ब्लॉग आर्काइव

डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

मेरी फ़ोटो
Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 31 मई 2011

इन्द्रधनुष -----कहानी---- डा श्याम गुप्त ...

                                                                                     ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ.
( 'न्द्नुष'--- विभिन्न स्थितियों व भावों में आपके सामने रहता है सदा .....आसमान पर वर्षा की बूंदों में, फुब्बारों में, सुन्दरी की नथ के- कानों के लटकन के हीरों में,  देवालयों के झूमरों के शीशों में,  सपनों में, यादों में ---मन को तरंगित प्रफुल्लित करता हुआ ....पर आप उसे  छू नहीं सकते .....ऐसा ही एक इन्द्रधनुष यहाँ प्रस्तुत है---स्त्री-पुरुष मित्रता का  ...)
  

सुमि, तुम ! 

के.जी. ! अहो भाग्य ,क्या तुमने आवाज़ दी ?

नहीं |
मैंने भी नहीं | फिर ?
हरि इच्छा , मैंने कहा |
वही खिलखिलाती हुई उन्मुक्त हंसी |
चलो , वक्त मेहरवान तो क्या करे इंसान | कहाँ जाना है, सुमि ने पूछा |
मुम्बई, 'राशी' की कोंफ्रेंस है | और तुम ?
मुम्बई,पी जी परीक्षा लेने | मेडिकल कालेज के गेस्ट हाउस में ठहरूंगी , और तुम |
मेरीन -ड्राइव पर |

सागर तीरे !... पुरानी आदत  गयी नहीं !
नहीं भई, रेस्ट हाउस है, चर्च गेट पर | चलो तुम्हारे साथ मेरीन-ड्राइव पर घूमने का आनंद लेंगे, पुरानी यादें ताजा करेंगे | रमेश कहाँ है ?
दिल्ली, बड़ा सा नर्सिंग होम है, अच्छा चलता है |
और फेमिली ?
बेटा एम् बी बी एस कर रहा है, बेटी एम् सी ऐ ; बस |
सुखी हो |
बहुत, अब तुम बताओ |
एक प्यारी सी हाउस मेनेजर पत्नी है, सुभी.... सुभद्रा |  बेटा बी टेक कर रहा है और बेटी एम् बी ऐ |
और कविता ?
वो कौन थी !  तीसरी तो कोई नहीं ?
तुम्हें याद है अभी तक वो पागलपन |
एक संग्रह छपा है, ...'तेरे नाम '....
मेरे नाम !
 नहीं,  ’तेरे नाम '....
ओह !, मेरे नाम क्या है उसमें ?
सुबह देखलेना |
            चलो सोजाओ, सुबह बातें होंगीं, फ्री-टाइम में मेरीन-ड्राइव घूमना है, बहुत सी बातें करनीं हैं तुम्हारे साथ |
राजधानी एक्सप्रेस तेजी से भागी जारही थी|  सामने बर्थ पर, सुमित्रा कम्बल लपेट कर सोने के उपक्रम में थी और मेरी कल्पना यादों के पंख लगाकर बीस वर्ष पहले के काल में काल में गोते लगाने लगी |
                                 **                                            **
                  सुमित्रा कुलकर्णी, कर्नल कुलकर्णी की बेटी, चिकित्सा विश्वविद्यालय में मेरी सहपाठी, बैच-पार्टनर, सीट-पार्टनर ;  सौम्य, सुन्दर ,साहसी, निडर, तेज-तर्रार, स्मार्ट, वाक्-पटु, सभी विषयों में पारंगत, खुले व सुलझे विचारों वाली, वर्तमान में जीने वाली, मेरी परम मित्र |  हमारी प्रथम मुलाक़ात कुछ यूं हुई ......
                   रात के लगभग ९ बजे, लाइब्रेरी से बाहर आया तो सुमित्रा आगे आगे चली जारही थी, अकेली |  मैंने तेजी से उसके साथ आकर चलते चलते पूछा, अरे इतनी रात कहाँ से ? रास्ता सुनसान है, तुम्हें डर नहीं लगेगा,  क्या होस्टल छोड़ दूं ?
  वेरी फनी !, डर की क्या बात है !

 ओ के,  वाय, गुड नाईट, मैंने कहा  और चलदिया |
 थैंक्स गाड, जल्दी पीछा छूटा, वह बड़ बडाई |
सात कदम तो साथ चल ही लिए हैं, मैंने मुस्कुराते हुए कहा |
क्या मतलब, वह झेंप कर देखने लगी,  तो मैंने पुनः  'बाय' कहा और चल दिया |
                अगले दिन   फिजियो लेब में सुमित्रा झिझकते हुए बोली, कृष्ण जी, ये मेंढ़क ज़रा 'पिथ' कर देंगे ?
क्यों , मैंने पूछा ?
ज़िंदा है अभी |
तो क्या मरे को मारोगी, हाँ ये बात और है कि, "सुन्दर सुन्दर को क्यों मारे , सुन सुन्दर मेंढक बेचारे |",  बगल की सीट पर बैठा सोम सुन्दरम हंसने लगा | मैंने मेंढक हाथ में लेते हुए कहा, 'ब्यूटीफुल ' |
कौन, क्या ?
ऑफकोर्स, मेंढक, मैंने कहा ; सुन्दर है न ?
 'लाइक यू' | वह चिढ कर बोली |
मैं तुम्हें सुन्दर लगता हूँ |
नो , मेढक, वह मुस्कुराई

इसकी टांगें कितनी सुन्दर हैं, मैं टालते हुए बोला, चीन में बड़ी लज़ीज़ समझकर से खाईं जातीं हैं |
ओके, पैक करके रख दूंगी, घर लेजाना डिनर के लिए |
तुम्हारी टांगें भी सुन्दर हैं, लज़ीज़ होंगी, क्या उन्हें भी .....|
व्हाट द हेल.. ?  (क्या बकवास है)
जो दिख रहा है वही कह रहा हूँ | 
हूँ... , वह पैरों की तरफ सलवार व जूते देखने लगी |
एक्स रे निगाहें हैं... आर पार देख लेतीं हैं, मैंने कहा |
क्या, वह हडबड़ा कर दुपट्टा सीने पर संभालते हुए, एप्रन के बटन बंद करने लगी | मैं हंसने लगा तो, सिर पकड़ कर स्टूल पर बैठ गयी बोली, चुप करो, मेंढक लाओ, मुझे फेल नहीं होना है |
लो क़र्ज़ रहा,मैंने मेंढक लौटाते हुए कहा | वह चुपचाप अपना प्रक्टिकल करने लगी |
                                         **                         **                        ** 
                    डिसेक्सन हाल में मैंने उससे पूछा , सुमित्रा जी, सियाटिक नर्व को कहाँ से निकाला जाय, दिमाग से ही उतर गया है |  'है भी ..' उसने हाथ से चाकू लगभग छीन कर चुपचाप चीरा लगा कर फेसिया तक खोल दिया | बोली आगे बढूँ या....|   अभी के लिए बहुत है मैंने कहा --

              ""आपने चिलमन ज़रा सरका दिया | हमने जीने का सहारा पालिया । ""
सुमित्रा चुपचाप अपने प्रेक्टिकल में लगी रही | बाहर आ कर बोली --
कृष्ण जी, उधार बराबर |
' और व्याज ' मैंने कहा |
सूद !, वह आश्चर्य से देखने लगी |
वणिक पुत्र जो ठहरा |
क्या सूद चाहिए !
             चलो, दोस्ती करलें | काफी पीते हैं, मैंने कहा तो वह सीने पर हाथ रख कर बोली, ओह !, ठीक है, मेरा तो नाम ही सुमित्रा है, दोस्ती करती है तो करती है, नहीं तो नहीं |   

निभाती भी है, मैने पूछा तो बोली, ’इट डिपेन्ड्स’ । 
             केबिन में बैठकर मैंने उसका हाथ छुआ तो कहने लगी, उंगली पकड़ कर हाथ पकड़ना चाहते हैं, एसे तो तुम नहीं लगते|  आशाएं विष की पुड़ियाँ होतीं हैं, बचे रहना |
             सुमित्रा जी, मैंने कहा, 'मैं नारी तुम केवल श्रृद्धा हो'  के साथ पुरुष सम्मान,व नारी समानता दोनों का समान पक्षधर हूँ |  वादा- जब तक तुम स्वयं कुछ नहीं कहोगी, कुछ नहीं चाहूंगा |  स्मार्ट, आत्म विश्वास से भरपूर, मर्यादित नारी की छवि का में कायल हूँ |
            ब्रेवो ,ब्रेवो ! वाह ! क्या बात है, पर ये भाषण तो मुझे देना चाहिए और... ये विचित्र से विचार तो कहीं सुने -पढ़े से लगते हैं,  कृष्ण गोपाल !   हूं, वही तर्क,वही उक्तियाँ, नारी -पुरुष समन्वय, शायरी |  क्या तुम के. जी. के नाम से  'नई आवाज़'  में लिखते हो ?  तुम के जी हो !  उसकी तीब्र बुद्धि का कायल होकर मैं हतप्रभ रह गया और आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुराया |
           वह हंसी, एक उन्मुक्त हंसी | कमीज़ की कालर ऊपर उठाने वाले अंदाज़ में बोली, ये हम हैं, उड़ती चिड़िया के पर गिन लेते हैं |  "आई एम् इम्प्रेस्सेड "...  मैं तो केजी की फ़ैन हूँ | कोई कविता हो जाय | वह गालों पर हथेली रखकर श्रोता वाले अंदाज़ में कोहनी मेज पर टिका कर बैठ गयी |   मैंने सुनाया----
" मैंने सपनों में देखी थी , इक मधुर सलोनी सी काया |" ......

" तुमको देखा मैंने पाया यह तो तुम ही थीं मधुर प्रिये |" -----वाह , वह बोली , मैं सुखानुभूति से भरी जारही हूँ, कृष्ण | वह मेरा हाथ पकडे बैठी रही |
      तो दोस्ती पक्की , मैंने पूछा , तो कहने लगी, हूँ ..,अद्भुत तर्क,ज्ञान वैविध्य, विना लाग लपेट बातें, मनको छूतीं हैं कृष्ण; और तुम्हें ...|
     हाँ ,तुम्हारा आत्म विश्वास, सुलझे विचार,वेबाक बातें, काव्यानुराग मुझे पसंद हैं सुमित्रा | वह अचानक सतर्क निगाहों से बोली, कहीं पहली नज़र में प्यार का मामला तो नहीं !   शायद ... और तुम....मैंने पूछा ; तो बोली पता नहीं,  नहीं कर सकती, दोस्त ही रहूँगी, मज़बूर हूँ |
   क्यों मज़बूर हो भई |
   दिल के हाथों, के जी जी | तुम पहले क्यों नहीं मिल, मैं वाग्दत्ता हूँ | रमेश को बहुत प्यार करती हूँ | शादी भी करूंगी |
   ये रमेश कौन भाग्यवान है, मैंने पूछा तो बोली, मेरा पहला प्यार, हम एक दूसरे को बहुत चाहते हैं |  दिल्ली में एम बी बी एस कर रहा है, बहुत प्यारा इंसान है ...... और मैं ...., जब मैंने पूछा तो ख्यालों से बाहर आती हुई बोली, तुम ..तुम हो, अप्रतिम, समझलो राधा के श्याम, और मैं.... तुम्हारी काव्यानुरागिनी | समझे, वह माथे से माथा टकराते हुए बोली |
अब मैं सुखानुभूति से पागल ह़ा जारहा हूँ ,सुमि |
साथ छोड़कर भागोगे तो नहीं |
  नहीं, मैंने कहा, " मैं यादों का मधुमास बनूँ , जो प्रतिपल तेरे साथ रहे ",  तो हंसने लगी.... क्या देवदास बन जाओगे ?  अरे नहीं, मैंने कहा,  क्या मैं इतना बेवकूफ लगता हूँ ?  

  उसने कहा---" मन से तो मितवा हम हो गए हैं तेरे, क्या ये काफी नहीं है तुम्हारे लिए"  और पूछने लगी --- मेरी कविता कैसी है महाकवि के जी ?   मैंने कहा,' आखिर शिष्या किसकी बनी हो |',  हम दोनों ही हंस पड़े, फिर अचानक चुप होगये |
                              **
                                    **                        **      
                      कालेज डे मनाया जाना था|   सुमित्रा तेज तेज चलते हुए आई, बोली - कृष्ण! एक गीत बनाना है और तुम्हीं को गाना है |  मैं नृत्य में अपना नाम दे रही हूँ..... पर मुझे गाना कहाँ आता है, मैंने बताया |   किसी अच्छे गायक को लो न |   नहीं नहीं, वह बोली ज्यादा लोगों को मुंह क्या लगाना, सब तुम्हारे जैसे सुलझे थोड़े ही होते हैं,  वह सर हिलाकर बोली |
            रिहर्शल पर मैंने अपना पार्ट सुनाया -

"तुम स्यामल घन , तुम चंचल मन ,तुम जीवन हो तुमसे जीवन |
तेरी प्रीति की रीति पै मितवा, मैं गाऊँ मैं बलि बलि जाऊं ||"
         सुमित्रा ने सुनाया ----

"तेरे गीतों की सरगम पै, मस्त मगन मैं नाचूं गाऊँ |
तेरी प्रीति की रीति पै मितवा, बनी मोहिनी मैं लहराऊँ || "
             सुमि ने कई बार गा-गा कर बताया, डांस पहले स्लो रिदम पर फिर मध्यम पर अंत में द्रुत पर करूंगी, अंतरा  इस तरह  आदि आदि |   प्रोग्राम बहुत अच्छा रहा।  सुमि नाराज़ होते हुए बोली, बड़े खराब हो के जी, मनही मन मज़ाक बना रहे होगे |  तुम तो बहुत अच्छा गा लेते हो, लगता था जैसे पंख लग गए हों, आज मैं बहुत बहुत बहुत खुश हूँ |  पर ये  "श्यामल घन ".......!  मेरा मजाक तो नहीं उड़ा रहे, वह खुल कर हंसने लगी |
     नहीं जी, श्याम सखी, द्रौपदी, अप्रतिम सुन्दरी, भी कोई बहुत गौर वर्णा नहीं थी |
    मुझे द्रौपदी कह रहे हो ?  मैंने कहा, नहीं भई,  पर क्या द्रौपदी पर कोई शंका है तुम्हें ? तो हंसने लगी, -बोली, नहीं के जी जी, तुम्हारी बात तो बैसे ही सटीक बैठती है,  मैं भी खुद को द्रौपदी कहती हूँ |   मेरे भी पांच पति हैं |  मैंने उसे आश्चर्य से देखा तो बोली -पति क्या है ?  जो पत रखे, पतन से बचाए | शास्त्र बचन है --" यो  सख्यते  रक्ष्यते पतनात इति सः पति ".......
   किस शास्त्र का है, मैंने पूछा | मेरे शास्त्र का, वह हंसकर बोली, मैंने भी हंसकर कहा, तब ठीक है, और पांच पति ?
   जो पतन से बचाए, शास्त्र व माता पिता के बचन, मेरी अपनी शिक्षा- दीक्षा, मेरा चरित्र व आचरण, रमेश, और .ररर ......तुम |  मैं चुप अवाक ... तो बोली, चकरा गए न ज्ञानी ध्यानी, फिर खिलखिलाकर भाग खडी हुई |
                     **                              **                             **  
               धीरे धीरे जब चर्चाएँ गुनगुनाने लगीं तो एक दिन सुमि बोली, डोंट वरी (कोई चिंता नहीं).. के जी | कोई सफाई नहीं, भ्रम में जीने दो सभी को | लगभग सभी बड़ी बड़ी डिग्रियां लेकर अर्थ पुजारी बनने वाले हैं | प्रेम, मित्रता, दर्शन, जीवन-मूल्य, परमार्थ; सब व्यर्थ हैं इनके लिए |  शायद मैं कुछ मतलवी होरही हूँ,  तुम्हें यूज़ कर रही हूँ |  तुम्हारे साथ रहते कोई और तो लाइन मारकर बोर नहीं करेगा |  मैंने प्रश्न वाचक निगाहों से देखा तो पूछ बैठी --
    'कोई भ्रम या अविश्वास तो नहीं लिए बैठे हो मन ही मन | ', 

     कभी एसा लगा, मैंने पूछा | उसके नहीं कहने पर मैंने कहा, तो सुनो ---
" ये चहचहाते परिंदे, ये लहलहाते फूल, अपनी मुख़्तसर ज़िंदगी मैं इतने ग़मगीन तो नहीं होते कि खुदकुशी कर लें "
       वाउ ! मीना कुमारी पढ़ रहे हो आज कल ...... नहीं अभी तो सुमित्रा कुमारी पढ़ रहा हूँ, मैंने हंसकर कहा तो बोली ........ तो सुनो सुमि का लालची आत्म निवेदन ---
" मैं हूँ लालच की मारी,ये पल प्यार के,
चुन के सारे के सारे ही संसार के ;

रखलूं आँचल में सारे ही संभाल के|

प्यार का जो खिला है ये इन्द्रधनुष,
जो है कायनात पै सारी छाया हुआ ;
प्यार के गहरे सागर मैं दो छोर पर
डूब कर मेरे मन है समाया हुआ | "

चाहती हूं कोई लम्हा रूठे नहीं ,
ज़िन्दगी का कोई रंग छूटे नहीं ॥
                       **                          **                            **           
                 सोचते सोचते जाने कब नींद आगई | सुबह किसी के झिंझोड़ने पर मैं जागा |
   क्या है सुभी सोने दो न |
   मैं सुमि हूँ, केजी ! उठो |  क्या सपना देख रहे हो |
   मैं हडबड़ा कर उठा, ओह ! गुड मोर्निंग |
   वेरी वेरी गुड है ये मोर्निंग, तुम्हारे साथ, कृष्ण !  चलो आज मैं काफी लाई हूँ |  सुमि खुले हुए बालों में फ्रेश होकर दोनों हाथों में कप पकडे हुई थी |  हम दोनों ही हंस पड़े |  मैंने उसे ध्यान से देखा |  बीस वर्ष बाद की सुमि |  वही तेज तर्रार, आत्म विश्वास से भरी गहरी आँखें, मर्यादित पहनावा, गरिमा पूर्ण सौन्दर्य |  कनपटी पर कहीं कहीं झांकते, समय की कहानी कहने को आतुर रुपहले बाल |
     क्या देख रहे हो, सुमि आँखों में झांकते हुए मुस्कुराई |    मै भी मुस्कुराया---

" दिल ढूढता है फिर वही, वो सुमि वो प्यारे दिन, बैठे हैं तसब्बुर में, जवाँ यादें लिए हुए |"
  तुम तो वैसे ही हो योगीराज ! वह हंसने लगी |
                      **
                      **                    **            
               कार्यक्रमानुसार, हम लोग चौपाटी, मेरीन ड्राइव आदि घूमते रहे |  चाट, भेल पूरी आदि के वर्किंग लंच के बीच पुरानी यादें ताजा करते रहे |  सुमि कहने लगी, सच कृष्ण,  जब भी मैं उदास या थकी हुई परेशान होती हूँ तो चुपचाप झूले पर बैठ कर एकांत में कालिज व तुमसे जुडी हुई यादों में खोजाती हूँ, जो मुझमें पुनः नवीनता का संचार करतीं हैं |  सच है प्यारी यादें सशक्त टानिक होतीं हैं |   क्या में विभक्त व्यक्तित्व हूँ ?  और तुम तो अपने बारे मैं कभी कहते ही नहीं कुछ |
         नहीं सुमि, तुम अभक्त, अनंत, परम सुखी व्यक्तित्व हो, मैंने कहा,  और मैं भी |
         हर बात का उत्तर है तुम्हारे पास और तुरंत | उसने बांह पकड़कर, सर कंधे से लगाते हुए कहा, चलो अब कुछ सुनादो | मैंने सुनाया --
" प्रियतम प्रिय का मिलना जीवन, साँसों का चलना है जीवन |
मिलना और बिछुडना जीवन, जीवन हार भी जीत भी जीवन ||"
      सुमि ने जोड़ दिया ---

"प्यार है शाश्वत,कब मरता है, रोम रोम में बसता है |
अजर अमर है वह अविनाशी ,मन मैं रच बस रहता है । " 



        ये तुमने कहाँ से याद किया, मैंने आश्चर्य से पूछा |  मैंने तुम्हारी सब किताबें पढीं हैं, वह बोली |  कुछ देर हम दोनों ही चुप रहे, फिर मैंने पूछा- कब जारही हो ?
      आज चार बजे की फ्लाईट से, यहाँ का काम जल्दी ख़त्म होगया |   दो बज रहे हैं, मैंने घड़ी देखते हुए कहा--     एयर पोर्ट छोड़ने चलूँ |

 हाँ |
            हम टैक्सी लेकर सुमि के गेस्ट हाउस होकर एयर पोर्ट पहुंचे | लाउंज के एक कोने में खड़े होकर अचानक सुमि बोली,  मुझे किस करो कृष्ण |
  क्या कह रही हो, मैंने आश्चर्य से उसे देखा |
  अब मैं ही कह रही हूँ, यही कहा था न तुमने |   मैंने ओठों से उसके माथे को छुआ तो वह खिलखिला कर हंसी और हंसती चली गयी .... फिर बोली -
    मैं क़र्ज़ मुक्त हुई कृष्ण, चैन से जा सकूंगी, कहीं भी |  वह गहराई से आँखों में झांकती हुई बोली|
   और सूद, मैंने कहा |
    अगले जन्म मैं |
   हम अगले जन्म में भी पक्के दोस्त रहेंगे,  मैंने अनायास ही हंसते हुए कहा |
   नहीं, पति-पत्नी |
  ' व्हाट !'
   "अगले जन्म की प्रतीक्षा करो केजी "....... और वह तेजी से बोर्डिंग लाउंज में प्रवेश कर गयी |
                                   

                                                 --- इति ---                                         


सोमवार, 30 मई 2011

नारद पुराण ..पत्रकारिता दिवस पर ..कविता ...डा श्याम गुप्त

                                                       ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...   
आदि संवाद दाता नारद जी ने ,
पृथ्वी भ्रमण का मन बनाया |
देखें कहाँ तक उन्नत हुई है-
मेरी संवाद-प्रसार की विद्या-माया |
मेरे शिष्य कार्य को कैसे आगे बढ़ा रहे हैं ;
और कैसे मेरे नाम का-
पृथ्वी पर भी डंका बजा रहे हैं ||

कवि भेष  में वे ,
एक अखवार के दफ्तर में पधारे, बोले-
नारद-पुराण लिखा है,
समीक्षा छपवानी है |
सम्पादकजी बोले-
ये तो बड़ी पुरानी कहानी है ,
आज की हिट हीरोइन तो रानी है |
लोग कहेंगे, हम पुराण पंथी हैं ,
धर्म के नाम पर लोगों को भटकाते हैं ;
कवि जी हम तो-
धर्म निरपेक्ष कहलाते हैं |
कोई  धाँसू-- मारधाड़, लूट-बलात्कार -
ह्त्या चोरी पर्दाफास या साक्षात्कार -
की खबर हो तो लाओ ;
अरे, किसी हीरो से हीरोइन का रोमांस लड़वाओ,
अभिताभ पुराण या माधुरी उवाच,
लिखा हो तो लाओ ||

नारद जी सकपकाए,
तभी मुख्य सम्पादकजी -
गुस्से से भुनभुनाते हुए आये ;
सम्पादक पर झल्लाए, चिल्लाए -
मूर्ख ! मेरा अखबार बंद कराना चाहता है ?
जिस पार्टी के चंदे से चलता है,
उसी की आलोचना छापता है ||

विचित्रपुरी में एक -
काव्य-लोकार्पण समारोह होरहा था,
एक रिपोर्टर सीट पर बैठा सोरहा था |
नारद जी ने पूछा -
पत्रकार जी ये क्या कर रहे हैं ?
वे बोले- रिपोर्टर जी तो, हजारा श्री के -
मच्छर-मार अगरबत्ती के लांचिंग पर आयोजित-
पंचतारा होटल में ,
काकटेल डिनर पर गए हैं |
मैं तो दैनिक वेतन-भोगी फोटोग्राफर हूँ ,
मुझसे कहगये हैं कि-
एक -दो फोटो खींच लाना,
समाचार तो बन ही गए हैं ||

रामायण पाठ में -
टी वी रिपोर्टर जी पधारे,
 बोले- जल्दी से लिखकर देदें,
क्या पढ़ना-गाना है ;
हमें तो मुख्यमंत्री का-
चुनाव-भाषण कवर करने जाना है ||

नारद जी मायूस होकर-
नारायण- नारायण बड़  बडाये  ;
जिज्ञासा-पूर्ति हेतु , शीघ्र ही-
विष्णु धाम सिधाए ||


रविवार, 29 मई 2011

पोलीगेमी या बहुविवाह प्रथा---- डा श्याम गुप्त.....

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
 

        (कल ब्लोगर आशुतोष नाथ तिवारी जी का ई-मेल मिला, जिसमें एक लिंक दिया था एवं उस पर वे मेरे विचार जानना चाहते थे| लिंक ( यूं-ट्यूब ) में इस्लाम के कोई विद्वान डा जाकिर नाइक पोलीगेमी -अर्थात बहुविवाह-प्रथा पर किसी महिला द्वारा कुरआन में चार शादियों की स्वीकृति पर उत्तर देरहे थे| डा नाइक सीधे-सीधे कृष्ण की १६१०८ रानियों , दशरथ की तीन रानियों के उदाहरण से कुरआन में चार शादियों की वैधता को समर्थित कर रहे थे | चूंकि उत्तर काफी लंबा व गहन विषय से जुड़ा हुआ है अतः मैंने एक पोस्ट द्वारा लिखना उचित समझा |)
                                      
            बहुपत्नी-प्रथा विश्व की लगभग सभी प्राचीन व्यवस्थाओं में थी..चाहे वह योरोप हो या एशिया, अफ़्रीका ...... वास्तव में यह समाज व महिलाओं में असुरक्षा की भावना का प्रतिकार थी और तब प्रारम्भ हुई जब सभ्यता स्त्री-सत्तात्मक से पुरुष सत्तात्मकता में परिवर्तित हुई ।
          वस्तुत: प्रागैतिहासिक काल में कहीं भी ईश्वर नहीं था अपितु स्त्री-शक्ति--मातृका, सप्त-मातृकाओं का वर्चस्व था उन्ही की पूजा होती थी, जैसा कि उस काल की प्राप्त मृण्मूर्तियों से पता चलता है। जब कालक्रमानुसार विकास-क्रम में मानव घुमन्तू से स्थिर हुआ और स्त्री ने स्वत: परिस्थिति व आवश्यकतानुसार घर पर रहना व घरेलू व्यवस्था को स्वीकार किया—पत्नी भाव स्वीकार किया तो धीरे-धीरे पुरुष का वर्चस्व स्थापित होने पर... ...मुखिया व राजा के रूप में एक सुरक्षा व पालन-पोषण तन्त्र का प्रतीक बना, फ़िर किसी सर्वशक्तिमान सत्ता...ईश्वर की सत्ता पुरुष रूप में स्थापित हुई जो मुखिया व राजा में भी आरोपित हुई.....और स्त्रियों द्वारा अपने व सन्तति के सुरक्षा व लालन-पालन हेतु शक्ति के केन्द्र की ओर आकर्षित होने से ..बहु-पत्नी प्रथा का आविर्भाव हुआ। तत्पश्चात राजनैतिक व अन्य कारणों से यह प्रथा सामान्य-व्यवहार भाव से समाज में अभिहित होती गयी।
      परन्तु यह प्रथा समाज का एक व्यवहारिक रूप रहा , आदर्श रूप नहीं  मूल भारतीय त्रिदेव एक-पत्नी वाले हैं- (ब्रह्मा की गायत्री व सावित्री दो पत्नियां-भाव रूप ही हैं), मनु भी एक पत्नी शतरूपा है,( यद्यपि कामायनी में प्रसाद जी ने श्रृद्धा व इडा कहा है पर वह भी भाव रूप ही है ) जबकि प्रज़ा-उत्पत्ति के प्रतीक... दक्ष—की आकूति व प्रसूति दो पत्नियां थीं।...गणेश की दो पत्नियां-रिद्धि व सिद्धि हैं। चन्द्रमा की २७...यद्यपि ये सभी प्रतीकात्मक हैं..पर हैं तो...भाव रूप में ही सही.....।
       राजा दशरथ की तीन रानियां थीं परन्तु राम ( जो आदर्श के प्रतीक हैं) तो दृढ़ता से एक पत्नी- व्रता हैं। श्री कृष्ण की कथित १६१०८ पत्नियां वस्तुत: वे निरीह, परित्यकता स्त्रियां थीं जो आतंक के प्रतीक जरासन्ध-समूह के यहां कैद, शोषिता-पीडिता नारियां थीं जिनको श्रीकृष्ण ने जरासंध को मारकर बन्धन से मुक्त किया पर उनके परिवार ने स्वीकारा नहीं तो उनके पालन-पोषण का दायित्व स्वयं लिया। उनकी ८ रानियां विभिन्न राजपरिवारों से सन्धि हेतु राजनैतिक कारणों से थीं.....हां थीं ।
       राजा मानसिन्ह की ९ रानियां थीं । सामान्य जनता पर भी कोई एसा बन्धन नहीं था..” देवी के लिये गाये जाने वाले लान्गुरिया गीतों में एक गीत है---“दो दो जोगिनी के बीच अकैलो लान्गुरिया “यह जहां सामान्य जन में भी यह प्रथा की सामाजिक स्वीकृति को दर्शाती है वहीं सामान्यजन को सामाजिक रूप से चेताने के उपक्रम भी हैं, की भले ही कानूनन या सामाजिक बन्धन न हों परन्तु यह आदर्श एक स्थिति नहीं है।
       कहने का तात्पर्य है कि .डा नाइक.......एक ज़हीन इन्सान हैं, ग्यानी हैं...अपने धर्म-प्रसार हेतु नेताओं की भांति तर्कयुक्त वक्तृता में भी माहिर हैं। यद्यपि हिन्दू धर्म के बारे में उनका ज्ञान तात्विक नहीं है परन्तु फिर भी वे अपने कथन में सही हैं कि यदि ईस्लाम में चार शादियां कबूल हैं तो चिल्लाहट क्यों...सच ही है....पर सिर्फ़ चार ही क्यों? यदि बहुविवाह स्वीकार है तो फ़िर चाहे जितनी हों, क्या फ़र्क पडता है...यहीं पर अन्तर है हिन्दुत्व के तार्किक व सर्वसुलभ व शास्त्रों के व्यवहारिक रूप से प्रयोग के सिद्धान्त में व इस्लाम के ..जो हम कहें वही करो, जो किताब में लिखा है वही पत्थर की लकीर है  के कट्टरता के सिद्धान्त में । बहुत नया है इस्लाम धर्म हिन्दू धर्म की तुलना में अत: कुछ नवीन नियम--चार शादियाँ तक-- हो ही सकते हैं। हिन्दू धर्म जो सनातन है, इसमें यदि बहुपत्नी प्रथा है तो सन्यांस अर्थात बिना विवाह जीवन की भी प्रथा है| बहुत खुला हुआ, संतुलित व व्यवहारिक एवं समतामूलक समाज, धर्म व सभ्यता है यह।
     जहां तक पश्चिम के एक पत्नी कानून की बात है वह सच ही कहा. डा नाइक....ने कि आचरण में तो वहां सभी स्त्रियां सभी की पत्नियां हैं...सब कुछ जायज़ है, उपलब्ध है व मान्य भी है। उस संस्कृति  की तो कोई बात ही नही, वह तो कोई संस्कृति ही नहीं है । वह  अभी जुम्मा-जुम्मा चार रोज़ की संस्कृति है....जन्गलों से सीधे महानगरों व बहुमन्जिला नगरों में पहुंचे हुए लोग....धन-सम्पत्ति की चकाचौन्ध से .आश्चर्यचकित...दिशाहीन....बौराये लोग। जहां तक स्त्री-पुरुष अनाचरण-दुराचरण-शोषण-अत्याचार  की बात है वह कोई संस्कृति-धर्म की बात नही मानवीय आचरण-स्वभाव की बात है । जो अन्य संस्कृतियों ...हिन्दू—मुस्लिम भी...में चोरी-छुपे होता है वह पाश्चात्य में खुले आम, जो अधिक घातक है क्योंकि बुराई आकर्षक होती है व तेजी से फैलती है।
         मुझे तो यह लगता है कि भारत सरकार को जिसने अन्ग्रेज़ों व अमेरिकी प्रभाववश एक पत्नी कानून पास किया.....उसे समाप्त कर देना चाहिये। जो जितनी पत्नियों का पालन कर सके उसकी इच्छा।

शुक्रवार, 27 मई 2011

अन्त्याक्षरी --लघु कथा ...डा श्याम गुप्त ..

                                                                                      ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
                                   "  ईशान कोण से चली हवा,
                                     निकला सूरज का गोला |
                                      छिपा चाँद और गयी रात्रि,
                                      वन में इक पांखी बोला  ||   "     ---- 
                             "यह तो कोई कविता नहीं है ! "   अन्त्याक्षरी के दौर में मैंने जब यह कवितांश सुनाया तो मकान मालिक का पुत्र सतीश बोला |  
             क्यों ? यह द्विवेदी जी द्वारा किया गया प्रात: वर्णन है | तुम्हें याद नहीं तो हम क्या करें , मैंने ने कहा |
             'ल'  पर हुआ , 'ल' पर बोलो , जल्दी; चालाकी से अधिक समय मत लो | मेरी तरफ  के  सदस्य चिल्लाए |
                           स्मृतियों का खाता खुलने लगता है |  बचपन में छत पर समय मिलते ही बच्चों  की मंडली जुड़ने पर , अन्त्याक्षरी का खेल तो एक आवश्यक पास्ट-टाइम था किशोरों का |  मोहल्ले के आसपास के बच्चों की छत पर एकत्रित होकर दो टोलियाँ बनाकर, कविता, छंद, दोहा, गीत आदि के गायन की प्रतियोगिता होती थी यह |  कड़ी शर्त यह होती थी की कविता, दोहा या कोई भी छंद-गीत आदि का कम से कम एक पूरा बंद होना चाहिए, आधा-अधूरा नहीं; जो मूलतः  रामायण या प्रसिद्द कवियों की कृतियों से होते थे |  यह वास्तव में काव्य, साहित्य द्वारा सदाचरण-संस्कृति के पुरा मौखिक ज्ञान के सहज रूप को जीवित रखने का ही एक उपक्रम था जो खेल-खेल में ही तमाम आचार-व्यवहार-सत्संग, सदाचरण  सम्प्रेषण के पाठ भी हुआ करते थे | आज की तरह फ़िल्मी गानों के टुकड़ों का भोंडा प्रदर्शन नहीं |
                         अगला पन्ना खुलता है ....सामने की छत से अचानक मीरा की आवाज आई  ," मुझे पता है , किस कवि की कविता  है | सुन्दर है |"...फिर मेरी तरफ देखकर अपनी तर्जनी उंगली चक्र-सुदर्शन की मुद्रा में उठाकर सर हिलाते हुए चुपचाप बोली , " चालाकी, इतनी सफाई से ! "... मैंने उसे आँख तरेर कर उंगली मुंह पर रखकर चुप रहने का इशारा किया |
                मीरा मेरी बहन की क्लास-फेलो थी |   मेरी कवितायें मेरे छोटे भाई-बहनों की स्कूल-पत्रिकाओं में उनके नाम से छपा करती थीं | एक बार उसके कहने पर उसके ऊपर भी तत्काल कविता बनाई थी--
                            " दरवाज़े के पार पहुंचकर , 
                                  पीछे मुड़कर मुस्काती हो |
                                       सचमुच की मीरा लगती हो, 
                                            वीणा पर जब तुम गाती हो |"    
               अतः उसे मेरे इस  काव्य व आशु-कविता हुनर का ज्ञान था |  वह सामने वाले गली के पार वाले मकान में रहती थी |  गली  इस स्थान पर अत्यंत संकरी होजाने के कारण दोनों घरों की छतों की मुंडेरें काफी समीप थीं |  घने बसे शहरों में प्रायः घरों की छतें , बालकनियाँ आदि आमने-सामने व काफी नज़दीक होती हैं  और सुबह, शाम, दोपहर महिलाओं, बच्चों, किशोर-किशोरियों, सहेलियों, दोस्तों की आर-पार बातें व चर्चाएँ खूब चलतीं हैं | साथ ही में किशोरों-युवाओं की कनखियों से नयन-वार्ताएं, संकेत व कभी कभी प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान की  भी सुविधा मिल जाती है |
             स्मृति-पत्र आगे खुलता है......अच्छा चलो ठीक है .....सामने की टोली हथियार डाल देती है | सतीश की टोली की तेज-तर्रार सदस्या सरोज 'ल' पर सुनाने लगती है---
                         " लाल देह,  लाली लसे और धर  लाल लंगूर |
                           बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि शूर |"       
शूर ...'र' पर ख़त्म हुआ...'र ' से....|   
                                   "यह तो होचुका है |  मेरी तरफ की टोली के जगदीश ने तुरंत फरमान जारी किया |".........जगदीश की स्मृति बहुत  तीव्र थी और याददास्त के मामले में वह कालोनी में अब्वल था |  सरोज के झेंप जाने पर हम सब हँसने लगे | ..... नया बोलो...नया बोलो ...या हारो.... के शोर के बीच  रमेश ने नया कवितांश सुनाया |
                               मैं सोचता हूँ आजकल भी अंग्रेज़ी का ज्ञान बढाने के लिए ..शब्द-काव्य  रूपी अन्त्याक्षरी  होती है, जिसका अभिप्राय: सिर्फ अंग्रेज़ी का तकनीकी ज्ञान बढ़ाना, शब्द-सामर्थ्य बढाने की एक्सरसाइज ही हो पाता है ; आचरण, शुचिता, आचार-व्यवहार , संस्कृति, ज्ञान का सहज सम्प्रेषण नहीं | वस्तुतः  स्व-साहित्य, स्व-भाषा-साहित्य, स्व-संस्कृति-साहित्य- इतिहास,  अपने सामाजिक व पारिवारिक उठने-बैठने के, खेलने के तौर-तरीके निश्चय ही भावी- पीढी के मन में,  सोच में, एक सांस्कृतिक व वैचारिक तारतम्यता, एक निश्चित दिशाबोध प्रदत्त मानसिक दृढ़ता एवं ज्ञान, अनुभव  व पुरा पीढी के प्रति श्रृद्धा, सम्मान, आदर का दृष्टिकोण विकसित करती है |  आजकल पाश्चात्य दिखावे की प्रतियोगी  संस्कृति के अन्धानुकरण व सुविधापूर्ण जीवन दृष्टिकोण  में यह स्व-भाव व स्वीकृति ही लुप्त होती जारही है |






       
            
              

यूं ही नहीं होजाता कोई कबीर....

                                                      ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

           यूं ही नहीं बन जाता कोई कबीरकबीर सिर्फ़ कबीर नहीं, एक पूरा दर्शन है, एक संसार है, एक व्यवहारिक भाव है, एक गुण है जो गुणातीत  है | कबीर का अर्थ है संत, आत्मानंद , नित्यानंद में मगन -विदेह , निर्गुणी |  यूं तो कबीर बनने के लिए एक गुरु बनाना पड़ता है--- जायसी ने कहा है......'गुरु बिन जगत को निरगुन पावा' |  पर कबीर का तो कोइ गुरु नहीं था ?  पर  रामानंद को उन्होंने अपना गुरु माना , एकलव्य की भांति --यदि गुरु नहीं हो तो स्वयम को गुरु बनाना पड़ता है , "तवै तुमि एकला चलो रे " ..."अप्प दीपो भव"--स्वयं दीपक बन कर ..शास्त्र, संसार, अनुभव, इतिहास  के प्रकाश का विकिरण करना होता है | यही किया कबीर ने , और तभी वे होपाये ...कबीर....गुरु बिनु जगत को निरगुन पावा  |
            कबीर बनने के लिए ..लाठी लेकर घर फूंकना पड़ता है ......लोभ, मोह, लिप्सा का संसार छोड़ना पड़ता है , ........
"कबीरा खडा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ,
जो घर फूंके आपणा, चलै हमारे साथ |"  ......

भोग,माया-संसार-स्त्री-पुत्रादि को भी  त्यागना पड़ता है | यह ही पहला कदम  है  जैसा कबीर ने कहा---जब जागो तभी सवेरा .....
" नारी तो हम भी करी कीन्हा नांहि विचार ,
जब जाना तब परिहरी नारी बड़ा विकार ||"
              कबीर बनने के लिए राम का कुत्ता बनना पड़ता है .....  अर्थात अहं का त्याग..मैं को गलाना पड़ता है , स्वयं को ईश-प्रवाह में छोड़ देना , ज्ञान, शास्त्र, भक्ति, विश्वास, श्रृद्धा  के प्रवाह में डुबो देना पड़ता है | ईश्वर प्रणिधान .........
"कबीर  कूता राम का,   मुतिया  मेरा नांउ ,
गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित  जांऊ |"  .....और..............
.. ..........."जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नाहिं  | "   --परमात्मा व परमात्म गुण से एकाकार......     
                  कबीर बनने के लिए समदर्शी बनना पड़ता है .....समता भाव में जीना पड़ता है .....सूक्ष्मदर्शी होना पड़ता है |
" कंकड़ पत्थर जोड़  के मस्जिद लई चिनाय ,
ता चढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय |"...... या ..
......." लौकी अड़सठ तीरथ नहाई,  कडुआ प न  तौऊ नहीं जाई "...
..एकत्व भाव अपनाना होता है .............
    "एक मूल ते सब जग उपजा कौन बड़े को मंदे |"
                   कबीर बनने के लिए...तत्वदर्शी बनना पड़ता है...  भक्त होना पड़ता है ........
"हरि मेरे पीऊ मैं हरि की बहुरिया " .............और.......तत्वदर्शन..........

"झीनी झीनी बीनी रे चदरिया ...एक तत्व गुण तीनी रे चदरिया "      .....    
सो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढ़ की मैली कीन्ही चदरिया  ,
दास कबीर जतन से ओढी, ज्यों की त्यों धर दीनी रे चदरिया |"          .
...और.....
"साधू एसा चाहिए जैसा सूप सुभाय ,
         सार सार को गहि रहे थोथा देय उडाय |"  .......तथा......

" ज्यों तिल माहीं तेल है ज्यों चकमक में आग,
तेरा साईं तुज्झ में  जाग सके तो जाग |"  .......
          कबीर बनने के लिए....निर्गुणी होना पड़ता है ...... ..... " अवगुण मेरे रामजी बकस गरीब निवाज "....अपने मूल को पहचानना पड़ता  है....आत्म साक्षात्कार ...........
 "जल में कुम्भ , कुम्भ में जल है,  बाहर भीतर पानी ,
.फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कथ्यो गियानी " ......स्वयं के मूल में स्थित होना होता है....

." काहे री नलिनी तू कुम्हिलानी , तेरे ही नाल सरोवर पानी "......  और यहीं... आत्म .."एकोहम बहुस्याम"... का भाव अनुभव करता है , ..."अणो अणीयान, महतो महीयान "...हो जाता है ....तथा मूल ब्रह्मसूत्र ---"अहं ब्रह्मास्मि "..."सोहं"... "तत्वमसि "...एवं .."खं ब्रह्म"...को जान पाता है.....और  होजाता है कबीर.... जान पाता है उस ब्रह्म को जिसके बारे में ........
   ..." एको सद विप्रा: बहुधा वदंति ".....


    


गुरुवार, 26 मई 2011

श्याम लीला--५--चीर हरण......ड श्याम गुप्त...

                                                                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 चीर मांगतीं गोपियाँ  करें विविधि मनुहार ,
क्यों जल में उतरीं सभी ,सारे वस्त्र उतार  |
सारे वस्त्र उतार , लाज अब कैसी मन में ,
वही आत्मा तुझमें मुझमें सकल भुवन में  |
कण कण में ,मैं ही बसा, मेरा ही तन  नीर ,
मुझसे कैसी लाज लें ,तट पर आकर चीर  ||


उचित नहीं व्यवहार यह, नहीं शास्त्र अनुकूल ,
नंगे    हो   जल में  घुसें,   मर्यादा प्रतिकूल  |
मर्यादा प्रतिकूल,   श्याम ने दिया ज्ञान यह,
दोनों बांह उठाय , वचन  दें सभी आज यह  |
करें समर्पण पूर्ण, लगाएं  मुझ में ही  चित ,
कभी न हो यह भूल, भाव समझें सब समुचित ||


कोई रहा न देख अब , सब है सूना शांत,
चाहे जो मन की करो, चहुँ दिशि है एकांत  |
चहुँ दिशि है एकांत, करो सब पाप-पुण्य अब ,
पर नर की यह भूल, देखता है ईश्वर सब  |
कण कण बसता ईश , हर जगह देखे सोई ,
सोच समझ ,कर कर्म, न छिपता उससे कोई  ||

बुधवार, 25 मई 2011

तेरे कितने रूप गोपाल...पद...डा श्याम गुप्त...

                                                                   ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
तेरे कितने रूप गोपाल ।
सुमिरन करके कान्हा मैं तो होगया आज निहाल ।
नाग -नथैया, नाच -नचैया, नटवर, नंदगोपाल  ।
मोहन, मधुसूदन, मुरलीधर, मोर-मुकुट, यदुपाल ।
चीर -हरैया,    रास -रचैया,     रसानंद,  रस पाल ।
कृष्ण-कन्हैया, कृष्ण-मुरारी, केशव, नृत्यगोपाल |
वासुदेव, हृषीकेश, जनार्दन, हरि, गिरिधरगोपाल |
जगन्नाथ, श्रीनाथ, द्वारिकानाथ, जगत-प्रतिपाल |
देवकीसुत,रणछोड़ जी,गोविन्द,अच्युत,यशुमतिलाल |
वर्णन-क्षमता  कहाँ 'श्याम, की  राधानंद, नंदलाल |
माखनचोर, श्याम, योगेश्वर, अब काटो भव जाल ||

सोमवार, 23 मई 2011

डा श्याम गुप्त के पद....

                                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
चलो रे मन ऐसे जग से दूर |
छीन झपट, आपा धापी और छल बल में जो चूर |
महल दुमहले राज भवन  सब हलचल से परिपूर |
मन की शान्ति न मिले यहाँ पर जग दुखिया मज़बूर |
ऊंचे -ऊंचे मंदिर-मठ हैं, मिले  न  प्रभु का  नूर |
भक्त-पुजारी, पण्डे-मूरत, ईश्वर से अति-दूर |
मन से प्रभु को 'श्याम, भजे तो आनंद सुख भरपूर || 

गुरुवार, 19 मई 2011

कहानी—---न गांव न शहर... डा श्याम गुप्ता ...

                                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


                                          
 “ ये तो मुख्य शहर से बहुत दूर है, भाई साहब!'
’ क्या तुम सोच सकते हो कितनी दूर है ?’
'इसका क्या अर्थ ?' मैंने प्रश्नवाचक नज़रों से अपने बडे भाई से पूछा।
'यही कि बचपन में शहर से हम अपने जिस गांव तीन घन्टे में पहुंचते थे,अब सिर्फ़ ८ किमी दूर है।' 
'क्या? अपना गांव इतना पास है। मैंने आश्चर्य व उत्सुकता से पूछा ।
'हां, चलना है क्या? भाई साहब बोले ।'
'हां, हां अवश्य ।'
        और हम लोग स्कूटर उठाकर अपने गांव चल दिये। ४० वर्ष बाद मैं जा रहा था अपने गांव, जहां अपना कहने को कुछ भी नहीं था। बावन खम्भों वाली हवेली पहले ही हथियायी जा चुकी थी,  अनधिकृत लोगों द्वारा, जमींदारी समाप्त होने के साथ ही, ला. गिरिधारी लाल-बैजनाथ के परिवार के गांव छोडकर दूर-दूर जा बसने के उपरान्त। जिसका मन होता अपना घर उस जमीन पर बसा लेता और सुना करते थे, खुदाई में मिले गढे हुए धन की चर्चायें, जिस पर उसी का अधिकार होता जो बसता जाता। शेष बची प्रापर्टी गिरधारीलाल जी के बडे पुत्र बेच-बाच कर शहर पलायन कर गये। सम्पत्ति का कोई बट्वारा भी न होपाया था ।
          छोटे पुत्र जगन जी बाज़ार वाली दुकान को ही घर बनाकर रहने लगे। कठिनाई से मिडिल तक शिक्षा प्राप्त करके व अन्य दायित्वों का निर्वहन करके वे भी शहर में नौकरी करने लगे। जन्म भूमि व घर का मोह बडा गहरा होता है, अत: जब भी शहर से ऊब जाते हम सब को लेकर गांव में आकर रहने लगते। हम सब उसी दुकान को ही अपना घर समझते थे, और लगभग प्रत्येक वर्ष स्कूल की गर्मियों की छुट्टियों में गांव रहने चले आते। जब हम सब भी शिक्षा के एक स्तर के उपरान्त अन्य शहरों में रहने लगे तो गांव जाना लगभग छूट ही गया। क्योंकि कोई नियमित बट्वारा नहीं हुआ था अत: उस तथाकथित दुकान-घर को भी गिरधारी लाल जी के बडे सुपुत्र के नालायक पुत्र द्वारा आधा अपना कहकर बेच दिया गया । अत: पिताजी को भी मजबूरी वश शेष आधा भाग बेचना पडा और गांव से नाता ही टूट गया।
         पांच मिनट बाद ही वह प्याऊ आगयी जहां पहले सभी ठंडा –ठंडा पानी पीकर, हाथ मुंह धोकर थकान मिटा लेते थे। पानी अब भी ठंडा है पर लोग रुकते नहीं हैं। बगल में “ठन्डा” व मिनरल वाटर की बोतलें मिलने लगी हैं, छोटी छोटी चाय की दुकानों पर। रास्ते में बडॆ बडे ढाबे भी खुल गये हैं ।
          थोडी देर में ही बडी-नहर आगयी, जो दो तिहाई रास्ता पार करलेने की निशानी थी , और फ़िर गांव के प्रवेश द्वार पर स्थित छोटी नहर जिसके चारों ओर अमराइयां, नीबू, करोंदे, आडू, बेर, जामुन के बाग थे। लगभग प्रतिदिन ही अम्बियां, कैरी, कच्चे-आम बटोरने के लिये बच्चों व बडों की भीड लगी रहती थी । अब तो कोई घुसने भी नहीं देता । अमराइयां व बाग उज़डे-उज़डे से हैं, नहर चुपचाप से बहती सी दिखाई दे रही है। शायद अब बच्चों व स्त्रियों के झुंड रोज़ाना नहाने नहीं आते। किसी के पास समय ही कहां है अब ।
        मुख्य बाज़ार की सडक अब पक्की बन गयी है, पर खडन्जे वाली; बिकास का यह आधा-अधूरा द्रश्य लगभग हर गांव में ही दिखाई देता है। मैं मूलचन्द हलवाई, जगन जलेबी वाला को ढूंढता हूं, वे कहीं नहीं है वहां। कई मन्ज़िलों वाली बिल्डिन्गें खडी हैं। हां मुख्य बाज़ार के मुहाने पर स्थित कुआं आज भी वहीं है, उस पर हेन्ड-पम्प लग गया है।  कुए की जगत पर चारों ओर रस्सी से पानी खींचने पर घिसने के निशान अब भी हैं, जिनका ह्रदयस्थ अन्तर्द्रश्यान्कन मैं प्राय: कबीर के दोहे--“रसरी आवत जात ते सिल पर होत निसान“  पढते-सुनते हुए उदाहरण स्वरूप किया करता था।  हां नये निशान नही हैं ।
          मैं अपना घर ढूंढने लगता हूं, तो भाई साहब हंसने लगते हैं; फ़िर एक बहुमन्ज़िला भवन की ओर इशारा करते हुए कहते हैं..वह रहा ..। अब ये ला. मूलचन्द की हवेली है। आगे नीम के पेड व पीछे कब्रिस्तान , मस्ज़िद व बडे से इमली के पेड से मैं पहचानता हूं, कन्फ़र्म करता हूं, अपने घर को जहां न जाने कितने महत्वपूर्ण पल बिताये थे। वो नीम के पेड के नीचे खाट बिछाकर लेटना व कहानियां कहने–सुनने का दौर, दोपहर में सभी के चिल्लाते रहने पर भी गैंद-तडी,गिट्टी-फ़ोड का चलते रहना। पत्थर फ़ैंक कर इमली तोडना। रात में छत पर इमली के पेड व कब्रिस्तान के भूतों की कहानी सुनकर-सुनाकर एक दूसरे को डराना, पर चांदनी रात में वहीं देर तक खेलते रहना.......। ये हाट वाला कुआं है, गौशाला वाला.....अचानक भाई साहब की आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटती है।
         ओह ! हां, यह तो हाट बाज़ार है। और वो चौराहे वाला मन्दिर....। जिसके चंद्रमा से होड करते शिखर-कलश गांव में सबसे ऊंचे होते थे, अब ऊंची बिल्डिन्गों से नीचे होगये है। मैं खोजाता हूं, सुबह-शाम मन्दिर के घंटों की सुमधुर ध्वनि में, गौधूलि-बेला में गाय-भेंसों का गले की घन्टियां बजाते हुए, रम्भाते हुए, पैरों से धूल उडाते हुए लौटकर आना । दिन में बैलगाडियों का जाना, जिन
पर लद कर बच्चों का दूर-दूर तक सैर कर आना। रविवार की पेंठ की हलचल, पतिया की जात की स्म्रतियां...और....जाटिनी की छोरी व बनिया के छोरे की तू..तू...मैं ..मैं.... अचानक हंस पडने पर भाई साहब प्रश्न वाचक मुद्रा में पूछने लगे.. ..क्या हुआ?...  कुछ नहीं, मैंने कहा.....एसे ही पुरानी बात याद आगई ।
         अब यहां पुराना कुछ भी नहीं है । रघुबर के पेडे, लस्सी, कलाकन्द, जलेबी, मठरी के थाल के स्थान पर...चाय-ठन्डा, केक, चाकलेट, तरह तरह की नयी नयी रंग व मिलावटी खोये वाली मिठाइयां, लेमन.....और ये दुकान पर जगह-जगह लटके हुए सुपारी, गुटखा, पान-मसाला के पाउच दिख रहे हैं न ..भाई साहब ने बताया। कुओं मे हेन्ड पंप लग गये हैं।
         वो गड्ढा व घूरा, छोटावाला मन्दिर व भुतहा कमरा कहां है। अचानक मैंने पूछा।
         वो घर के सामने वाले केम्पस में हैं न। वो घूरा तो कूडेदान बन चुका है, गड्ढा सूख चुका है, ठन्डे पानी की कुइया पत्तों व कूडे से भर कर पट चुकी है। भुतहा कमरा नया बन गया है, उसमें एक परिवार रहता है। मैं कुइया के सामने वाले घर को हसरत से देखता हूं | भाई साहब कह उठते हैं.. चलो अन्दर गांव में देखते हैं
          मकान पक्के होते जारहे हैं, गलियां अब भी वही हैं, हां पक्की अवश्य होगयी हैं। पर वही आधी-अधूरी, नालियों के निकास व प्लानिन्ग के बिना; जो वस्तुत: आधे-अधूरे बिकास की ही गाथा हैं।
          मैं भारी मन से लौट कर आया । चुप-चुप चलते देखकर भाई साहब ने पूछा...कैसा लगा? मैंने कहा , “ वह अब न तो गांव ही रहा है, न शहर ही हो पाया है।“

श्याम लीला--४.....गोवर्धन धारण...डा श्याम गुप्त....

                                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


जल अति भारी बरसता वृन्दावन के धाम,
हर  वर्षा-ऋतु  डूबते , वृन्दावन के ग्राम |
वृन्दावन के ग्राम, सभी दुःख सहते भारी ,
श्याम कहा समझाय, सुनें सब ही नर नारी 
ऊंचे गिरितल बसें , छोड़ नीचा धरती तल,
फिर न भरेगा, ग्राम गृहों में वर्षा का जल ||

पूजा नित प्रति इंद्र की, क्यों करते सब लोग ,
गोवर्धन  पूजें  नहीं,  जो  पूजा  के  योग  |
जो पूजा के योग,  सोचते क्यों नहीं सभी,
देता पशु,धन-धान्य,फूल-फल सुखद वास भी |
हितकारी है श्याम , न गोवर्धन सम दूजा,
करें नित्य वृज-वृन्द  सभी गोवर्धन पूजा  ||

सुरपति जब करने लगा, महावृष्टि ब्रजधाम ,
गोवर्धन गिरि बसाए, ब्रजवासी घनश्याम  |
वृजवासी घनश्याम,  गोप गोपी साखि राधा,
रखते सबका ख्याल, न आयी कुछ भी बाधा |
उठालिया गिरि कान्ह, कहैं वृज बाल-बृंद सब ,
चली न कोइ चाल , श्याम, यूँ हारा सुरपति  || 


बुधवार, 18 मई 2011

वो हसीं पल....गज़ल...डा श्याम गुप्त....

                                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

वो एक पल का हसीं पल भी था क्या पल आखिर |
वो हसीं पल था,  तेरे प्यार के पल की खातिर |

दर्द की एक  चुभन सी है,   सुलगती दिल में ,
प्यास कैसी कि चले सहरा को जल की खातिर |

हमने चाही थी दवा,  दर्द-ए-दिल  के लिए ,
दर्द  के दरिया में,  डूबे  हैं दिल की खातिर |

आप आयें या  न आयें  हमारे  साथ मगर,
जब पुकारोगे, चले आयेंगे  दिल की खातिर |

याद आयें तो वही  लम्हे वफ़ा जी लेना,
गम न करना,उस प्यार के कल  की खातिर |

साथ तुम हो या न हो,सामने आयें जब श्याम,
मुस्कुरादेना उसी प्यार के पल की खातिर ||