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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

रविवार, 20 जून 2010

गंगा दशहरा पर.....

गन्गोत्री ग्लशिअर नीचे खिसकता हुआ ----->
स्वर्ग से गंगावतरण का दृश्य ---->

सदा
नीरा माँ गंगा भारतवर्ष की जीवन दायिनी, जन-जीवन है अतः माँ रूप में सर्वत्र पूजी व जानी गयी । यद्यपि आज हमारे अपने ही कृतित्वों से वह क्षीणकाय व प्रदूषित होती जारही है परन्तु फिर भी जन जन की आस्था कम नहीं हुई है । अच्छा होगा यदि हम आस्था के साथ साथ गंगा को प्रदूषण रहित करने में भी योगदान दें । कहीं एसा हो सरस्वती की भांति सिर्फ आस्था ही रह जाय गंगा विलुप्त होजाय
तुलसी दास जी ने -कवितावली’ में गंगा को विष्णुपदी, त्रिपथगामिनी और पापनाशिनी आदि कहा गया है-
जिनको पुनीत वारि धारे सिर पे मुरारि।
त्रिपथगामिनी जसु वेद कहैं गाइ कै।।

गन्गा जी के दर्शन के लिए देवांगनाएँ झगड़ती हैं, देवराज इन्द्र विमान सजाते हैं, ब्रह्मा पूजन की सामग्री जुटाते हैं क्योंकि गंगा दर्शन से समस्त पाप नष्ट होजाते हैं और उसका विष्णु लोक में जाना निश्चित हो जाता है-
देवनदी कहँ जो जन जान किए मनसा कहुँ कोटि उधारे।
देखि चले झगरैं सुरनारि, सुरेस बनाइ विमान सवाँरे।

पूजा को साजु विरंचि रचैं तुलसी जे महातम जानि तिहारे।

ओक की लोक परी हरिलोक विलोकत गंग!तरंग तिहारे।।
(कवितावली-उत्तरकाण्ड 145)

---वास्तव मे सर्वव्यापी परमब्रह्म परमात्मा जो ब्रह्मा, शिव और मुनिजनों का स्वामी है, जो संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कारण है, वही गंगा रूप में जल रूप हो गया है-
ब्रह्म जो व्यापक वेद कहैं, गमनाहिं गिरा गुन-ग्यान-गुनी को।
जो करता, भरता, हरता, सुर साहेबु, साहेबु दीन दुखी को।
सोइ भयो द्रव रूप सही, जो है नाथ विरंचि महेस मुनी को।
मानि प्रतीति सदा तुलसी, जगु काहे न सेवत देव धुनी को।।
(कवितावली-उत्तरकाण्ड 146)

और -----
जै जै विष्णु-पदी गंगे।
पतित उघारनि सब जग तारनि नव उज्ज्वल अंगे।
शिव शिर मालति माल सरिस वर तरल तर तरंगे।
‘हरीचन्द’ जन उधरनि पाप-भोग-भंगे।

----गन्गा दशहरा पर गन्गा स्नान करने से दशों प्रकार के कायिक मानसिक वाचिक पाप नष्ट होते हैं इसीलिये इसे गंगा दशहरा कहाजाता है।
- कायिक पाप()-- बिना पूछे किसी की वस्तु लेना , शास्त्र वर्जित हिंसा, पर स्त्री गमन
-वाचिक पाप()--कटु बचन बोलना, झूठ बोलना,परनिंदा वअसत्य परदोषारोपण एवं निष्प्रयोजन बातें
-मनसा पाप ()--दूसरों पर अन्याय करने का विचार, अनिष्ट चिंतन, नास्तिक बुद्धि





पितृ दिवस पर एक विचार-भाव यह भी... डा श्याम गुप्त ..

यह सच है कि आज का पिता वह ,सर्वज्ञाता,संतान के लिए धीर गंभीर महान , बच्चों से दूरी बनाकर रखने वाला , सर्वशक्तिमान पिता नहीं रहा वह आज बच्चों के लिए गधा, घोड़ा, ऊँट बन सकता है, बच्चों के साथ सब तरह के खेल खेल सकता है, उनकी जिद -केरियर के लिए ,नौकरी-केरियर छोड़ कर उन्हें डांसिंग प्रोग्राम या क्रिकेट-टेनिस में ले जासकता है; वह उनके साथ नाचता -ठुमके लगाता है;सिनेमा -खेल-तमाशे देखता है, कुछ लोग साथ साथ शराव भी पीते हुए देखे जा सकते हैं , नंगे नाच भी | वह बच्चे के साथ बच्चा है , एवं साथ ही साथ अपने केरियर में कंपनी का मालिक, जिम्मेदार अफसर, कर्मी भी । कहा जा सकता है कि पूर्व भारतीय प्रामाणिक पिता की अपेक्षा ,वह आज दोहरी भूमिका अच्छी तरह निभारहा है। पिता-पुत्र सम्बन्ध सहज, अधिक घनिष्ठ हैं।
परन्तु फिर क्यों आज का बच्चा , युवा-- स्कूल में गोलियां चलाता है, सहपाठियों का अपहरण-ह्त्या करता दिखाई देता है, अध्यापक, गुरुजनों को चाकू-पिस्तोल दिखाकर नक़ल करता है | डकैती,ह्त्या, लूटपाट , मारपीट, कालेग-स्कूल में दंगे, आतंक में लिप्त होरहा है? बिगडैल ? सोचिये क्यों ??????????
वस्तुतः यह आज का पिता पाश्चात्य भावयुक्त है भारतीय संभ्रांत-भाव नहीं , जहां परिवार -भाव के कारण बच्चे में समष्टि भाव उत्पन्न होता था । मेरा पुत्र, मेरा बच्चा, मेरा बच्चा सबसे अच्छा, वाह बेटा!-- आदि व्यष्टि गत अहं भाव न पिता में न संतान में उत्पन्न होते थे जो उत्तम मानवीय - भाव की पृष्ठभूमि हुआ करते थे | पिता बच्चे का आदर्श हुआ करता था एवं उत्तम पारिवारिक संस्कारगत भाव,क्रियाएं, कर्म बचपन से सीखे जाते थे। आज पिता बच्चे का मित्र है, आदर्श नहींतो आदर्श कहाँ से आये--हीरो, हीरोइन( विभिन्न बकवास रोल में ), नेता, गुंडे, उठाईगीरे, नाचने-गाने वाले, लुच्चे- लफंगे , येन केन प्रकारेण पैसा कमाने वाले, पैसे के लिए खेलने वाले, तथा सदकर्मों की कथा-कहानी ,आदर्शों के अभाव में अकर्म व कुकर्म , टीवी-सिनेमा आदि उनके आदर्श बन रहे हैं |
इतिहास में पहले भी पिता के, बच्चा बने बिना--आदर्श पिता व सन्तान मोह से कुलनाशी-समाज़ नाशी, देश घाती पिता होते रहे हैं । आज के दिन हमें यह भी सोचना चाहिये।

शनिवार, 19 जून 2010

पितृ दिवस पर डा श्याम गुप्त की कविता ....दौड़

दौड़

बेटे ने कहा ,
पिताजी आप पुराने पड़ गए हैं ;
दुनिया तेज दौड़ रही है , और-
आप पिछड़ रहे हैं
आपको पता नहीं है,
दुनिया कहाँ पहुँच गयी है ;
एक आप ही हैं कि,
वहीं के वहीं हैं

पिता ने कहा- बेटा सही है,
लोग बहुत तेज दौड़ रहे हैं , तभी तो--
कहीं जाना था , और-
कहीं पहुँच रहे हैं।
पहले, मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे-
शिक्षा के केंद्र हुआ करते थे;
अब, बिजनेस सेंटर होगये हैं।

पहले जंगलों में,
बस्तियां हुआ करती थी ,
अब बस्तियों में ही,
जंगल-राज होगये हैं
पहले जंगल ,
डाकूमय हुआ करते थे,अब-
शहर के गेस्ट हाउस डाकूमय होगये हैं।
और तो और,
जो लोग वरद-हस्त का अर्थ-
पांच रुपये कहाकरते थे
अब पांच हज़ार बता रहे हैं।

यहाँ तक कि हम लोग,
मंदिर मस्जिद चर्च को भी ,
बर्थ डे -केक बनाकर ,
खाए जा रहे हैं॥

बुधवार, 16 जून 2010

डा श्याम गुप्त की कविता ----पुनर्मूषकोभव ..........

पुनर्मूषको भव

हम रहते थे जंगल में ,
सभी थे मस्त,
अपने अपने खाने-पीने और-
आनंद मंगल में ।
नर-नर; नारी-नारी व नर-नारी में
कोई फर्क नहीं था, कोई अंतर्द्वंद्व नहीं था ;
था केवल द्वंद्व ;
किसी का किसी से नहीं था,
कोई सम्बन्ध ।

अपने लिए फल तोड़ना, शिकार खोजना;
नंगे रहना या छाल ओड़ना;
बलवान द्वारा, कमजोर का सिर तोड़ना ।
यही था मानव , और -
मानव के जीने का अंदाज़ ,
स्वच्छंद , निर्द्वंद्व, निर्विवाद
वर्ज़ना हीन समाज ।

नृवंश आगे बढे ,
एक दूसरे का सिर न तोड़ें न लड़ें ;
अपने अस्तित्व विनाश की और न बढ़ें ,
इसलिए , शैतान ने-
प्रेम रस युक्त, अमर फल बनाया,
आदम को खिलाया।
ज्ञान चक्षु खुले, फ़ैली माया ।
ज्ञान और प्रेम पृथ्वी पर समाया,
साथ में नियम, कायदे, क़ानून , कामनाएं, भावनाएं
क्या छोड़ें, क्या अपनाएं
विभिन्न वर्ज़नाएं लाया ।

समाज ने,
सत्य, धर्म, अध्यात्म, सदाचार अपनाया,
प्रतीक रूप में,
ईश्वर अस्तित्व में आया ।

दुनिया ने ,
प्रगति की राह पर कदम बढाए।
सभी ने अपने अपने अनुरूप-
कार्य बाँट लेने के नियम अपनाए ;
सभी को-
समता, भावना, कर्तव्य , संबंधों व-
परिवार वाद के मूल भाये ।
नर और नारी ने भी अपने अपने अनुरूप ,
कार्य व कार्य बंधन खुशी खुशी अपनाए।
सभी ने मिलकर--
" सर्वें सुखिना सन्तु , सर्वे सन्तु निरामया "
जैसे गीत गाये ।

आज यदि---
अंधी भौतिकता के दौड़ में ,
नर के सभी कार्य नारी ,
नारी के सभी कार्य नर, अपनाएंगे ;
सबके लिए उचित कार्य का बंटवारा
के नियम भुलायेंगे ;
वर्ज़नाहीन समाज के नारे लगायेंगे,
प्रेम, भावना, ज्ञान,धर्म-कर्म ईमान की बजाय-
खाने-कमाने के गीत गायेंगे ;
एक दूसरे की सिर फोड़ प्रतियोगिताएं अपनाएंगे;
तो क्या फिर से-
जंगल में जाकर घर बसायेंगे ॥

मंगलवार, 15 जून 2010

पंडित बृज बहादुर पाण्डेय स्मृति सम्मान समारोह -२०१० सम्पन्न-


पंडित बृज बहादुर पाण्डेय स्मृति सम्मान समारोह -२०१० सम्पन्न----

' डा श्याम गुप्त ' हिन्दी के विकास मेंसाहित्यकारों की भूमिका' पर आलेख पढ़ते हुए..

वरिष्ठ साहित्यकार डा अशोक गुलशन द्वारा आयोजित पंडित बृज बहादुर पाण्डेय स्मृति सम्मान समारोह -२०१०; दि. १२-०६-२०१० को बहराइच में सम्पन्न हुआ | समारोह की अध्यक्षता श्री मुजफ्फर अली ने की | ' हिन्दी के विकास में साहित्यकारों की भूमिका' एवं 'अवधी भाषा के विकास में मीडिया व युवा पीढी का दायित्व' विषय पर आलेख वाचन किया गया | समस्त भारत से आये हुए साहित्यकारों का सम्मान किया गया|
श्री मुजफ्फर अली अपना संभाषण देते हुए....साथ में बैठे हुए राज्य स्वास्थ्य मंत्री श्री दद्दन मिश्र व खड़े हुए डा अशोक गुलशन ..

डा श्याम गुप्त को सम्मानित करते हुए प्रदेश के स्वास्थ्य राज्य मंत्री श्री दद्दन मिश्र एवं शिक्षा साहित्य कला विकास समिति, रत्नापुर बाज़ार के अध्यक्ष श्री संतोष मिश्र |





जेठ की दुपहरी ----बड़े मंगल पर ...

जेठ की दुपहरी
( घनाक्षरी छंद)

दहन सी दहकै, द्वार देहरी दगर दगर ,
कली कुञ्ज कुञ्ज क्यारी क्यारी कुम्हिलाई है
पावक प्रतीति पवन , परसि पुष्प पात पात ,
जरै तरु गात , डारी डारी मुरिझाई है
जेठ की दुपहरी सखि, पा रही अंग अंग ,
मलय बयार मन मार अलसाई है
तपैं नगर गाँव ,छावं ढूंढ रही शीतल ठावं ,
धरती गगन 'श्याम' आगि सी लगाई है।।


सुनसान गलियाँ वन बाग़ बाज़ार पड़े ,
जीभ को निकाल श्वान हांफते से जारहे
कोई पड़े सी कक्ष कोई लेटे तरु छाँह ,
कोई झलें पंखा कोई कूलर चलारहे |
जब कहीं आवश्यक कार्य से है जाना पड़े ,
पोंछते पसीना तेज कदमों से जारहे
ऐनक लगाए ,श्याम छतरी लिए हैं हाथ,
नर नारी सब ही पसीने से नहा रहे


.टप टप टप टप अंग बहै स्वेद धार ,
जिमि उतरि गिरि श्रृंग जलधार आई है
बहे घाटी मध्य , करि विविध प्रदेश पार,
धार सरिता की जाय, सिन्धु में समाई है
श्याम खुले केश, ढीले ढाले वस्त्र तिय देह,
उमंगें उरोज उर उमंग उमंगाई है
ताप से तपे हैं तन, ताप तपे तन मन,
निरखि नैन नेह, नेह-निर्झर नहाई है

.
छुपे तरु कोटर छाँह , चहकें खग वृन्द ,
सारिका ने शुक से भी चौंच लड़ाई है
बाज कपोत बैठे , एक ही तरु डाल,
मूषक विडाल भूलि बैठे शत्रुताई है
नाग मोर एक ठांव , सिंह मृग एक छाँव ,
धरती मनहूँ तपो भूमि जस सुहाई है
श्याम, गज-ग्राह मिलि, बैठे सरिता के कूल,
जेठ की दुपहरी साधु भाव जग लाई है

.
गली गली गाँव गाँव ,हर मग ठांव ठांव ,
जन जन ,जल, शीतल पेय हैं पिलारहे
कहीं हैं मिष्ठान्न बंटें, कहीं है ठंडाई घुटे,
मीठे जल की भी कोऊ प्याऊ लगवा रहे
राह रोकि हाथ जोरि, ठंडा जल भेंट करि ,
हर तप्त राही को ही ठंडक दिलाराहे
भुवन- भाष्कर धरिकें मार्तंड रूप ,श्याम'
उंच नीच भाव मनों मन के मिटा रहे

सोमवार, 14 जून 2010

बुराई की जड....

प्रत्येक बुराई की जड़ है,
अति सुखाभिलाषा ;
जो ढूंढ ही लेती है
अर्थशास्त्र की नई परिभाषा;
ढूंढ ही लेती है
अर्थ शास्त्रं के नए आयाम ,
और धन आगम-व्यय के
नए नए व्यायाम |
और प्रारम्भ होता है
एक दुश्चक्र, एक कुचक्र -
एक माया बंधन -क्रम उपक्रम द्वारा
समाज के पतन का पयाम |
समन्वय वादी , तथा-
प्राचीन व अर्वाचीन से
नवीन को जोड़े रखकर ,बुने गए-
नए नए तथ्यों , आविष्कारों विचारों से होता है,
समाज-उन्नंत अग्रसर |
पर, सिर्फ सुख अभिलाषा,अति सुखाभिलाषा-
उत्पन्न करती है , दोहन-भयादोहन,
प्रकृति का,समाज का, व्यक्ति का;
समष्टि होने लगती है , उन्मुख
व्यष्टि की ओर;
समाज की मन रूपी पतंग में बांध जाती है-
माया की डोर |
ऊंची , और ऊंची, और ऊंची
उड़ने को विभोर ;
पर अंत में कटती है ,
गिरती है, लुटती है वह डोर-
क्योंकि , अभिलाषा का नहीं है , कोई-
ओर व छोर |

नायकों , महानायकों द्वारा-
बगैर सोचे समझे
सिर्फ पैसे के लिए कार्य करना;
चाहे फिल्म हो या विज्ञापन ;
करदेता है-
जन आचार संहिता का समापन |
क्योंकि इससे उत्पन्न होता है
असत्य का अम्बार,
झूठे सपनों का संसार ;
और उत्पन्न होता है ,
भ्रम,कुतर्क, छल, फरेब, पाखण्ड kaa
विज्ञापन किरदार ,
एक अवास्तविक,असामाजिक संसार |

साहित्य, मनोरंजन व कला-
जब धनाश्रित होजाते हैं;
रोजी रोटी का श्रोत , व-
आजीविका बन जाते हैं ;
यहीं से प्रारम्भ होता है-
लाभ का अर्थ शास्त्र,
लोभ व धन आश्रित अनैतिकता की जड़ का ,
नवीन लोभ-कर्म नीति शास्त्र , या--
अनीति शास्त्र ||


बुधवार, 9 जून 2010

झूँठ पुराण .डा श्याम गुप्त के दोहे ----ब्रज भाषा ....

झूठ पुरान

तेल पाउडर बेचिहें , झूँ ठि बोलि इतरायं ।
बड़े महानायक बनें , मिलहिं लोग हरखायं|

दो करोड़ कौ जूआ, खेलें खेल खिलायं ।
ज्ञान कौं धन ते तौलिकैं ,महिमा ज्ञान नसायं ।

झूठेही पव्लिक मांग कहि, फोटो नग्न खिचांयं ।
बोल्ड सीन देती रहें , हीरोइन बनि जायं ।

झूठे वादे करि सभी, कुरसी लें हथियाय ।
पांच साल भूले रहें , सो नेता कहलायं ।

झूठौ विज्ञापन करें, सबते अच्छौ माल।
देकें गिफ्ट-इनाम बस,ग्राहक कियो हलाल।

चाहें जैसें भी करौ, केस दीजिये आठ ।
तबहि कंपनी देयगी, बोनस तीन सौ साठ।

झूठेई खबरनि ते शुरू , नित्य करम अभिराम।
भ्रमित औ झूठे सीरियल,करें समापन शाम।

झूठौ सब व्योहार है, झूठौ सब बाज़ार।
श्याम झूठ ही झूठ है, झूठौ सब आचार ।

झूठिहि उठिवौ वैठिवौ , झूठ मान सनमान ।
श्याम झूठि सौ अवगुन, बनौ गुनन की खान ।

झूठ काम की लूटि है, लूट सके तौ लूट ।
तू पीछे रहि जाय क्यों,सभी परे हैं टूट।

झूठ बसौ सब जगत में , झूठे सब व्यापार।
या कलिजुग में झूठ ही,सब सुख्खन कौ सार।

श्याम जे कलिजुग रीति है, तुलसी कही प्रतीति।
झूठेही खावौ ओढिवौ, झूठी प्रीति की रीति।

जो कोऊ कहि जाय यह, झूठी ये सब बात।
श्याम ताहि गुरु मानिकें,चरन-धूरि ले माथ॥

मंगलवार, 8 जून 2010

डॉ श्याम गुप्त की कहानी...बारात कौन लाये ..

बारात कौन लाये
( डा श्याम गुप्त )
क्यों पापा ! वह स्वयं बारात लेकर क्यों नहीं जा सकती ? वह स्वयं यहाँ आकर क्यों नहीं रह सकता ? सोचिये , मेरे जाने के बाद आप लोगों का ख्याल कौन रखेगा ? शालू एक साँस में ही सबकुछ कह गयी।
'हाँ बेटा, यह हो सकता है। परन्तु यदि वह लड़का भी परिवार की इकलौती संतान हो तो ?' 'शाश्वत चले आ रहे मुद्दों पर यूंही भावावेश में, या कुछ नया करें , लीक पर क्यों चलें ? की भावना में बहकर , बिना सोचे समझे चलना ठीक नहीं होता; अपितु विशद- विवेचना, हानि-लाभ व दूरगामी प्रभावों,परिणामों पर विचार करके ही निर्णय लेना चाहिए। '
" मुख्य मुद्दा यह नहीं है कि कौन किसके घर रहने जाए, कौन बरात लाये । यदि पति-पत्नी, सुहृद, युक्ति-युक्त विचार वाले, उचित-अनुचित ज्ञान वाले हैं तो दोनों ही स्थितियों में वे एक दूसरे के परिवार वालों , माँ -बाप का सम्मान करंगे और परिवार जुड़ेंगे। समस्याएं नहीं रहेंगीं । शाश्वत बात वही है कि व्यक्ति मात्र को अच्छा ,न्याय एवं सत्य कानिर्वाह करने वाला होना चाहिए। " शालू के पिता पुनः कहने लगे, ' नियम, व्यक्ति सामाजिक सुरक्षा के लिए होते हैं कि व्यक्ति नियम के लिए '
" और प्रथाएंपरिपाटी ", शालू ने पूछा।
सतीश जी ने बताया, 'बेटा !, परिपाटी, नीति, नियम,क़ानून, प्रथाएं, आस्थाएं आदि व्यक्ति मात्र के सुख-सुविधा के लिए होते हैं , किसी व्यक्ति विशेष या समूह, जाति, वर्ग या धर्म विशेष के लिए नहीं। यही मानवता, सामाजिकता, सार्वभौमिकता व धर्म है। अन्यथा आज जैसी सामाजिक विभ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है जिसके चलते यह प्रश्न खडा हुआ है । '
परन्तु, पापा! यदि नवीन व्यवस्था को अपना कर देखें तो क्या हानि है ?
'कुछ नहीं ' , सतीश जी बोले ,' अन्यथा समाज आगे कैसे बढेगा ? परन्तु बेटी ! पहले इतिहास को भी तो देख लेना चाहिए। इतिहास भी तो नव प्रयोग ही है इस देश में स्त्री- सत्तामक समाज का इतिहास रहा है। आज भी प्राचीन कबीलों में वह समाज है , जिसमें पति, पत्नी के घर जाकर रहता है । परन्तु उस व्यवस्था में पति को घर में स्थित पत्नी को सक्रिय भूमिका निभानी पड़ती है; अर्थात दूसरे घर-परिवार से आने वाले प्राणी (पति या पत्नी) को घर में रहकर कार्यकर्ता की भूमिका निभानी होगी जबतक वह नई परिस्थितियों से तदाकार नहीं होजाता। घर वालों को भी चाहिए कि वे उस पर पूर्ण विश्वास व्यक्त करें , अपना समझें व सबकुछ उसके संज्ञान में लाकर कार्य करें ताकि वह शीघ्रातिशीघ्र घर का अंग बन सके। '
'पर मैं तो सभी कार्य कर सकती हूँ, इसीलिये तो आपने पढ़ाया है, लिखाया है। और आजकल तो शिक्षा के प्रचार-प्रसार से सभी घरों में लगभग सामान परिस्थितियाँ होतीं हैं। ', शालू बोली।
हाँ, ठीक है, सतीश जी सोचते हुए बोले, 'आज स्त्री पहले की भांति घर में सीमित न रहकर, पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहती है ; ताकि उसकी अज्ञानता लाचारी से उस पर अत्याचार नहो कर्तव्यों व अधिकारों की अज्ञानता ही तो अत्याचार, अनाचार व अन्याय की जड़ होती है ; जिसका प्रतिकार त्रेता युग में राम-सीता व द्वापर में, राधा-कृष्ण ने किया था। आज पुनः वही स्थिति है, और प्रतिकार करना ही होगा, क्योंकि शिक्षा के तमाम प्रचार-प्रसार के उपरांत भी हमारे समाज में कुरीतियाँ व अनीतियाँ पैर पसारे पडीं हैं। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि स्त्री-पुरुष एक दूसरे के अधिकारों को चुनौती दें । आपकी स्वतन्त्रता तभी तक है जब तक आप दूसरों कीस्वतन्त्रता अधिकारों का हनन नहीं करते। '
' क्या इसमें पुरुष का अहं आड़े नहीं आयेगा ' शालू ने प्रश्न किया।
'अवश्य', पुरुष का यह संस्कारगत अहं ही तो है जो सदियों की रूढ़ियों व प्रथाओं से उत्पन्न हुआ है और समस्याएं उत्पन्न करता है । यह अहं स्त्रियों में भी होता है । हाँ मूलतः यह प्रथाओं आदि अयुक्तिपूर्ण विश्लेषण से होता है। परन्तु उत्तम चरित्र-संस्कार युत स्त्री-पुरुष इस अहं को समुचित ज्ञान , वस्तुस्थिति व युक्ति-युक्त विचार भाव से शमन करते रहते हैं। '
' ये क्या व्यर्थ के प्रशन -उत्तर सिखाये समझाये जारहे हैं लड़की को । बेटियाँ तो सदा ही पति के घर जाती हैं ।'. सतीश जी की पत्नी अनुराधा ने व्यवधान डालते हुए कहा ।
सतीश जी हंसते हुए बोले। 'तुम भी सुनलो , वास्तव में प्रारंभिक अवस्था में तो ये प्रश्न थे ही नहीं। जब समाज विकसित हु, अर्थव्यवस्था अन्योन्याश्रित हुई , घर से दूर जाकर कार्य करना आवश्यक हुआ तो संतान-परिवार की सुरक्षा-पालन हेतु एक प्राणी को घर पर रहना अनिवार्य लगा । चूंकि स्त्री प्राकृतिक रूप से कम बलशाली व संतानोत्पत्ति के समय अक्रियाशील होती है अतः उसने स्वेछा से घर का कार्य संभालने का निर्णय लिया और पत्नी बनकर पतिगृह आकर रहने लगी, और परिवार बना । जब मानव घुमंतू स्वभाव छोड़कर स्थिर हुआ तो परिवार, दाम्पत्य, राजनीति, संपत्ति, स्वामित्व के प्रश्न उठने लगे । तब संतान व स्त्री को पिता व पति की अनुगामी बनाकर पितृ-सत्तात्मक समाज की रचना हुई, जिसमें पुत्र पिता की संपत्ति में व स्त्री किसी की पत्नी बनकर पति की संपत्ति के भोग की अधिकारी बनती है , और व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहती है । चक्रीय व्यवस्थानुसार सभी लड़कियां किसी न किसी संपत्ति की अधिकारिणी रहतीं हैं। तब समाज के व्यापक हित में 'कन्यादान' 'पाणिग्रहण ' आदि संस्कारों की प्रामाणिक व्यवस्था स्थापित हुई। '
परन्तु पापा !, 'फिर ये दहेज़ स्त्री प्रतारणा जैसी कुप्रथाओं से आज यह सामाजिक अशांति क्यों है ? उसका क्या किया जाय ?'
' अशांति व अव्यवस्था तभी उत्पन्न होती है', सतीश जी ने कहा, 'जब परिवार, व्यक्ति , समूह विशेष या
समाज ; लालच, लोभ , मोह व अज्ञानता के वशीभूत होकर विकृत व्यवहार करते हैं ; अथवा अज्ञान या स्वार्थ वश वस्तु स्थिति को पूर्ण रूप से जाने बिना व्यवस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है। वस्तुतः सत्य तो यही है कि मनुष्य मात्र को ही सच्चरित्र , सत्यपर चलने वाला, युक्ति-युक्त व्यवहार वाला व दूसरों का आदर करने वाला होना चाहिए ।
अतः बेटी !, व्यक्ति समाज के भूत, भविष्य वर्त्तमान पर विशद विमर्श करके जो उचित लगे वही करोइसके लिए सोचो, विचारों, चिंतन -मनन करो तभी निर्णय लोदुविधाओं में परामर्श के लिए हम हैं ही