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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...
- shyam gupta
- Lucknow, UP, India
- एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त
शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010
डा श्याम गुप्त का गीत.....मंजिलें ----
एक सूनी राह पर ।
तुम मिले साथी बने,
हर राह आसां होगई।
हम कदम जब होगये, तो-
साथ मिल चलते रहें ।
मंजिलें दर मंजिलें , नव-
प्रीति स्वर ढलते रहें।
स्वप्न देखो तुम हमारे,
स्वप्न मेरे तुम बनो।
राग मेरे आपके , अब-
सब हमारे होगये।
बिन तुम्हारे जीना अब,
है भला जीना कहाँ।
अब जहां तुम लेचलो,
अपना वहीं है आशियाँ ।
हम चलेंगे साथ तेरे,
आसमां के छोर तक।
मंजिलें जो आपकी,
अब सब हमारी होगईं ॥
बुधवार, 27 अक्तूबर 2010
डा श्याम गुप्त की ग़ज़ल....साथ अपने भी....
बात अपनी हमको भी बताया करिए।
आप जाएं या नजायें पिक्चर लेकिन,
हमको तो हर हफ्ते दिखाया करिए।
ज़िंदगी होती है जीने के लिए ही,
उसको जोशो-जूनून से बिताया करिये।
साथ जीने का तो अंदाज़ यही है,
सुख-दुःख संग संग उठाया करिए।
आप जाएँ बाज़ार अकेले क्यों कर,
शापिंग को साथ हमें लेजाया करिए।
आप तो खुद में ही खुश होलेते हैं,
यूं अकेले खुशियाँ न मनाया करिए।
बात करिए कुछ मतलब की भी यारब ,
बात बेपर की यूं न उड़ाया करिए ।
रोज़ जाते हैं अकेले ही मैखाने,
हम को भी कभी साकी बनाया करिए,
क्यों अकेले ही गुनगुनाते हैं 'श्याम,
साथ अपने भी तो कुछ गाया करिए॥
मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010
करवा चौथ --हमारे पर्व , अर्थशास्त्र और बाज़ार---
------कालान्तर में अर्थशास्त्र व बाज़ार की आवश्यकतानुसार( समय परवर्तन ,युग के अनुसार निष्ठा व ज्ञान ,कर्तव्य व मानवीय विश्वास की कमी से भी ) उसमें करवा, चन्द्रमा, पति की आयु वृद्धि, अर्ध्य , उपवास आदि के भाव जोड़ दिए गए। सामाजिक -पारिवारिक सौहार्द के पहलू हित -सरगी , सास के लिए बायना, बधू से मायके से बधू के घर उपहार आदि भेजना प्रारम्भ किया गया ; जो बाद में कठोर कुप्रथाओं में परिवर्तित होता गया । पहले मिट्टी का करवा अनिवार्य होता था ताकि कुम्भ्कारों का भी काम चलता रहे , और प्रगति होने पर शक्कर - चीनी के, धातु के , चांदी के करवे व अन्य ताम-झाम भी चलने लगे ताकि बाज़ार का अर्थशास्त्र चलता रहे ,हाँ, पीछे दिखावा, अधिक प्राप्ति आदि की मानसिकता भी बढ़ती गयी।
आजकलके वैज्ञानिक युग में भी - समाचार पत्रों, टीवी, आदि में करवा चौथ पर सोना -चांदी के व अन्य सभी के विज्ञापनों , छूट, कैसे करें , क्या पहने, कैसे पूजा करें , किसको किस किस बस्तु से पूजा रानी चाहिए , अपने उन को खुश रखिये आदि की भरमार रहती है क्यों -जबकि वैज्ञानिक युग के नव-युवा,पढेलिखे पुरुष/ महिलाएं इसे आवश्यक/अपरिहार्य नहीं मानते समझते अपितु व्यर्थ की खानापूरी भी मानते हैं |---यह अर्थशास्त्र व बाज़ार के ही लिए तो -चाहे स्त्रियों पर कठोरता होती हो या सामाजिक -मानसिक प्रतारणा व मानवीय शोषण |
-----हाँ इसके साथ साथ चाहे बाज़ार -भाव के कारण ही सही --पुरुषों के लिए भी विज्ञापन आरहे हैं ----
पत्नी करवा चौथ व्रत रख रही है आपकी लम्बी आयु के लिए अब आपकी बारी है --उपहार देने की ---और यह एक अच्छी बात है।
रविवार, 24 अक्तूबर 2010
एक विशिष्ट देवी पीठ--नरी सेमरी की यात्रा ....
चित्र १-राधा-ललिता-श्री कृष्ण --चित्र२-प्रसाद वितरण --चित्र ३-नरीसेमरी मुख्य द्वार--चित्र४ -अन्दर का प्रांगण -----
------ यूं तो भारत के कोने कोने में देवी पीठ हैं । विश्व प्रसिद्द पौराणिक नगरी , कृष्ण की कर्म -लीला स्थली मथुरा से आगे दिल्ली राज मार्ग पर छाता के निकट एक देवी पीठ है -नरी -सेमरी , जो मथुरा -आगरा के आसपास क्षेत्रों की मातृदेवी-कुलदेवी है, यद्यपि यह बहुत सुप्रसिद्ध देवी स्थान नहीं है । परन्तु बृज रक्षिका के नाम से जानी जाती है। कहते हैं यही वह स्थान है जहां कृष्ण बलराम को कंस द्वारा कुश्ती का आमंत्रण मिला था|
------नरी सेमरी मंदिर कामुख्य द्वार आगरा-मथुरा-दिल्ली राजमार्ग पर ही है। सामान्य दिनों में सड़क
द्वारा मथुरा से या दिल्ली से छाता या उससे अगले बस स्टेंड का टिकट लेकर कंडक्टर मंदिर के गेट के सामने उतार देते हैं । रेल मार्ग से दिल्ली से छाता स्टेशन या मथुरा स्टेशन से बस या टेम्पो आदि से जाया जा सकता है। शारदीय नवरातों के समय बहुत बड़ा मेला लगता है अतः अस्थायी रेल व बस स्टेशन बनाए जाते हैं जो मंदिर के गेट के ठीक सामने उतारते हैं ।
------जन सामान्य व स्थानीय निबासियों के अनुसार यह नरी सेमरी माता का मंदिर है जो बृज रक्षिका है और एक भक्त द्वारा बनबाया गया था , जब माता के उसकी कुटिया पर आने पर भक्त द्वारा न पहचानने पर माता पैदल ही वापस चलदी और भक्त को ज्ञात होने पर उसने यहाँ आकर माता के दर्शन किये और फिर मंदिर बनबाया ।
मंदिर में तीन मूर्तियाँ है , जो भारत में कहीं नहीं है सिवाय वैष्णों देवी मंदिर के जो तीन पिंडी रूपों में है । नरी समरी में तीन सुन्दरअद्भुत मूर्तियाँ है जो कि सफ़ेद, काले व सांवले रंग की हैं।
परन्तु गहन रूप से पता करने,मथुरा गजेटियर व ग्रंथों में खोजने पर एक विशिष्ट कथा का ज्ञान होता है। वस्तुतः नरी सेमरी शब्द -नारी श्यामली या नर-श्यामली (नर- नारायण ) का अपभ्रंश रूप है। यह स्थल नर- नारायण वन नाम से भी जाना जाता है। ये मूर्तियाँ वास्तव में राधा, श्री कृष्ण व ललिता जी की मूर्तियाँ है काले कृष्ण, सांवली ललिता जी व गोरी राधाजी। यह वह स्थान है जहां पर कृष्ण ने राधा को अपने नारायण रूप के दर्शन कराये थे ।
------कथा यह है कि एक बार राधाजी श्री कृष्ण से अत्यधिक रूठकर इस वन चलीं आईं । ललिता के कहने पर श्री कृष्ण मनाने के लिए सुन्दर सांवली वीणा- वादिनी स्त्री का रूप रखकर वीणा बजाते हुए आये , राधाके पूछने पर अपने को श्यामली सखी बताकर राधाजी के मनोरंजन हेतु मनो विनोद करते हुए साथ रहने लगे । राधाके प्रसन्न होने पर, संदेह होने से राधा जी ने पहचान लिया परन्तु तब उनकी अप्रसन्नता समाप्त होकर वे प्रकृतिस्थ हो चुकीं थीं, तब श्री कृष्ण ने उन्हें अपने नारायण रूप का ज्ञान कराया। इस प्रकार यह स्थान नारी श्यामली या नरी- श्यामली, नरी-सांवरी और कालान्तर में नरी सेमरी कहलाया और बृज रक्षिका --राधाजी , ललिता सहित श्री कृष्ण की पूजा होने लगी ।
---------मुख्य मंदिर एक बड़े प्रांगण के मध्य में अवस्थित है , चारों और कुछ अन्य देवताओं के छोटे छोटे मंदिर भी बने हैं । प्रांगण में व प्रांगण के बाहर धर्मशालाएं है जो भक्तों द्वारा ही बनवाई गयीं हैं एवं अच्छी प्रकार से रख रखाव का अभाव है। जल की यहाँ अत्यधिक कमी है व कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है। एक तालाब दिखाई देता है जो शायद पहले पक्का होगा और जल संरक्षण व पूर्ति का स्थान होगा , तीर्थ यात्रियों के भी प्रयोग में आता होगा। परन्तु अब देश के अन्य तीर्थस्थानों की भांति गन्दगी से परिपूर्ण है। ग्राम सभा आदि द्वारा कुछ नल लगाए हुए हैं । मेला समय पर कुछ सरकार द्वारा व कुछ भक्तों द्वारा पुन्य कमाने हेतु पीने के पानी के टेंकर ग्राम सभा के द्वारा मंगवा दिए जाते हैं।
------यह समय समय पर स्थानीय लोगों की आमदनी का जरिया भी है ( ये सभी पीठ -मेले आदि भारत की प्राचीन स्थानीय अर्थ व्यवस्था का इंतज़ाम था। ) गरीबी , अशिक्षा व शासकीय उदासीनता के चलते भारत की अन्य तीर्थ स्थलों की भांति यहाँ भी बच्चे पैसे माँगते हुए दिखाई पड़ते हैं। छोटे से उजाड़ स्थल पर भी आजकल के ट्रेंड के अनुसार भूमाफिया व अन्य तरह के माफिया भी अपनी जड़ें जमाये हुए सुने जाते हैं।
शनिवार, 23 अक्तूबर 2010
डा श्याम गुप्त की ग़ज़ल-----
तेरी रहमत का भी खुदाया कोई जबाव नहीं ।
कौन कहता है कि मौला तू लाज़बाव नहीं।
तेरी रहमत है कि बन्दों का मददगार है तू,
तेरे दर पै कोई फ़कीर या नबाव नहीं ।
तू रहमगार है, नासिर है न समझ पाए कोई,
इससे बढ़कर तो जहां में कोई अजाब नहीं ।
रोज ही जाते हैं वो तो मयखाने लेकिन,
उनकी तहरीर है पीते ही वो शराब नहीं ।
उसपे ईमान वाले को हो मंदिर या मैखाना,
भूल पाता वो मगर उसका वह शबाव नहीं ।
हमने जो देखलिया वो खुदाई नूर तेरा,
उससे बढ़कर तो कोई नूरे-आफताब नहीं ।
जिसके होठों पै छलके खुदाई इश्क की मदिरा,
उसकी नज़रों को ज़माने से कोई दुराव नहीं ।
इश्क वालों की यही तो मस्ती है इलाही,
रोज़ पीते हैं मगर दिल के वो खराब नहीं ।
हमने पी रखी है उन आखों की वो मय 'श्याम ,
जिससे बढ़कर तो ज़माने में कोई शराव नहीं ॥
गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010
एक काव्य गोष्ठी ऐसी भेी---डा श्याम गुप्त ....
लखनऊ यों तो गोष्ठियों का नगर है, काव्यमय नगर है जिसके बारे में मैंने अपने एक 'श्याम सवैया' में कहा है कि---"--जो कवि हों तौ बसों लखनऊ , हर्षाये गीत-अगीत विधा सी ---"
----लखनऊ में एक काव्य गोष्ठी है " गुरुवासरीय काव्य गोष्ठी " यह कोई रजिस्टर्ड / स्थापित जाना माना नाम नहीं है अपितु एक अनौपचारिक गोष्ठी है। गोष्ठी भी कोई बहुप्रचारित सामान्य काव्य-गोष्ठियों की भांति निर्धारित अध्यक्ष -मुख्य-अतिथि आदि ताम झाम वाली नहीं है, नहीं कवि सम्मेलनों बाला झंझट आदि|न कोई सन्चालक होता है । न इस गोष्ठी की कोई समाचार या सूचना व प्रकाशन , पत्र आदि में दिया जाता हैं न प्रचार किया जाता है, न कोई पब्लिक कार्यक्रम, न लोकार्पण आदि। बस कुछ कवि-गण मिलकर बैठ लेते हैं |अपनी अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते हैं जो प्रायः नवीन रचना होती है | सभी कवियों का स्थान बराबर होता है, कोई छोटे -बड़े की औपचारिकता नहीं होती , चाहे कोई नवीन कवि हो या स्थापित या कवि-गुरु। माँ सरस्वती की वन्दना वही कवि करता है जिसके आवास पर गोष्ठी होरही है | विशिष्ट बात यह है कवियों की रचनाओं व प्रकाशित/ अप्रकाशित पुस्तकों आदि की गुणवत्ता , कमियों , शब्द चयन,विषय-भाव, कथ्य, कला सौन्दर्य , अर्थवत्ता, सामाजिक सरोकारों आदि पर खुलकर व्याख्या व स्वस्थ समालोचना एवं समाधान परक दृष्टिकोण भी अन्य साथी कवियों द्वारा दिया जाता है।
-------इस गोष्ठी की स्थापना के मूल में आलमबाग के मूर्धन्य कविश्री प्रेम चन्द्र सैनी की इच्छा पर श्री( स्व) वीरेन्द्र कुमार अन्शुमाली , अध्यक्ष प्रतिष्ठा संस्था, आलमबाग व श्री ( स्व.)जगत नारायनण पान्डे, एड्वोकेट, मूर्धन्य कवि व विद्वान द्वारा नवगीतकार व वरिष्ठ कवि श्री मधुकर अस्थाना व श्री राम देव लाल ’विभोर’ के सहयोग से की गई । तत्पश्चात कुछ अन्य कवि व साहित्य्कार भी जुडते गये, तभी से लगभग पांच वर्ष से यह गोष्ठी लगातार बिना व्यवधान के चलरही है । इस गोष्ठी की कोई सदस्यता नही है, ७-८ से अधिक सद्स्यों को जोडने का न तो प्रोत्साहन दिया जाता न कोई इच्छा की जाती है। कभी कभी किसी मूर्धन्य कवि-साहित्य्कार को अतिथि के रूप में शामिल करलिया जाता है जिनमें प्रायः साहित्य-भूषण डा रामाश्रय सविता व अगीत विधा के संस्थापक डा रंगनाथ मिश्र ’सत्य’ प्रमुख हैं। यह गोष्ठी प्रत्येक सप्ताह गुरुवार को किसी भी एक सदस्य के घर पर बारी बारी से अनौपचारिक रूप से होती है।
वर्तमान में इस गोष्ठी से नियमित जुडे हुए कवि व साहित्यकार हैं---श्री राम देव लाल विभोर, मधुकर अस्थाना, डा श्याम गुप्त, श्रीमती सुषमा गुप्ता, प्रेम चन्द्र सैनी ,बसन्त राम दीक्षित,श्रीमती पुष्पा दीक्षित , डा श्रीकृष्ण सिन्ह अखिलेश , डा सूर्य प्रकाश शुक्ला हैं एवं श्री चन्द्र पाल सिंह 'चन्द्र' हैं ।
बुधवार, 20 अक्तूबर 2010
दर्द -रोग या लक्षण, अखबारी आलेखों में भ्रांतियां ....डा श्याम गुप्त का आलेख---
वस्तुतः चिकित्सा आदि को शास्त्रों में गुप्त विद्याएं कहा गया है जिन का जिक्र व वर्णन सामान्य जन के लिए , इश्तिहारों में , सामान्य समाचारों , पत्र-पत्रिकाओं , विज्ञापनों में नहीं होना चाहिए , न सामान्य जनों द्वारा लिखा जाना चाहिए, जोकि आज हर पत्र -पत्रिका का सर्कुलेशन बढाने का ज़रिया बन गया है । इससे जन सामान्य में भ्रान्ति, भय,चिंता, (एप्रीहेंशन ) फैलता है और चिकित्सा व्यवसाय में भी दोहन प्रक्रिया का प्रारम्भ । यह सब विशेषग्य पत्रिकाओं में व विशेषज्ञों द्वारा ही लिखा जाना चाहिए, ताकि जन सामान्य को सिर्फ स्वास्थ्य के बारे में ज्ञान रखने के लिए समझाया जाय ।
इसी तरह का एक और उदाहरण--- आजकल हर समाचार पत्र, पत्रिका, टी वी पर ज्योतिषियों के कथनों -भविष्य वाणियों ,ज्योतिष द्वारा विभिन्न उपाय-उपचारों की बाढ़ सी आगई है जो निश्चय ही बाज़ार, रेटिंग , कमाई, व सिर्कुलेशन के लिए है और जन सामान्य के अंध विश्वास, भ्रम, भय , चिंता के दोहन का साज है , यह सब बंद होना चाहिए ।
मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010
डा श्याम गुप्त की कविता --अपन-तुपन....
मेरे रूठकर चले आने पर,
पीछे पीछे आकर,
'चलो अपन-तुपन खेलेंगे'-
माँ के सामने यह कहकर ,
हाथ पकड़ कर
आँखों में आंसू भरकर ,
तुम मना ही लेती थीं , मुझे-
इस अमोघ अस्त्र से
बार -बार,
हर बार ।
सारा क्रोध,
गिले शिकवे
काफूर हो जाते थे ,और-
बाहों में बाहें डाले
फिर चल देते थे
खेलने-
हम -तुम,
अपन-तुपन॥
डा श्याम गुप्त का आलेख..एक युवा आक्रोश ...
प्रश्न अपने आप में ठीक है , इससे उन का आक्रोश व स्व की चिंता भी झलकती है,परन्तु आरोप गलत है। क्या करना/ होना चाहिए-----
१.पहले अंग्रेज़ी / अमेरिकी भाषा, साहित्य, गाने, संगीत, फ़िल्में, मनोरंजन आदि का आयात तो बंद हो । विदेशी कल्चर का आयात तो बंद हो, विदेशी , अंग्रेज़ी, अमेरिकी सोच का आयात तो बंद हो ।
२. अंग्रेज़ी व विदेशी वस्तुओं, विचारों आदि के फ्री उपभोग के नाम पर होने वाला भोगवादी व्यवस्था-सोच-व्यवहार तो बंद हो। चाकलेट पर वर्जीनिटी लुटाने वाले सो काल्ड इश्तहार आदि वाली भोग वादी व्यवस्था व उसका प्रचार -प्रसार तो बंद हो। --
" सुबरन कलश सुरा भरा साधू निंदा सोय। "
---जब शरीर से गन्दगी निकालेंगे तभी तो उसमें अच्छे पदार्थ टिकेंगे । अच्छे स्वतंत्र, निजी, मौलिक भाव व विचार आयेंगे, पनपेंगे ।
३. तभी तो भारतीय सोच , अपनी स्वतंत्र सोच बनेगी, निखरेगी , उन्नत होगी ।
४.अपने इतिहास से ज्ञान तो लें-तभी तो पता चलेगा कि क्या उचित व श्रेष्ठ होता है, किसे चुनना चाहए ।
---पहले कल्चर बनती है, बदलती है तब प्रयोग उपयोग बदलते हैं । तभी तो अपनी स्वयं की नई नई खोजों को कर पाएंगे ।
सोमवार, 18 अक्तूबर 2010
लघु कथा ....
श्याम गुप्त की लघु कथा- - रथ चढि सिया सहित---
अन्तर्राष्ट्रीय अर्बुद संघ ( केन्सर असोसिएशन ) के एशिया अध्याय (एशिया-चेप्टर ) की त्रिवेन्द्रम बैठकमें मुझे ग्रास -नली के अर्बुद ( केन्सर ईसोफ़ेगस ) के तात्कालिक उपचार पर अपना पेपर ( वैज्ञानिक शोध आलेख ) प्रस्तुत करना था ।साथी चिकित्सक डा शर्मा को अगन्याशय( पेन्क्रियाज़ ) के केन्सर पर । विमान में बैठते ही डा शर्मा ने मन ही मन कुछ बुदबुदाया तो मैने पूछ लिया,’ क्या जप रहे हैं डा शर्मा?’ वे बोले- राम चरित मानस की चौपाई -- "रथ चढि सिया सहित दोऊ भाई ........" ताकि यात्रा निर्विघ्न रहे ।
मैंने आश्चर्यचकित होते हुए हैरानी भरे स्वर में पूछा--हैं, आप इस मुकाम पर आकर भी , विज्ञान के इस युग में भी एसी अन्धविश्वास की बातें कैसे सोच सकते हैं?
डा शर्मा हंसते हुए बोले-’ डा अग्रवाल, मैं तो जब गांव में साइकल से शहर स्कूल जाता था तब भी , फ़िर बस यात्रा, रेल यात्रा से लेकर अब विमान यात्रा तक सदैव ही यह उपाय अपनाता रहा हूं, और यात्रा व अन्य सारे कार्य सफ़लता पूर्वक पूरे होते रहे हैं । यह विश्वास की बात है।
मुझे हैरान देखकर वे पुनः कहने लगे, ’हमारा परिवार आम भारतीय परिवार की भांति धार्मिक परिवार रहा है।प्रत्येक वर्ष नव रात्रों में सस्वर रामचरित मानस का पाठ होता था जो उन्हीं नौ दिनों में पूरा करना होता था। हम सब खुशी खुशी भाग लेते थे। मानस में शेष तो जो बहुत कुछ है सभी जानते हैं परन्तु बचपन से ही मुझे कुछ चौपाइयां अपने काम की, मतलब की लगीं जो याद करलीं, जो इस तरह हैं--
’ जो विदेश चाहो कुशिलाई, तो यह सुमिरि चलहु चौपाई ।
रथ चढि सिया सहित दोऊ भाई, चले वनहि अवधहि सिर नाई ।’
’विश्व भरण पोषण कर जोई, ताकर नाम भरत अस होई।’
’जेहि के सुमिरन ते रिपु नासा, नाम शत्रुहन वेद प्रकासा ।’
’जेहि कर जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहि न कछु संदेहू ।’
मैंने तो बचपन से ही इन चौपाइयों के प्रभाव को मन में धारण करके अपनाया है , माना है व अनुभव किया है , और आज भी यात्रा पर जाते समय मैं यह चौपाई अवश्य गुनगुनाता हूं ।
क्या ये अन्धविश्वास नहीं है? मैंने पूछा?
यह विश्वास है, वे बोले, अन्धविश्वास तो बचपन में था, जब माता-पिता, बडे लोगों के कथन व आस्था पर विश्वास रखकर आस्था पर विश्वास किया; क्योंकि तब ज्ञानचक्षु कब थे। प्रारम्भ में तो दूसरे के चक्षुओं से ही देखा जाता है। आज यह आस्था पर विश्वास है क्योंकि मैंने ज्ञान व अनुभव प्राप्ति के बाद , विवेचना-व्याख्या के उपरान्त अपनाया है । यात्रा पर जाते समय या परीक्षा, इन्टर्व्यू आदि के समय मैंने सदैव इन चौपाइयों को गुनगुनाने का प्रभाव अनुभव किया है व सफ़लताएं प्राप्त की हैं।
अच्छा तो ये स्वार्थ के लिये भगवान व आस्था का यूज़ ( प्रयोग) या मिसयूज़ है। मैंने हंसते हुए कहा, त वे कहने लगे , ’हां, वस्तुतः तो हम स्वार्थ के लिये ही यह सब करते हैं। ’स्व’ के अर्थ में। स्व ही तो आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, आस्था, विश्वास है । जब हम ईश्वर को भज रहे होते हैं तो अपने स्व , आत्म, आत्मा, सेल्फ़ को ही दृढ़ कररहे होते हैं। अपने आप पर विश्वास कररहे होते हैं। आत्मविश्वास को सुदृढ़- सुबल कर रहे होते हैं। यह मनो-विज्ञान है । विज्ञान इसे मनो-विज्ञान कहता है। यह दर्शन भी है ; जो दर्शन, धर्म, भक्ति है, मनो-विज्ञान भी है, विश्वास है तो अन्तिम व सर्वश्रेष्ठ रूप में आस्था भी । और आस्था व ईश्वर कृपा की सोच से कर्तापन का मिथ्यादंभ व अहं भी नहीं रहता ।
परन्तु मानलें कि एक ही स्थान के लिये साक्षात्कार आदि के लिये यदि सभी अभ्यर्थी यही चौपाई पढकर जायें तो.......।, मैंने हंसते हुए तर्क किया ? वे भी हंसने लगे । बोले,’ सफ़ल तो बही होगा जो अपना सर्वश्रेष्ट प्रदर्शित कर पायेगा ।’ शेष परीक्षार्थी यदि वास्तव में आस्थावान हैं तो उन्हें यह सोचना चाहिये कि सफ़ल अभ्यर्थी की आस्था, कर्म, अनुभव व ज्ञान हमसे अधिक था। यह गुणात्मक सोच है ।क्योंकि आस्था के साथ-साथ शास्त्रों में यह भी तो कथन हैं---कि ,
’उद्योगिनी पुरुष सिंहमुपैति लक्ष्मी , देवेन देयमिति कापुरुषः वदन्ति।’
’कर्मण्ये वाधिकारास्ते मा फ़लेषु कदाचनः।’
’न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंते मुखे मृगाः ।’ ---आदि...
कम से कम इस आस्था-विश्वास का यह परिणाम तो होगा कि इसी बहाने लोग अपना सर्वश्रेष्ठ जान पायेंगे, प्रदर्शित कर पायेंगे, यहां नहीं तो अन्य स्थान पर सफ़ल होंगे। यहां सामाजिकता प्रवेश करती है। जब सभी आस्थावान होंगे, अपना सार्वश्रेष्ठ प्रदर्शित करने का प्रयत्न करेंगे, तो समाज व राष्ट्र-विश्व स्वयं ही समुन्नति की ओर प्रयाण करेगा । यही तो विज्ञान का भी, धर्म का भी, दर्शन का भी, समाज-विज्ञान का भी एवं मानव मात्र का भी उद्देश्य है। ’
’क्या हुआ भई?’ मुझे चुप देखकर डा शर्मा बोले, पुनः स्वयं ही हंसकर कहने लगे,’ अब तुम्हारी स्थिति, " हर्ष विषाद न कछु उर आवा.." वाली स्थित-प्रज्ञ स्थिति है ।
रविवार, 17 अक्तूबर 2010
डा श्याम गुप्त की कविता ...वह ...
वह नव विकसित कलिका बन कर,
सौरभ कण वन वन बिखराती।
दे मौन निमंत्रण भ्रमरों को,
वह इठलाती वह मदमाती।
वह शमा बनी, झिलमिल झिलमिल
झंकृत करती तन मन को।
ज्योतिर्मय दिव्य विलासमयी,
कम्पित करती निज तन को।
अथवा तितली बन, पंखों को
झिलमिल झपकाती चपला सी,
इठलाती सबके मन को थी,
बारी बारी से बहलाती |
या बन बहार, निर्जन वन को ,
हरियाली से महकाती है।
चन्दा की उजियाली बनकर,
सबके मन को हरषाती है ।
वह घटा बनी जब सावन की
रिमझिम रिमझिम बरसात हुई ।
मन के कोने को भिगो गयी,
दिल में उठकर ज़ज्बात हुई।
वह क्रान्ति बनी गरमाती है,
वह भ्रान्ति बनी भरमाती है।
सूरज की किरणें बन कर वह,
पृथ्वी पर जीवन लाती है ।
कवि की कविता बन, अंतस में
कल्पना रूप में लहराई।
बन गयी कूक जब कोयल की,
जीवन की बगिया महकायी।
वह प्यार बनी तो दुनिया को,
कैसे जीयें ,यह सिखलाया।
नारी बनकर कोमलता का ,
सौरभ घट उसने छलकाया।
वह भक्ति बनी मानवता को,
दैवीय भाव है सिखलाया ।
वह शक्ति बनी जब माँ बनकर,
मानव तब धरती पर आया ।
वह ऊर्जा बनी मशीनों की,
विज्ञान, ज्ञान धन कहलाई ।
वह आत्मशक्ति मानव मन में ,
कल्पना शक्ति बन कर छाई।
वह लक्ष्मी है वह सरस्वती,
वह काली है वह पार्वती।
वह महाशक्ति है अणु-कण की ,
वह स्वयं शक्ति है कण कण की।
है गीत वही, संगीत वही,
योगी का अनहद नाद वही।
बन के वीणा की तान वही ,
मन वीणा को हरषाती है।
वह आदिशक्ति वह माँ प्रकृति ,
नित नए रूप रख आती है।
उस परम तत्व की इच्छा बन,
यह सारा साज़ सजाती है ॥