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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

फिर ललकार दई अन्ना नै ..,..आल्हा छंद ....डा श्याम गुप्त.....

                                                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
       आल्हा छंद मात्रिक-सवैया छंद है जिसमें ३१ मात्राएँ व १६-१५ पर यति होती है और अंत में गुरु-लघु आना चाहिए | यह मूलतः बीर-रस (अनिवार्यतः ?)  का छंद है, जिसमें प्रायः अतिशयोक्ति-अलंकार की भी छटा होती है  |       
      यह मूल छन्द कहरवा ताल में निबद्ध होता है। प्रारम्भ में आल्हा गायन विलम्बित लय में होता है। धीरे-धीरे लय तेज होती जाती है। यह मध्य-भारत, बुंदेलखंड व  ब्रज क्षेत्र की परम्परागत लोक-गायकी -- आल्हा-गायकी | महोवा के दो प्रसिद्द वीर नायक...आल्हा व ऊदल के चरित्र वर्णन से प्रसिद्द यह छंद आल्हा-छंद के नाम से प्रसिद्द हुआ |--एक लोकगायक के शब्दों में ....

आल्हा मात्रिक छन्द, सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य।
गुरु-लघु चरण अन्त में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य।
अलंकार अतिशयताकारक राई को कर तुरत पहाड़।   
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।| ---

-----आइये आपको सुनाते हैं आल्हा छंद में अन्ना की ललकार ......

फिर ललकार दई अन्ना नै, 
दिग्गी सुनिलो कान लगाय  |
चाहे जितने हमले करलो,  
चाहे जेल  देउ   भिजवाय ||     

चाहे कुटिल-नीति जो खेलो ,
चाहे जितना लो इतराय |
लोकपाल बिल अवश बनेगा , 
चाहे जान भले ही जाय ||

भरे -जोश  केज़रीवाल ने ,
सिब्बल-मोहन दए ललकार |
या तो लोकपाल बिल लाओ, 
अथवा  छोड देउ सरकार ||

किरन सी चमकि  बेदी बोलीं ,
बीजेपी, बसपा सुनि जांय |
 सपा , बामपंथी सब सुनिलें , 
हमारौ राजनीति दल नायं ||

अब  तौ चेति  गयो है भारत  , 
जनता अब मानेगी नायं |
अपना मत स्पष्ट करें सब, 
लोकपाल बिल लाया जाय ||

शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

कौन महत्वपूर्ण है ....डा श्याम गुप्त

                                   ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
------- कौन महत्वपूर्ण है आपके लिए.....अखवार के लिए ..?..?.?.?.?..?


शाहरुख - करीना - सिनेमा का विज्ञापन --जिनका चित्र समाचार पत्र के प्रथम पृष्ठ पर पूरे पेज पर है...............


              या ..............................
  




श्री कृष्ण ----जिनका चित्र दूसरे पेज पर है ...चौथाई  पृष्ठ पर  है ......
                                                                                                                                                                                                                          

एवं



राउडी राठौर .....जिसका चित्र पूरे पृष्ठ पर है ......



या.....
प्रदेश  की मुख्यमंत्री ....जिनका चित्र अंदर के पेज पर .....चौथाई  पृष्ठ पर है .....?


मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

प्रीति का एक दीपक जलाओ सखे !......डा श्याम गुप्त ....

                                               ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


चित्र गूगल- साभार
 



 प्रीति  का एक दीपक जलाओ सखे !
देहरी का सभी तम सिमट जायगा | 
प्रीति का गीत इक गुनुगुनाओ सखे !
ये ह्रदय दीप फिर जगमगा जायगा ||

द्वेष क्या , द्वंद्व क्या ,
प्रीति निश्वांस सी |
एक लौ जल उठे ,
मन में विश्वास की |

आस का दीप ज्यों हीजले श्वांस में ,
जिंदगी का अन्धेरा भी कट जायगा |   .------प्रीति का एक दीपक ....||

ये अन्धेराहै क्यों,
विश्व में छा रहा ?
 साया आतंक का ,
कौन बिखरा रहा !

राष्ट्र के भाव अंतस सजाओ सखे !
ये कुहांसा तिमिर का भी छंट जायगा |   ----प्रीति का एक दीपक .......||


नेह से , प्रीति से,
प्रीति की रीति का |
एक दीपक जले,
नीति की प्रीति का |

नेह-नय के दिए जगमगाओ सखे !
विश्व का हर अन्धेरा सिमट जायगा |   -----प्रीति का एक दीपक ......||

मन में छाया हो ,
अज्ञान ऊपी तिमिर |
सूझता सत् असत -
भाव कुछ भी नहीं |

ज्ञान का दीप तो इक जलाओ सखे !
बाल-रवि से छितिज जगमगा जायगा |
प्रति का एक दीपक जलाओ सखे !
देहरी का सभी तम सिमट जायगा ||

आज का छिद्रान्वेषण ....दीप-पर्व एवं पटाखे व आतिशबाजी और प्रदूषण ....डा श्याम गुप्त ..

                                   ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

              आजकल  यह ट्रेंड बन् चला है कि ज़रा सा--- तथाकथित वैज्ञानिक विचार वाला व्यक्ति, समूह , संस्था कुछ पाश्चात्य बातें पढ़ता है ..विशेषकर यदि वे हिन्दू व भारतीय संस्कारों , रीति-रिवाजों, पर्वों , विधियों के बारे में हैं तो--- तुरंत उनमें खामियां निकालने लगते हैं एवं बुराई की भांति  प्रचार करने में जुट जाते हैं | अभारतीय संस्कृति वाले लोग तो इसमें सम्मिलित होते ही हैं ..कुछ तथाकथित आधुनिक ,स्व-संस्कृति पलायनवादी लोग भी जोर-शोर से इस में लग जाते हैं |

आतिशबाजी- सिटी हाल , बाल्टीमोर-यूं एस ऐ  ( चित्र -गूगल - साभार )
        यही बात दीप-पर्व पर पटाखों, आतिशबाजी को लेकर देखी जारही है |
                     यह एक गलत धारणा है कि आतिशबाजी से केवल प्रदूषण होता है ....आतिशबाजी युगों से होरही है और प्रदूषण नहीं होता था ..न हुआ ..आतिशबाजी के प्रकाश, धुंए, ऊष्मा व ध्वनि और रसायनों से ( जो वातावरण के लिए एंटी-सेप्टिक का कार्य करते हैं ) से वातावरण से कीट-पतंगे ( जो इस मौसम में अधिक होते हैं)सूक्ष्म-जीव, बेक्टीरिया-आदि नष्ट होते हैंमौसम के संधि-स्थल पर मौसम के अनियमित व्यवहार (कभी गरम-कभी नरम) को सम करते हैं
                     यही कार्य सरसों के तेल के दीपक जलाने से होता है | तेल का एंटी-सेप्टिक  प्रभाव ( यज्ञ , हवं, आहुतियाँ  व होलिका दहन आदि की भांति )  वायुमंडल में वाष्पित होकर वातावरण को इन सभी प्रकार के प्रदूषण से मुक्त करता है |  जहां मोमबत्तियाँ  व  आधुनिक विद्युत बल्ब सिर्फ प्रकाश व ऊष्मा का ही प्रभाव देते हैं ....तेल का नहीं |
                    अधिकाँश लोग बिना कुछ जाने घिसी-पिटी कहानियों को दोहराते रहते हैं ..क्योंकि यह भारतीयों का/ हिंदुओं का 
पावन पर्व है ...???? खतरनाक व अत्यधिक आवाज व शक्ति वाले...बड़ी-बड़ी कंपनियों में बने आधुनिक शक्तिशाली पटाखों आदि को सरकार को स्वतः ही सख्ती से बंद कर देना चाहिए |
                   जहां तक सांस के रोगी की सांस की बात है वह तो सदा ही इस मौसम के संधि-स्थल पर सामान्यतया अधिक सक्रिय हो जाती है |
                    और दुर्घटनाओं की बात-- वह तो खाना खाने से, मिलावट की मिठाइयां खाने से भी होती रहती हैं तो क्या खाना खाना बंद करदेंगे | मिलावट को बंद कीजिये ..मिठाइयों को नहीं |
            क्या दुनिया भर में, दुनिया के हर देश में  प्रतिवर्ष एवं वर्ष भर होने वाले खेलों, उत्सवों व अन्य पर्वों आदि में जो आतिशबाजी होती है ... उससे प्रदूषण नहीं होता ????
                 हमें वस्तुओं व तथ्यों को सावधानी पूर्वक चयन करना चाहिए .....अनावश्यक अति- आधुनिकता व अंधविश्वासी छद्म-वैज्ञानिकता से व उसके व्यावहारिक -चलन से सावधान रहना आवश्यक है |

सोमवार, 24 अक्टूबर 2011

छिद्रान्वेषण ----सजाये मौत और अल्पसंख्यक आयोग ..व गद्दाफी की ह्त्या ...डा श्याम गुप्त


                                               ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
  १-सजाये मौत ----                  अल्प संख्यक आयोग के अध्यक्ष श्री हबीबुल्लाह का कथन है कि वे सजाये मौत के विरुद्ध हैं , वे उसे बर्बर युग की याद बताते हैं , वे स्वयं को बौद्ध बताते हुए वे खून्ख्खार , दुर्दम्य , ह्त्या जैसे कृत्यों के अपराधियों ,  आतंकवादियों को भी सजा के खिलाफ हैं |  मेरी समझ में नहीं आता कैसे कैसे  लोगों को आयोगों का अध्यक्ष बना दिया जाता है | जो स्वयं अल्पसंख्यक समाज से है वह तो उन्हीं के गुण गायेगा | उसे तो   आतंकवादियों में भी बौद्ध व मुस्लिम ही  नज़र आएंगे | उन्हें इन आतंकवादियों की बर्बरता संज्ञान में नहीं आती ? यदि समाज में बर्बरता का कृत्य किया जाएगा तो अपराधी के साथ भी बर्बरता होगी ही | यह सब आतंकवादियों व मुस्लिम- अपराधियों के संरक्षण का अग्रिम प्रयास है | क्या अभीतक उन्होंने कभी सजाये मौत के विरुद्ध अभियान चलाया ? अचानक अब यह सब कैसे याद आने लगा ?
                      शास्त्रों का कथन है कि  " शठे शाठ्यं समाचरेत "   एवं  साम दाम विभेद व दंड ..जो चार नीतियां है व्यष्टि व समष्टि  के अपराधों को रोकने की ...उनमें दंड एक प्रमुख नीति है .. जो दुर्दम्य व इस प्रकार के आपराधिक कृत्यों के विरुद्ध करनी चाहिए | परन्तु हबीबुल्ला जी को क्या पता शास्त्रीय तथ्य ...
                    जहां तक बौद्ध धर्म का सवाल है ...प्रसंगवश यह भी बता दिया जाय कि इसी भ्रमात्मक अहिंसा नीति के कारण बौद्ध धर्म विश्व से तिरोहित हुआ | अहिंसा जैसे दैवीय सद्गुण की किस प्रकार विकृति होती है ? बौद्ध व जैन धर्म वालों ने शास्त्रीय वाक्य के प्रथम भाग "अहिंसा परमो धर्म "  को तो अपना लिया परन्तु द्वितीय भाग  " धर्म हिंसा तथैव च .."  को भुला दिया | अर्थात धर्मार्थ ( राज्य, क़ानून, न्याय, सामाजिक के  व्यापक हित ) की गयी हिंसा , हिंसा नहीं होती अपितु आवश्यक होती है |
                   इसी भ्रामक अहिंसा वृत्ति के कारण --- जब मुसलिम आक्रमणकारियों ने गांधार (कंधार) और सिंध पर आक्रमण किया तब जनता ने अपने को 'बौद्घ' कहकर युद्घ करने से इनकार किया। मुहम्मद-बिन-कासिम ने सब प्रदेश जीता। राजा दाहिर को बंदी बनाकर मार डाला और भीषण नरसंहार किया। इस पाप की दोषी तो वहां की बौद्घ जनता थी, जो अहिंसा व्रत के कारण युद्घ से विरत रही एवं   जनता ने वीर व लोकप्रिय सम्राट का साथ देने से इनकार कर दिया |   अन्य  उदाहरण भारत की पश्चिमी सीमा पर हुए इसलामी आक्रमणों की कहानियां हैं |
         संसार के इतिहास में अनेक बार बर्बर व्यक्तियों व जातियों ने अपने से सभ्य लोगों का विनाश कर डाला।  मूलतः बर्बर मुसलिम आक्रमण ही बौद्घ मत के समूल उच्छेद का कारण बने।'
                       
                      क्या हम, हमारी सरकार , हबीबुल्लाह कुछ सबक लेंगे |

 २- गद्दाफी की ह्त्या-- कौन नहीं जानता कि लीबिया के शासक कर्नल मोहम्मद उमर गद्दाफी ने सत्ता में आते ही  तेल की सभी विदेशी कंपनियों को निकाल बाहर किया था जो देश का धन लूट कर बाहर लेजाती थीं एवं देश को अत्यधिक हानि सहनी पड रही थी | इससे कुछ वर्षों में ही लीबिया की अर्थ व्यवस्था तेजी से उन्नति की ओर अग्रसर हुई | इसीलिये गद्दाफी अमेरिका व योरोपीय शासकों की आँखों की किरकिरी बने हुए थे | यह राजनैतिक- कूटनीतिक चाल व राजनैतिक ह्त्या थी, जिसमें देश के ही कुछ विरोधी समूह दुश्मनों से मिल जाते हैं इसीलिये सुनियोजित योजनानुसार पहले शासक को अत्याचारी, विलासी आदि प्रचारित किया जाता है फिर उसकी ह्त्या करने के षडयंत्र ताकि अपनी कठपुतली सरकार बना कर अपना उल्लू सीधा किया जा सके |

तमसो मा ज्योतिर्गमय.....& Let the lamps light ....डा श्याम गुप्त ...

                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

कह  सकते हैं दीप व्यर्थ ही,
रात रात भर जलता रहता |
तम को  कौन मिटा पाया है,
निष्फल यत्न सदा वह करता||

वह चहुँ ओर करे उजियारा ,
अपने नीचे झाँक न पाता |
चारों  ओर  उजाला फैले,
तम, दीपक तल प्रश्रय पाता ||

अंधकार को देख मनुज को,
हो न निराशा , थके न जीवन |
जब तक नव-प्रभात रवि लाये |
दीपक जलता, रुके न जीवन ||

तम से ज्योति-भाव हित चलना,
कर्म - व्यवस्था  है जीवन की |
इसीलिये  जलते  हैं  दीपक,
यही व्यवस्था, ज्योति व  तम की ||

तम का  अर्थ, मृत्यु या निद्रा,
भोर  व जीवन है उजियारा |
इसीलिये  तो उजियारे  से ,
सदा  हारता  है  अंधियारा ||

तिल-तिल करके जलता दीपक ,
अंधकार  से लडता  जाता |
पैरों तले दबा कर तम को,
जीवन की राहें दिखलाता ||






Let the lamps ignite..


Let the lamps light ,
Life comes to be bright .
Let the candles of hope,
Happiness & harmony ignite.

Think of me my dear,
When you light a light.
Think of me my dear,
When you pray in the night.

The darkness of your heart,
The loneliness of the dark.
In the wilderness of thoughts,
Let  the  hope  spark.

Here comes the dawn of hope,
  To do away this night.
 Let the lamps light,
 Life comes to be bright.





शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011

अगीत छंद ....डा श्याम गुप्त..

                                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

( अगीत -८ से १० पंक्ति के अतुकांत छंद  हैं , जिनमें गेयता, लयबद्धता व प्रवाह होना चाहिए )
        
         अर्थ  


अर्थ,  स्वयं ही एक अनर्थ है;
मन में भय  चिंता  भ्रम की -
उत्पत्ति में समर्थ है |
इसकी  प्राप्ति, रक्षण एवं उपयोग में भी ,
करना पडता है कठोर श्रम ;
आज है, कल होगा या होगा नष्ट-
इसका नहीं है कोई निश्चित क्रम |
अर्थ, मानव के पतन में समर्थ है ,
फिर भी, जीवन के -
सभी अर्थों का अर्थ है ||


अर्थ-हीन अर्थ 

अर्थहीन  सब अर्थ होगये ,
तुम जबसे राहों में खोये | 
शब्द  छंद  रस व्यर्थ होगये,
जब  से तुम्हें भुलाया मैंने |
मैंने  तुमको भुला दिया है ,
यह  तो -कलम यूंही कह बैठी ;
कल  जब तुम स्वप्नों में आकर ,
नयनों  में आंसू भर लाये ;
छलक  उठी थी स्याही मन की |

बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

एक कवित्त छंद ...अमत्ता ...डा श्याम गुप्त....

                                      ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
( अमत्ता-कवित्त -- छंद में सभी वर्ण लघु होते हैं )

उठि सखि चलि  जलु भरनि जमुन तट ,
पुनि  चलि उपवन पुहुप सुघरि  चुनि |
चितव चितव इत उत् किहि लखि सखि ,
कनु  न मिलहि इत मधुवन चलि  पुनि |
अली जु रिसइ कहि अब न चलहुं,  पर-
उझकि-उझकि सुनि मुरलि-धरन  धुनि ।
लटकि लटकि लट सरकि सरकि पटु,
स्रवन  फ़रकि फ़र  कुंवर बयन सुनि  ॥ 








सोमवार, 17 अक्टूबर 2011

कुछ हरि-गीतिका छंद .....डा श्याम गुप्त...

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ ....
हे  प्रभु ! हमारे जन्मदाता, प्राण-त्राता आप हो |
हैं अल्प ज्ञानी हम मनुज, सब ज्ञान दाता आप हो |
भूलें  विषय रत आपको पर आप मत बिसराइए |
हो कृपा सागर यदि प्रभो तो कृपा ही बरसाइये ||

हे नाथ ! इस संसार के हो, आप ही  कारन -कारन |
सब जग कृपा से आपकी ही, आप ही  तारन -तरन |
यह जगत माया आपकी ही, आप नित  धारन-धरन|
कट जायं भव-दुःख नित करे यदि आपका मानव मनन ||

अनुरोध है  हरि-गीतिका में छंद एक रचाइए |
सुंदर सरस शब्दावली में, उचित भाव सजाइए |
हों  मात्राएँ  सोलह-बारह,  अंत में लघु-दीर्घ हो |
मिल जाय शुभ-शुचि छंद कोई पूर्ण यह अनुरोध हो ||


 त्यौहार प्रिय मानव जगत में सौख्य का आधार है |
उत्सव जहां होते न वह भी भला क्या संसार है |
त्यौहार बिन जीवन-जगत बस व्यर्थ का व्यापार है |
हिलमिल उठें  बैठें  चलें , यह भाव ही त्यौहार है ||

है कसौटी हर चमन की वह, महकती पावन-पवन |
है मनुजता की कसौटी पर-हित धरम धारन-धारन  |
क्या है कसौटी प्रेम की ,युग युग हुआ मंथन-मनन |
है कसौटी की कसौटी हो ,स्वर्ण का प्रतिशत चयन ||

शनिवार, 15 अक्टूबर 2011

कहानी – सहधर्मिणी – सह्कर्मिणी -----( डा श्याम गुप्त )......


                                              ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


             
        और आजकल क्या नए नए विचार प्रश्रय पा रहे हैं, नवीन काव्य-रचना हेतु.....मैं स्वयं तो बहुत समय से विचार मंथन कर रहा हूँ कि आखिर श्रीकृष्ण लौटकर गोकुल क्यों नहीं आये | राधा से विवाह क्यों नहीं किया! श्री ने कहा, फिर कहने लगा ‘अच्छा बताओ गिरीश कि तुमने सुमि से विवाह क्यों नहीं किया?’
    ‘मैं जब तक अपने पैरों पर खडा होता, उसका विवाह होचुका था |’ मैंने कहा |
    पर तुम्हारे पास समय था, तुम सक्षम थे, पी जी कर रहे थे | उससे कुछ रुकने को कह सकते थे | एक बार कहते तो रुकने को | क्या कभी कहा तुमने, श्री बोला |
     नहीं कह सका |
     क्यों ?
     पर तुम इतने समय बाद, इस तरह यह सब क्यों पूछ रहे हो ?
     मैं यह जानना चाह रहा हूँ, रहस्य...आखिर श्रीकृष्ण ने राधा से विवाह क्यों नहीं किया | दोनों कहानियां लगभग समान ही हैं; और भी एसी कहानियां होंगीं संसार में, समाज में | मुझे लगता है कि कृष्ण भी गोकुल जाकर राधा से कह सकते थे ..रुकने को...गुरुकुल से लौटकर विवाह कर सकते थे | पर वे गए ही नहीं लौटकर ...क्यों ? कितनी दूर है मथुरा से गोकुल |
       तुम भी नहीं जापाये, सिर्फ एक नदी के उस पार ....क्यों | मैं समझता हूँ कि विश्व-विद्यालय मैं आने के पश्चात ...सुमी की शिक्षा आदि...व कालिज के अन्य आकर्षणों का तुलनात्मक भ्रम व भ्रान्ति ...कि वह तुम्हारे योग्य है भी या नहीं | शायद यही भाव कृष्ण का भी रहा हो ....!  महानगरीय व्यवस्था, रहन-सहन, राजनैतिक दायित्वों व कर्तव्यों के अनुपालन एवं अन्य विभिन्न दबाव ...इच्छित न कर पाने, न कर पा सकने का तनाव ...टूटन...बिखराव ...| कृष्ण एक बार मिलते तो राधा से ....कहते तो सही अपनी मजबूरियां, दायित्व की...कर्तव्य की ...| शायद यशोधरा की भांति राधा भी कहती होगी ...’सखि! वे मुझसे कह कर जाते .....|'  या हो सकता है यह कहती....

 जाओ जाओ हे गिरिधारी |

रोकूँगी तो भी न रुकोगे, छलिया छल-बल धारी |

तेरी बतियाँ  प्रीति-रीति की,नीति जगत व्यौहारी|

तुमको बाँधी प्रीति बंधन में, मैं आपुनि ही हारी |

जाओ देश-समाज-राष्ट्र-हित,कान्हा भव-भय हारी |

बंधन मुक्त करूँ नहिं छूटे, प्रेम-डोर यह न्यारी |

बैरिन मुरली साथ ही राखूं फिरि न बजे सुखकारी |
राह की बाधा बनूँ न, चाहे सूखे मन-फुलवारी |

श्याम,न मोहन,मोहनि-मन्त्र,न मोह,न मोहनि-हारी ||
    
      वाह ! वाह ! क्या बात है श्री, पर क्या पता वे मिले हों राधा से और राधा ने यही कहा हो |
      अच्छा पकड़ा, श्री कहने लगा, पर वे तो गए ही नहीं थे मथुरा से...मिले ही नहीं राधा से | शायद उन्हें यह भय था कि एक बार मिलने पर वे किचित स्वयं ही कर्तव्य-पथ से च्युत होजायं ...राधा को छोड़ ही न पायं |
     'क्या तुम मेरे लिए भी यही कहना चाह रहे हो ?'
     शायद ! श्री हंसने लगा | यह शंसय, असमंजस की किन्कर्तव्यविमूढ़ स्थिति ही स्पष्टतया कुछ तय न कर पाने का कारण रही हो...और फिर बहुत देर होचुकी थी...तीर का कमान से निकल जाना | 
    'सही कहा श्री, आखिर हम पत्नी को सहधर्मिणी क्यों कहते हैं ?'
    ‘ये बात को कहाँ से कहाँ ले जारहे हो !’
    पत्नी को सहकर्मिणी नहीं कहागया, क्यों ? स्त्री- सखी, प्रेमिका सहकर्मिणी होसकती है, मैं कहता गया...स्त्री माया रूप है, शक्ति-रूप, ऊर्जा-रूप वह अक्रिय-क्रियाशील (सामान्य-पेसिव) पात्र - रोल अदा करे तभी उन्नति होती है, जैसे वैदिक-पौराणिक काल में हुई | पत्नी सह-धर्मिणी है, सिर्फ सहकर्मिणी नहीं | हाँ, पुरुष के कार्य में यथासमय, यथासंभव, यथाशक्ति सहकर्म-धर्म निभा सकती है | सह्कर्मिणी होने पर पुरुष भटकता है और सभ्यता अवनति की ओर | अतः पत्नी को सहकर्म नहीं सहजीवन व्यतीत करना है – सहधर्म | स्त्री-पुरुष के साथ साथ काम करने से उच्च विचार प्रश्रय नहीं पाते, व्यक्ति स्वतंत्र नहीं सोच पाता, विचारों को केंद्रित नहीं कर पाता |
    ‘ यार ! क्या उल-जुलूल बोले चले जारहे हो, घर से लड़कर आये हो क्या ?
    ‘ तभी तो, मै कहता गया, ‘पति-पत्नी सदा पृथक-पृथक शयन किया करते थे | राजा-रानियों के पृथक-पृथक महल व कक्ष हुआ करते थे | सिर्फ मिलने की इच्छा होने पर ही वे एक दूसरे के महल या कमरे में जाया करते थे | माया की नज़दीकी व्यक्ति को भरमाती है ...उच्च विचारों से दूर करती है |
    ‘क्या विचित्र बात कह रहे हो, कथन–कहावत तो यही है कि प्रत्येक सफल व्यक्ति के पीछे नारी होती है |’
     ‘निश्चय ही, पर ये क्यों नहीं कहा गया कि सफल नारी के पीछे पुरुष होता है | नारी की तपस्या, त्याग, प्रेम, धैर्य, धरित्री जैसे महान गुणों व व्यक्तित्व की महानता के कारण ही तो पुरुष महान बनते हैं, सदा बने हैं |‘
      ‘ कुछ समझ में नहीं आया, तुम कहाँ भटक-भटका रहे हो | यह विषयान्तर है |’ श्री अधीरता से बोला |
       “अति सर्वत्र वर्ज्ययेत”, मैंने कहा, अति प्रेम की भी बुरी होती है | मेरे विचार से इसी को स्थापित करने हेतु श्रीकृष्ण दोबारा गोकुल नहीं गए | राधा से नहीं मिले ...या विवाह नहीं किया | प्रेम का भरण-पोषण या सहजीवन से कोई सम्बन्ध नहीं | प्रेम का सम्बन्ध कामेक्षा से है अथवा उच्चतम आत्मिक लगाव से, तदनुरूपता से | विवाह एक अनुबंध है कि हम तुम्हारे भरण-पोषण का बचन लेते हैं, तुम हमारे भरण-पोषण, लालन-पालन का | इसीलिये पति भर्तार है पत्नी भार्या | मूल रूप में अत्यावश्यक मज़बूरी से अन्यथा स्त्रियों को सेवा या व्यवसाय आदि के बंधन में नहीं बंधना चाहिए | बस पुरुष व संतान का पालन-पोषण ही उनका कार्य होना चाहिए | जिसे स्वयं नारी ने ही मानव-इतिहास के प्रथम श्रम-विभाजन से समय स्वीकार किया था |’
      प्रेम उच्चतम अवस्था में, भावातिरेक अवस्था में भक्ति में परिवर्तित होजाता है और अगले सोपान रहित सोपान पर द्वैत का अद्वैत में लय होकर प्रिय के साथ तदनुरूपता में | ...
         ” जब में था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं |” .....
फिर संयोग..वियोग...योग..भोग..सुख-दुःख, मोह-शोक का कोई अर्थ..कोई द्वंद्व नहीं रह जाता | यही प्रेम का गोपी-भाव है....राधा-भाव है...| राम, कृष्ण, लक्ष्मण आदि के निर्मोही होने का यही अर्थ है; अन्यथा गीता, भ्रमर-गीत, विप्रलंभ-काव्य, संयोग-श्रृंगार की महान कृतियाँ, महान कथाएं कैसे बनतीं |
        राधा ...माया है...महामाया...आदि-शक्ति...वह अनन्यतम है श्रीकृष्ण से ...जगत-माया है ...हलादिनी शक्ति है..चिच्छितशक्ति है ... सह्कर्मिणी है....ब्रह्म की....वह लौकिक पत्नी नहीं हो सकती ...उसे बिछुडना ही होता है ...ब्रह्म से...कृष्ण से ...गोलोक के नियमन हेतु |
    ‘चलो मान लेते हैं गुरु, क्या दूर की कौड़ी लाये हो|’ श्री द्विविधा-भाव में सोचता हुआ बोला |   

                                ---कुछ चित्र गूगल से साभार....   
  





   


शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2011

बाल गीत -----विष्णु भगवान .....डा श्याम गुप्त....

                                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
चित्र-- गूगल साभार
शंख-चक्र औ गदा-पद्म कर,
रूप चतुर्भुज सदा सुहाए |
मृदु मुस्कान सदा आनन पर,
सदा ध्यान-रत मुद्रा  भाये ||

शेषनाग की शैया स्थित,
श्यामल छवि मन को मोहे |
नीलकमल से लोचन जिनके ,
बैजंती माला उर सोहे ||

बच्चो ! ये भगवान विष्णु हैं ,
जो सब जग का पालन करते |
रहें  ध्यान-मुद्रा में  बहुधा,
सारे जग को देखते रहते ||

जब जब दुष्ट अधर्मी पापी,
करते जग में अत्याचार |
उन्हें मिटाने तब तब ये ही,
लेते पृथ्वी पर अवतार ||

सत्य घोष है अर्थ शंख का,
दुष्ट दमन बल गदा बताए |
सृष्टि नियामक-भाव चक्र, कर -
पद्म,  श्री-समृद्धि सुहाए ||

सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

आलेख--हिन्दी साहित्य व आज का समाज .....डा श्याम गुप्त ....

                                ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                         हिन्दी  साहित्य और आज का  समाज ....पर क्या कहा जाय !  विशद भाव में कोई  अति उत्साह जनक स्थित नहीं है |  आज हिन्दी साहित्य ही नहीं अपितु  साहित्य ही समाज के हाशिये पर है |  इस स्थिति के यद्यपि विभिन्न कारण गिनाये जा सकते हैं  परन्तु मूल दोषी तो हम ही हैं...स्वयं साहित्यकार ही हैं | इसे हम नकार नहीं सकते | स्वयं के सामाजिक व साहित्यिक दायित्व से स्वयं  साहित्यकार ही दूर होगये हैं | 
                      यद्यपि आज  काव्य व सभी साहित्य लिखा तो खूब जारहा है परन्तु पढ़ा नहीं जारहा ;  क्योंकि आज कवि व साहित्यकार में काव्य-कौशल व गुणवत्ता की कमी   है |  धैर्य  की कमी है |  वह प्राय:  अल्पज्ञता व मूल्यहीनता  की स्थिति में है |  समर्पण भाव की अपेक्षा  निज हित लाभ प्रधान  हो चला है |  मूल्य हीन .......न तो अच्छा साहित्यकार हों सकता है  न घास छीलने वाला |
                   कठिन शब्दावली, दूरस्थ भाव, शब्दाडम्बर, अमूर्तता , रहस्यमयता , चमत्कारिकता, उक्ति वैचित्र्य मय भाषा , क्लिष्ट -भाषा ....कला का चमत्कार तो होसकता है परन्तु  जन जन, जन सामान्य से मुक्त  भाव-सम्प्रेषण योग्य  नहीं, साहित्य की उन्नयन कारक  नहीं |  इसी प्रकार अशुद्ध भाषा,  शब्दावली व व्याकरण, अस्पष्ट  भाव , कथ्य व विषय भाव ...साहित्य की अवनति कारक के साथ साथ जन सामान्य में असम्प्रेषण के कारण  भ्रम, अनास्था   व अरुचि उत्पन्न करती है |
                 आज कविता व साहित्य को न कोई पढ़ता है न सुनता है | स्थिति यह है कि कवि व साहित्यकार स्वयं  ही लिखते हैं, प्रकाशित कराते हैं, स्वयं ही पढते, सुनते -सुनाते हैं |  स्वयं साहित्यकार ही अन्य साहित्यकार के समारोह में उपस्थित होकर उत्साहवर्धन नहीं करते  जब तक कि वहाँ  स्वयं उनका मंचीय योगदान न हो | जब तक साहित्यकार निजी-हित वाली प्रवृत्ति से उभरकर साहित्य-समाज-संस्कृति हित की प्रवृत्ति का पोषण  नहीं करेंगे ..समाज में साहित्य का प्रसारण नहीं होगा |  आज के मूल्यहीनता के युग में यह आवश्यक भी है एवं साहित्यकार का नैतिक दायित्व भी |
                       हिन्दी साहित्य की इस स्थिति के अन्य कारण भी हैं |  पाश्चात्य शिक्षा-संस्कृति शैली  का उन्मुक्त फैलाव | राजनैतिक उठा-पटक,  लोलुपता  में किसी को साहित्य-समाज पर ध्यान देने का भान ही नहीं है |  गली-गली में खुले समाचार-पत्र, राजनैतिक , व्यक्तिगत, संस्थागत समाचार पत्रों व पत्रिकाओं की भीड़  का उद्भव ; जहां साहित्यिक-भाव पोषण की अपेक्षा निज-हित, स्व-समाज हित, स्व-संस्था हित, स्व-संगठन, स्व-भाषा  जैसे अनेकों स्व-हित-भाव प्रमुख होजाते हैं | साहित्य का अर्थ पत्रकारिता, समाचार-लेखन, अंग्रेज़ी-हिन्दी जासूसी उपन्यास लेखन , समाचार पत्र-पत्रिकाओं का सर्कुलेशन  ही रह जाता है  |
                   राज्यों के हिन्दी संस्थानों की कार्यशैली -क्रियाविधि भी काम चलाऊ ही है |  साहित्य के प्रोत्साहन हेतु ठोस योजनाओं, कार्यों व कार्यान्वन की इच्छा का अभाव है |  साहित्यिक संगठनों की गुट बाज़ी,  विशिष्ट वर्गों,  विषयों के खाँचों में बंटा साहित्य , यथा...नारी विमर्श, नारी साहित्य, बाल साहित्य, दलित साहित्य, दलित-विमर्श ...छंदीय काव्य संगठन, नव-गीत संस्था , प्रगतिशील साहित्यिक संस्था आदि अलगाव वादी साहित्य व साहित्यिक सोच ने मूल्यहीनता, गुण हीनता  द्वारा पाठक वर्ग में -जन सामान्य में -स्वयं कवि-साहित्यकार  वर्ग में , विज्ञ जनों में ...समाज में एक भ्रम, अनिश्चितता  की स्थिति द्वारा एक वैचारिक व भाव शून्यता उत्पन्न की है | साहित्य कब दलित होता है ? क्या हम दलित वर्ग को समाज से पृथक करके देखना चाहते हैं ? सामाजिक -सांस्कृतिक समन्वय यदि साहित्यं , या समाज के  बुद्धिवादी व विज्ञजन में सर्वोच्च पायदान  पर स्थित साहित्यकार ही नहीं करेगा तो फिर कौन करेगा ?  क्या नारी  या नारी पर कोई गाथा समाज व पुरुष के बिना लिखी कही व सोची जा सकती है  स्त्री-पुरुष कब पृथक पृथक जाने , कहे, गाये व सोचे गए या सोचे जा सकते हैं ? फिर नारी विमर्श का क्या अर्थ ?  क्षेत्रीय बोलियों  को हिन्दी भाषा से पृथक रचना -संसार के प्रचलन  का प्रश्रय देने से , हिन्दी भाषा व साहित्यं की गतिमयता  रुकी है | उर्दू-फारसी प्रधान गज़ल की हाला-प्याला वाली लुभावनी शैली ने भी हिन्दी कविता को हानि  पहुंचाई है |  प्रकाशकों, विक्रेताओं द्वारा बाजारवाद के प्रभाववश काव्य व साहित्यिक प्रकाशनों की उपेक्षा एक महत्वपूर्ण कारण है |
                      हिन्दी सिनेमा ने हिन्दी भाषा को प्रसारित तो किया है परन्तु समाज को  साहित्य व साहित्यिकता से दूर किया है \ आज कल्पित विज्ञान कथाएं , फंतासी, अमेरिकन/योरोपियन अनूदित कथाओं पर आधारित चलचित्रों, नाटकों ,काव्य-कलाओं  व अप-साहित्य ने भारतीय व हिन्दी साहित्य को चोट पहुंचाई है |अपने एतिहासिक , पौराणिक व जन जन में बसे साहित्य के निरूपण व पुनर्लेखन की उपेक्षा, जन जन के, जन सामान्य के व पाठक वर्ग के साहित्य से दूर होने का एक प्रमुख कारण है | यद्यपि अभी हाल में ही व यदा-कदा कुछ टीवी सीरयल अपने प्राचीन गौरव के प्रतिस्थापक बने व प्रसारित हुए हैं , जो एक शुभ लक्षण है |
                  इस प्रकार हिन्दी साहित्य के प्रचार प्रसार व गुणवत्ता का सारा भार विभिन्न व्यक्तिगत साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं पर आजाता है जो प्राय: अर्थाभाव, समाज व स्थानीय शासन-प्रशासन के असहयोग के कारण क्रियाशील नहीं रह पातीं |  फिर भी कुछ संस्थाएं विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा यह गुरुतर दायित्व उठाये जारही हैं यह अँधेरे में आशा की किरण तो है ही |

शनिवार, 8 अक्टूबर 2011

छिद्रान्वेषण ----ये कहाँ जारहे हैं हम......ड़ा श्याम गुप्त ...

                                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
                       प्रायः प्रगतिवादी विज्ञजन आंग्ल संस्कृति/ वैचारिक प्रभाव वश ..पोज़िटिव  थिंकिंग, आधे भरे गिलास को देखो ....आदि कहावतें कहते पाए जाते हैं  ...परन्तु गुणात्मक ( धनात्मक + नकारात्मक ) सोच ..सावधानी पूर्ण सोच होती है..जो आगामी व वर्त्तमान खतरों से आगाह करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है |  देखिये  आज के छिद्रान्वेषण  ....
१-  वैज्ञानिक व प्रगतिवादी समाज का असत्याचरण ----अभी तक तो हम सिगरेटों के पैकों / विज्ञापनों पर छोटे छोटे महीन अक्षरों में  .." सिगरेट / तम्बाकू स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है"....के विज्ञापन देकर ही अपनी कर्तव्य की इतिश्री मानते रहे हैं........   अब देखिये इस विज्ञापन को ...न्यूनतम ई एम् आई  १७२५  बड़े अक्षरों में और प्रति लाख छोटे में --क्या इससे कार की न्यूनतम किश्त १७२५/ का भ्रम  नहीं होता | बहुत छोटे अक्षरों में ...नियम व शर्तें लागू ...भी लिखा होगा .....क्यों ?? क्या यह धोखा देने की मूल नीयत नहीं प्रदर्शित होती.....कहाँ है सरकारी नियामक तंत्र...सामाजिक संस्थाएं.....समाचार पत्रों का सामाजिक दायित्व ...
            माना कि यह व्यावसायिक मेनेजमेंट -कौशल है....उन्हें अपनी कार बेचनी है ...इसीलिये तो बाज़ार में पूंजी लगाकर बैठे हैं......पर क्या उनका कोई सामाजिक दायित्व नहीं .....फिर नटवर लाल ,  बेईमानी में पकडे जाने वाले उठाईगीरे  व इनमें क्या अंतर है ......हम सोचेंगे ???
२- साहित्यिक  जगत में --दायित्वहीन, विचारहीन  सोच के कुछ उदाहरण ----
       एक-कवि सम्मलेन में  कोई कवि . पढते हैं------
                             "राम तो बस चुनाव जीतने के लिए भुनाए जाते हैं,
                              रावण तो जलाकर भी सैकड़ों चूल्हे जला जाते हैं ||"  ----- क्या यह राजनैतिक पक्षधरता का साहित्य नहीं है, क्या यह  सदियों की , जन जन की आस्था पर प्रहार नहीं है , क्या आप रावण को राम के ऊपर प्रश्रय देना चाहते हैं ??   इसी प्रकार एक और कवि  पढते हैं---
                               राजनीति हमारे देश का राष्ट्रीय उद्योग है ,
                              जनता की आशाओं पर रेत के महलों का अजूबा प्रयोग है ||........क्या हम बिना राजनीति के देश चलाना चाहते हैं ...क्या यह संभव है ?.... एसी कवितायें सामयिक वाह  वाह --तालियां  तो बटोर सकती हैं पर सामाजिक दायित्व से परे अनास्था उत्पन्न करती हैं | .आखिर इन सब अतार्किकताओं से जन जन का संस्थाओं पर  अनास्था, अविश्वास  उत्पन्न करके हम क्या पाना चाहते हैं ---
      दो--केसर कस्तूरी ---कथा वाचन में --बेटी कहती है ---"राजा जनक ने सीता को दुःख सहने के लिए छोड़ दिया था | यही औरतों का भाग्य है |".......सुनाने में बड़ा भावुक-करुण  लगता है ... इसे अपराध बोध की कहानी व स्त्री विमर्श ..कहा जाता रहा  है पर यह हमें कहाँ लिए जारहा है....... क्या चाहती हैं महिलायें / तथाकथित प्रगतिशील समाज / साहित्यकार ......क्या जनक सीता को राम के साथ जाने देने की अपेक्षा ...स्वयं अपने महलों में रखलेते ......क्या हम चाहते हैं कि जिस पत्नी/ नारी  ने सुख के दिनों में ...जिस पुरुष /पति के साथ मज़े  लिए, सुख भोग किया ...वह दुःख के दिनों में पिता के घर ...आनंद भोगे और पति को जंगल में दुःख सहने को छोड़ दे ...बिना  उसके किसी कसूर के....
    तीन--लन्दन में स्थापित --प्रगतिशील लेखक मंच --का कथन है कि वामपंथी विचारधारा से ही छोटे छोटे शहरों के  महत्वपूर्ण लेखकों का निर्माण व विकास हुआ है...उदाहरण---सज्जाद ज़हीर , फैज़, जोश, फिराक, सरदार जाफरी, ताम्बा , साहिर, कैफी आज़मी , कृष्ण चंदर, मंटो, नागार्जुन, मुक्तिबोध , केदार नाथ , त्रिलोचन, यशपाल ,नंबर सिंह ...आदि ..भारतीय विचार धारा के विरोधी ....विदेशी वामपंथी सोच के साहित्यकार ही साहित्यकार  हैं...... भारतीय विचार धारा के साहित्यकारों --मैथिली शरण गुप्त, निराला, दिनकर, महादेवी, प्रसाद, की कोई अहमियत नहीं है, न आज के भारतीय विचार धारा पर लिखे जारहे साहित्य -साहित्यकारों ने कुछ किया है..........तो फिर आज जन-समाज में साहित्य व कविता के प्रति अरुचि का   कारण कहाँ स्थित है .....शायद इसी  प्रगतिशीलता की जिद में  स्व-समाज..संस्कृति, सदियों से प्रतिष्ठित भारतीय संस्कृति के  पतनोन्नयन में ....
                         ये सारे कारण, साहित्यिक / सामाजिक अवैचारिकता, अतार्किकता,  मूल्यहीनता, --समाज में जन जन को भ्रम, अतार्किकता, अवैचारिकता, अनास्था, मूल्यहीनता के स्थिति में डालते हैं....और जन जन -- साहित्य, सामाजिकता,  नैतिकता  से आस्थाहीन होकर ..उससे दूर होकर ...फिर उसी सदा  सुलभ भौतिकता के चरणों में जा बैठता है .....शान्ति खोजने लगता है ...अनाचरण ...भ्रष्ट-आचरण ...व  आज के द्वंद्वों का यही मूल कारण है ||