....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
“ बच्चों के लिए मेजिक-शो रख लेते हैं, वे विजी रहेंगे, शैतानी नहीं करेंगे, माँ- बाप के साथ लटके नहीं रहेंगे, खूब एन्जॉय भी करेंगे |” निलेश ने पार्टी-प्रवंधन की चर्चा के
दौरान कहा |
‘क्यों? बच्चों को भी माँ-बाप के साथ एन्जॉय करने दो न |’ रमेश जी ने कहा |
‘नहीं, पापा, बढ़ा डिस्टर्ब होता है |’ सुरभि ने कहा |
‘क्या डिस्टर्ब होता है ? पार्टी में क्या आप लोग आफीशियल मीटिंग करते हैं ?’ रमेश जी ने प्रश्न किया |
‘पर अच्छा रहता है, सभी अच्छी तरह एन्जॉय कर पाते हैं’ , निलेश बोला |
रमेश जी सोचने लगे, ‘क्या यह वास्तव में एक अच्छा ट्रेंड है ?’ उन्होंने स्वयं से ही प्रश्न किया | प्रारंभ से ही बच्चों को अलग रखने का भाव...लगता है माँ-बाप बच्चों को बोझ समझते हैं | अपने उठने बैठने की, खाने-पीने की, गप-शाप करने की स्वतन्त्रता में बाधा | क्या बच्चे यह महसूस नहीं करते होंगे ! क्या वे यह जानने को उत्सुक नहीं रहते होंगे कि उनके माता-पिता क्या कर रहे हैं, कैसे उठ-बैठ रहे हैं,..शायद अवश्य | परन्तु उसी प्रक्रिया को बार बार घटित होते देखकर, वही बच्चा-कंपनी को अलग-थलग रखे जाने वाले ट्रेंड को सभी को अपनाते देख, वही उनके लिए भी एक सामान्य भाव बन् जाता है और फिर बच्चे भी माता-पिता से स्वतन्त्रता चाहने लगते हैं, उनके साथ नहीं रहना-जाना चाहते |
रमेश जी बोले,’ परन्तु क्या यह आदर्श स्थिति है ...शायद नहीं |’ वे कहने लगे – हमारे बचपन में तो माता-पिता हम सब भाई-बहनों को हर जगह, मेले, शादी-विवाह, पारिवारिक या मित्रों की पार्टी –सभी जगह अपने साथ ही रखते थे | सारे मित्र, परिजन, पडौसी मिलते ही कुशल-क्षेम के साथ बच्चों के बारे में भी पूछते व उनसे वार्तालाप करते थे | शिक्षा व अन्य कलापों के बारे में जानकारी लेते व मंगल कामनाएं एवं आशीर्वाद देते थे |
वे कहते गए ..इस प्रकार बच्चों का अपने परिवार, समाज, संस्कृति के अनुसार उठना-बैठना, अनुशासन, रीति-रिवाज़ आदि के बारे में प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त होता रहता था | बड़ों से, छोटों से, साथ वालों से आदरणीयों व अभिभावकों से व सभी से उचित व्यवहार, यथा-योग्य संवाद करने का उचित तरीका व भाव सिखाने की प्राथमिक शालाएं होती थीं ये सब बातें व क्रिया-कलाप | साथ ही साथ परिजनों, प्रियजनों व स्वयं माता-पिता के प्रति आदरभाव की उत्पत्ति भी होती थी और श्रृद्धा की भी | यद्यपि किशोर होते होते बच्चे स्वयं ही अपनी दुनिया बनाने लगते थे, स्वाभाविक तौर पर, परन्तु तब तक उनमें पारिवारिक, सामाजिक व राष्ट्रीय भाव बन् चुके होते थे जो संस्कार रूप में जीवन भर मार्ग दर्शन करते थे | एक बात यह भी है कि इसी कारण बच्चों के साथ होने से प्रौढ़ व युवा माता-पिता भी अनर्गल बातें व व्यवहार से बचे रहते थे, और समाज में द्वेष-द्वंद्व कम होने की परम्परा बनती थी |
हो सकता है, परन्तु आज पाश्चात्य प्रभाव वश, प्रारम्भ से ही बच्चों को पृथक बिस्तर पर सुलाना, अलग कमरा, सब कुछ उनका निजी, अलग.. | पार्टी, शादी, क्लब, जलसों में भी बच्चा पार्टी अलग | यह अलगाव निश्चय ही एक उन्मुक्तता, स्वच्छंद-भाव बच्चों में उत्पन्न करता है | प्रारम्भ से ही निजता, परिजनों से अलगाव, और परिणामी अहमन्यता व पारिवारिक-सामाजिक मोह –लगाव की समाप्ति | प्रेम डोर बन् ही नहीं पाती | आज विभिन्न बाल -किशोर- युवा द्वंद्वों , उच्छ्रन्खलता, अनुशासन हीनता का यही कारण है | अलगाव के भाव-रूप द्वारा पारिवारिक सान्निध्यता, आत्मीयता, मोह का भाव पनप ही नहीं पाता | बच्चा माता-पिता के शरीर व सान्निध्य के स्नेहताप, उनके सान्निध्य की बौद्धिक क्षमता, अनुभव व ज्ञान की तेजस्विता के स्नेहिल भाव को प्राप्त ही नहीं कर पाता | परिणाम स्वरुप बच्चे माता-पिता को सिर्फ आवश्यकता पूर्ति का साधन मात्र समझने लगते हैं | वे माता-पिता, अभिभावकों की बातें सुनने-मानने की अपेक्षा अपने मित्रों व अन्य लोगों से, टीवी, कमर्सिअल्स, सिनेमा, हीरो-हीरोइनों से, विदेशी संस्कृतिपरक मारधाड –खून खराबा वाले वीडियो गेम्स से सीखता है
जो प्राय: मूलतः अप-संस्कृति के वाहक होते हैं | वे तमाम जानने –न जानने योग्य विषयों, तथ्यों की जानकारी तो देते हैं परन्तु उनकी तार्किक उपयुक्तता व अच्छाई-बुराई के तथ्यों की प्रामाणिकता नहीं जो बच्चों के मानस में अनिश्चितता व भ्रम की स्थिति उत्पन्न करती है एवं आगे के जीवन में द्वंद्वों का कारण बनती है |
सही है, समझौते तो करने ही पड़ते हैं; रमेश जी बोले, “पर किस का पलडा भारी है यह देखना भी आवश्यक है | अपनी उन्नति, भौतिक प्रगति का या अपने मनोरंजन या फिर संतति को उचित दिशा निर्देशन द्वारा समाज, संस्कृति, देश ,राष्ट्र व मानवता के सर्वांगीण उत्थान का |”