल रूप रस भाव अवस्थित , तुम ही तुम हो सकल विश्व में |
सकल विश्व तुम में स्थित प्रिय,अखिल विश्व में तुम ही तुम हो |
तुम तुम तुम तुम , तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो तुम ही तुम हो ||
तेरी वींणा के ही नाद से, जीवन नाद उदित होता है |
तेरी स्वर लहरी से ही प्रिय,जीवन नाद मुदित होता है |
ज्ञान चेतना मान तुम्ही हो ,जग कारक विज्ञान तुम्ही हो |
तुम जीवन की ज्ञान लहर हो,भाव कर्म शुचि लहर तुम्ही हो |
अंतस मानस या अंतर्मन ,अंतर्हृदय तुम्हारी वाणी |
अंतर्द्वंद्व -द्वंद्व हो तुम ही , जीव जगत सम्बन्ध तुम्ही हो |
तेरा प्रीति निनाद न होता , जग का कुछ संबाद न होता |
जग के कण कण भाव भाव में,केवल तुम हो,तुम ही तुम हो |
जग कारक जग धारक तुम हो,तुम तुम तुम तुम, तुम ही तुम हो |
तुम तुम तुम तुम, तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो |
तुम्ही शक्ति, क्रिया, कर्ता हो, तुम्ही ब्रह्म इच्छा माया हो |
इस विराट को रचने वाली, उस विराट की कृति काया हो |
दया कृपा अनुरक्ति तुम्ही हो, ममता माया भक्ति तुम्ही हो |
अखिल भुवन में तेरी माया,तुझ में सब ब्रह्माण्ड समाया |
गीत हो या सुर संगम हे प्रिय!, काव्य कर्म हो या कृति प्रणयन |
सकल विश्व के गुण भावों में, तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो |
तेरी प्रीति-द्रिष्टि का हे प्रिय, श्याम तन मन पर साया हो |
मन के कण कण अन्तर्मन में, तेरी प्रेम -मयी छाया हो ।
स्रिष्टि हो स्थिति या लय हो प्रिय!, सब कारण का कारण, तुम हो ।
तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो,तुम तुम तुम तुम प्रिय, तुम ही तुम हो ॥