ब्लॉग आर्काइव

डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

मेरी फ़ोटो
Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

सोमवार, 27 जुलाई 2009

गीत--दर्द ,गीत बन गये।

दर्द बहुत थे,
भुला दिये सब;
भूल न पाये,
वे बह निकले,
कविता बनकर।

दर्द जो गहरे,
नहीं बह सके;
उठे भाव बन
गहराई से
वे दिल की
अनुभूति बन गये।

दर्द मेरे ,
मनमीत बन गये;
यूं मेरे नव-गीत बन गये।

भावुक मन की
विविधाओं की-
बन सुगन्ध वे,
छंद बने, फ़िर-
सुर लय बनकर,
गीत बन गये।

भूली-बिसरी,
यादों के, उन-
मन्द समीरण की
थपकी से,
ताल बने,
सन्गीत बन गये।

दर्द मेरे ,
मन मीत बन गये;
यूं मेरे नव गीत बन गये॥---क्रमशः

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

सूर्य ग्रहण --यह मेला -वह मेला,,धार्मिक अंधविश्वास -वैज्ञानिक अंधविश्वास ,कितना अन्तर ,क्या अन्तर ?

सूर्य ग्रहण पर एक तरफ़ तो नदियों ,तालावों ,मंदिरों ,पूजाघरों में मेले लगे ;दूसरी तरफ़ चश्मे लेलेकर जगह जगह ग्रहण देखने की उत्सुकता में वैज्ञानिक केन्द्रों तमाम शहरों ,वायुयानों आदि में मेले लगे |कहा है-"उत्सव प्रियः मानवाः "- दोनों तरह के मेलों में क्या अन्तर है?इस तरह से भी विचार कीजिये---
१- भीड़ दोनों ही जगह एकत्र हुई ,स्नान वालों की भीड़ -सोद्देश्य ,पर दुःख में दुखी ( परमार्थी भाव ), परार्थ भाव से,उत्तम भाव से एकत्र हुई । क्यूंकि ज्योतिष के अनुसार राहू सूर्य को ग्रषित करके कष्ट देता है ,अतः दान पुन्य करना चाहिए । बस समाज के लिए एक बहाना है गरीवों ,निचले तबकों पर दया व सद्भाव ,सामाजिक स्वीकृति दिखाने का ,उनके अर्थ लाभ का । मानवता वादी प्रवृत्ति है|
सिर्फ़ विज्ञान भाव से ग्रहणदेखने वालों की भीड़ -आर्श्चय,कौतूहल,मनोरंजन,हम भी की प्रतियोगिता, धन (टिकट)का दिखावा ,सिर्फ़ अपना स्वयं के ज्ञान ,जानकारी ,अर्थात सिर्फ़ अपने लिए एकत्र हुए थे ,क्योंकि वह सिर्फ़ एक घटना मात्र थी ,चन्द्रमा की छाया ,कहीं कोई सुख-दुःख या परार्थ भाव नहीं सिर्फ़ "में " और अहम् को जन्म देता भाव ।

२-- स्नान वाले लोगों के मेले से स्थानीय लोगों को ही आर्थिक लाभ हुआ एवं जनता का अपना अपना धन सोद्देश्य खर्च हुआ ,जबकि सिर्फ़ कौतुहलवश एकत्र मेले में सरकारी धन खर्च हुआ व कुछ स्थानीय जन के लाभ के साथ विमान कंपनिया ,चश्मे की कंपनियाँ आदि धन्ना सेठों का , टी वी ,विज्ञापन आदि का धंधा हुआ एवं तमाम जनता का हफ्तों से समय व धन बरबाद हुआ |
३- जिन्होंने देखा उन्हें क्या मूल लाभ हुआ,क्या तीर मार लिया , जिन्होंने न देखा उन्हें क्या हानि हुई ?क्या ये वैज्ञानिक अंधविश्वास नहीं है ?

४-धार्मिक विश्वास (तथाकथित अंध विश्वास) ग्रहण देखने को मना करता है, विज्ञान भी नंगी आँखों से देखने को मना करता है , क्या अन्तर है ,तब चश्मे नहीं होते थे।
५- ज्योतिष , धार्मिक मान्यता के अनुसार ,सूर्य को राहू ग्रषित करता है,राहू व केतु छाया ग्रह माने जाते हैं ,अतः होसकता है छाया को ही राहू व केतु कहा गया हो ,भाव रूप में जैसा कि भारतीय तरीका है कथन का,रहू व केतु के पौराणिक प्रकरण में चन्द्रमा की ही प्रमुख भूमिका थी । विज्ञान के अनुसार भी तो चन्द्रमा की छाया सूर्य को ग्रषित करती है। दोनों ग्रहणों में चन्द्रमा की प्रमुख भूमिका होती है। ---क्या अन्तर है।

६-वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य के ढँक जाने पर रेडिएशन कम होजाते हैं , यह भी सोचें ,चन्द्रमा से रेडिएशन रूक जाते हैं व एकत्र होजाते हैं तथा हटने पर सभी एक साथ अधिक मात्रा में प्रथ्वी पर आते हैं , इसीलिए जल से शरीर व स्थानों को प्रक्षालन किया जाता है, खाना नहीं बनाया जाता आदि।
७।ग्रहण में पशु पक्षियों का व्यवहार सदियों से जन-जन को पता है ,विज्ञान अभी नया-नया है अतः प्रयोग कर रहा है।

क्या अन्तर है इस मेले में उस मेले में | पुराना भारतीय ज्ञान अन्धाविवास ,नया अंधविश्वास विज्ञान !!!

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

श्रृष्टि व जीवन -भाग ६ --मानव -वैदिक विज्ञान का मत

पिछली पोस्ट भाग - ५ में जीव,जीवन,बृद्धि, लिंग चयन स्वचालित मैथुन प्रक्रिया कैसे प्रारम्भ हुई इस पर आधुनिक विज्ञान का मत व्याख्यायित किया था। इस अंक में वैदिक विज्ञान का मत प्रस्तुत किया जारहा है|
ब्रह्मा ने समस्त प्राणियों ,देव,असुर,वनस्पति के साथ ही मानव का निर्माण किया ,यह सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति थी जिसे सभी पुरुषार्थ ,धर्म,अर्थ,काम व मोक्ष ) के योग्य पाया गया |यह क्रम इस प्रकार था-
----अ.मानस सृष्टि
----बी.संकल्प सृष्टि
----स.काम संकल्प सृष्टि
----द .मैथुनी (माहेश्वरी )प्रजा
१. सर्वप्रथम ब्रह्मा ने -सनक,सनंदन ,सनातन व सनत्कुमार --चार मानस पुत्र बनाए ,जो योग साधना हेतु रम गए।

२- पुनःसंकल्प से नारद,भृगु,कर्म,प्रचेतस,पुलह,अन्गिरिसि,क्रतु,पुलस्त्य,अत्री,मरीचि --१० प्रजापति बनाए
३.-पुनः संकल्प द्वारा पुत्र- भृगु ,मरीचि,पुलस्त्य,angira ,क्रतु,अत्रि,vashishth ,daksh ,पुलह एवं पुत्रियाँ --ख्याति,भूति ,सम्भूति,प्रीति,क्षमा प्रसूति आदि उत्पन्न कीं |
यद्यपि ये सब संकल्प द्वारा संतति प्रवृत्त थे परन्तु कोई निश्चित ,सतत ,स्वचालित प्रक्रिया क्रम नहीं था ( सब एकान्गी थे--प्राणियों व वनस्पतियों में भी ), अतः ब्रह्मा का सृष्टि क्रम व कार्य समाप्त नही हो paa rahaa था | ३-ब्रह्मा ने पुनः prabhu का स्मरण किया, तब अर्ध नारीश्वर( द्विलिन्गी) रूप ,में रुद्र देव जो शम्भु महेश्वर व माया का सम्मिलित रूप था,प्रकट हुए। जिसने स्वयम को --क्रूर-सौम्या; शान्त-अशान्त;श्यामा-गौरी;शीला-अशीला आदि ११ नारी भाव एवम ११ पुरुष भावों में विभक्त किया।रुद्रदेव के ये सभी ११-११ स्त्री-पुरुश भाव सभी जीवों में समाहित हुए,इस प्रकार काम श्रिष्टि का प्रादुर्भाव हुआ।
४- ब्रह्मा ने स्वयम के दायें-बायें भाग से मनु व शतरूपा को प्रकट किया,जिनमे रुद्रदेव के ११-११ नर नारी भाव समाहित होने से वे प्रथम मानव युगल हुए। वे मानस,सन्कल्प व काम सन्कल्प विधियों से सन्तति उत्पत्ति में प्रव्रत्त थे ,परन्तु अभी भी पूर्ण स्वचालित प्रक्रिया नहीं थी
५- पुनः ब्रह्मा ने मनु की काम सन्कल्प पुत्रियांआकूति व प्रसूति-को दक्ष को दिया।दक्ष को मानस श्रिष्टि फ़लित नहीं थी अतः उसने काम-सम्भोग प्रक्रिया से ५००० व १०००० पुत्र उत्पन्न किये ,परन्तु सब नारद के उपदेश से तपश्या को चले गये ।दक्ष ने नारद को सदा घूमते रहने का श्राप देदिया।
६।-पुनः दक्ष नेप्रसूति के गर्भ से -सम्भोग ,मैथुन जन्य प्रक्रिया से ६० पुत्रिओं को जन्म दिया,जिन्हें सोम,अन्गिरा,धर्म,कश्यप व अरिष्ट्नमि आदि रिशियों को दिया गया ,जिनसे मैथुनी क्रिया द्वारा,सन्तति से आगे स्वतः क्रमिक श्रष्टि क्रम चला,व चलरहा है। अतः दक्ष से वास्तविक श्रष्टि क्रम माना जाता है।
-- प्रथम मैथुनी क्रम प्रसूति से चला अतः गर्भाधान को प्रसूति एवन जन्म को प्रसव कहा जाता है।
- - शम्भु महेश्वर, इस लिन्गीय चयन व निर्धारण व काम-सम्भोग स्वतः उत्पत्ति प्रणाली के मूल हैं अतः इस श्रष्टि को "माहेश्वरी प्रज़ा या श्रष्टि " कहाजाता है। भला जबतक नारी भाव की उत्पत्ति न होती स्वतः श्रष्टि क्रम कैसे पूरा हो सकता था??
इस प्रकार ब्रह्मा का स्रष्टि क्रम सम्पूर्ण हुआ।

शनिवार, 18 जुलाई 2009

ग्यान, विग्यान व ज्योतिष- विग्यान है या नहीं?

पिछले दिनों ’साइन्स ब्लोगेर असोसिएसन’ पर ज्योतिष विग्यान है या नहीं- पर बहुत लम्बी चौडी बहस हुई ,बिना परिणाम के।----
----बस्तुतः एक परिभाषा के अनुसार,--जो विभु( द्रश्य पदार्थ,प्रक्रति) का विश्लेषण करते करते लघु( अणु) तक पहुंचेतथा रास्ते में प्राप्त जान्कारियों व परिणामी जानकारियों को मानव के भौतिक सुख साधन हेतु उपयोग करे वह विग्यान है, एवम जो लघु( अणु- आत्मा, ब्रह्म,जीव ,माया) की व्याख्या करते करते विभु( महान- ईश्वर,प्रक्रति,जीव) तक पहुंचे तथा इस जानकारी को मानव के आचरण की उन्नति हेतु उपयग करे वह ग्यान( दर्शन,ब्रह्म ग्यान आदि) है।
उपनिषद के अनुसार ईश्वर, जीव,स्रष्टि,माया के बारे में जानना ग्यान,बाकी सन्सार के बारे में जानना-अग्यान है। विग्यान का अर्थ है विशिष्ट ग्यान,विशेष वस्तु के बारे में विशेष ग्यान। क्योंकि ज्योतिष ,ज्योति पिन्डों(नक्षत्रों आदि द्रश्य पिन्ड) के बारे में विशेष ग्यान है अतः सभी अग्यान श्रेणियों के अन्तर्गत वह भी विग्यान ही है। बहस यह होनीचाहिये कि वह कितना उपयोगी है,जीवन के लिये।

-----ग्यान,अग्यान,विग्यान ,धर्म,दर्शन के तात्विक विश्लेषण हम अपने अन्य ब्लोग--http://vijaanaati-vijaanaati-science.blogspot.com पर करेंगे।

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

अकाल व सूखा की स्थिति ---

आज सूखा अकाल की स्थिति है , इस विषय पर उसकेव्यवहारिक कारण निवारण पर एक सामाजिक शास्त्रीय पक्ष प्रस्तुत है , जो आज के परिप्रेक्ष्य में भी समीचीन है ---विवेचनार्थ --लक्ष्मण जब भगवान राम से अयोध्या के प्रबंधन की चिंता के साथ ,शासकों के गुणावगुण जानने की इक्षा करते हैं तो ,वे सीताजी द्वारा उनकी चिंता दूर कराते है----
समय विनती कर लक्ष्मण ,
बोले रघुबर से ,हे भ्राता !
शंका एक निवारण करदें ;
पिता हमारे राजा दशरथ ,
थे सम्राट चक्रवर्ती
वे,
वेद विधान नीति पारंगत

वह सब भार भरत पर है अब,
कैसे वे कर रहे व्यवस्था ?
क्या व्यवहार सुधी नृप के हों ,
दुष्ट नृपों के विचार कैसे ;
राघव भेद सहित समझाएं ,
हर्षे रघुपति वाणी सुनकर



राज्यश्री धरती माँ सम है ,
बोले राम सभी के उत्तर ;
कहें जानकी यही उचित है
सिय बोलीं ,योग्य भूप पाकर ,
माता धरती हर्षित होतीं ;
उर्वरा शक्ति करतीं ,प्रकटित |


धन -धान्य श्री पुष्पित होकर ,
प्रकृति भी मुस्काने लगती ;
बर्षा बसंत सब ऋतुएँ भी ,
हैं उचित समय आतीं जातीं
सब प्रजा सुखी सम्पन्न हुई ,

राजा की जय गाती रहती

भूप, जो प्रजा के पालन में ,
पिता समान भाव दिखलाता ;
सबमें निज सुख दुःख भाव किए ,
विविध विधान धर्म अपनाता ;
लघुतम से लघुतम प्राणी का ,
न्याय धर्म युत रखता ध्यान॥


प्रजा स्वयं भी प्रेम भाव की ,
सुर-सरिता में बहती रहती ,
सब परमार्थ भाव रत रहते।
नारी का अपमान होता,

चोरी ठगी अधर्म भाव का,
सपने में भी ध्यान
आता

अश्लील साहित्य कर्म का ,
लेश मात्र भी जिक्र होता ;
नारि- पुरूष सब उचित आचरण ,
सात्विक कर्म धर्म अपनाते ;
जन, निर्भय आनंदित रहता॥


देश की रक्षा ,संस्कृति रक्षण ,
तथा प्रजा के व्यापक हित में ,
अधर्मियों से,विधर्मियों से,
अन्यायी लोलुप जन जो हों ;
कभी नहीं समझौता करता
वही नृपति अच्छा शासक है


पर जो शासक ,निज सुख के हित,
अत्याचार प्रजा पर करता ;
अधर्म मय, अन्याय कर्म से ;
अपराधों को प्रश्रय देता
अप विचार अप कर्म भाव में ,
जन-जन पाप लिप्त होजाता॥


हिंसा चोरी अनृत भावना ,
नर-नारी को भाने लगती;
अश्लील कृत्यों से नारी ,
अपने को कृत कृत्य समझती
लूट ,अपहरण बलात्कार के,
विविध रूप अपनाए जाते॥


अति भौतिक सुख लिप्त हुए नर,
मद्य - पान आदिक विषयों रत ;
कपट झूठ छल और दुष्टता ,
के भावों को प्रश्रय देते ;
भ्रष्टाचार , आतंकबाद में ,

राष्ट्र, समाज लिप्त होजाता

पाप अधर्म -नीति कृत्यों से ,
प्रकृति माता विचलित होती;
अनावृष्टि ,अतिवृष्टि आदि से ,
धरती की उर्वरता घटती,
कमी धान्य-धन की होने से ,
बनती है अकाल की स्थिति

नीतिवान धर्मग्य भरत हैं ,
साथ सभी को लेकर चलते ;
रक्षा-हित तत्पर हैं ,शत्रुहन ,
प्रजा सुखी ,संतृप्त रहेगी ;
सुखद समर्थ प्रवंधन होगा,
चिंता की कुछ बात नहीं है -----
शूर्पनखा ,काव्य-उपन्यास से

बुधवार, 15 जुलाई 2009

आस्था, धर्म, नैतिकता व ईश्वर----

आस्था,धर्म, ईश्वर व नैतिकता के बारे में पढें एक वैग्यानिक शोध्र पूर्ण
आलेख---हिन्दुस्तान दैनिक में जावेद कलीम की रिपोर्ट---
एवम--दार्शनिक सारांश----

यदि मानव खुद ही कर्ता है,
और स्वयम ही भाग्य विधाता।
इसी सोच का यदि पोषण हो,
अहं भाव जाग्रत हो जाता ।
मानव सम्भ्रम में घिर जाता,
और पतन की राह यही है ॥

पर ईश्वर है जगत नियन्ता,
कूई है अपने ऊपर भी ।
रहे तिरोहित अहं भव सब,
सत्व गुणों से युत हो मानव;
सत्यं शिवं भाव अपनाता,
सारा जग सुन्दर हो जाता ॥
-----------------------(स्रष्टि महा काव्य से )

रविवार, 12 जुलाई 2009

गीत-- वे दो पल.....

राह में दो पल साथ तुम्हारे,बीते उनको ढूंढ रहा हूं।
पल में सारा जीवन जीकर,फ़िर वो जीवन ढूंढ रहा हूं।

उन दो पल के साथ ने मेरा,सारा जीवन बदल दिया था।
नाम पता कुछ पास नहींपर,हर पल तुमको ढूंढ रहा हूं।

तेरी चपल सुहानी बातें, मेरे मन की रीति बन गईं ।
तेरे सुमधुर स्वर की सरगम,जीवन का सन्गीत बन गई।

तुम दो पल जो साथ चल लिये,जीवन की इस कठिन डगर में।
मूक साक्षी बनीं जो राहें, उन राहों को ढूंढ रहा हूं।

पल दो पल में जाने कितनीं जीवन जग की बात होगईं
हम तो चुप चुप ही बैठे थे, बात बात में बात होगईं।

कैसे पहचानूंगा तुमको,मुलाकात यदि कभी होगई ।
तिरछी चितवन और तेरा मुस्काता आनन ढूंढ रहा हूं।

मेरे गीतों को सुनकर, तेरा वो वंदन ढूंढ रहा हूं ।
चलते चलते तेरा वो प्यारा अभिनन्दन ढूंढ रहा हूं।



बुधवार, 8 जुलाई 2009

श्रिष्टि व जीवन् ---भाग्-५--जीवन्,जीव् व मानव्

अभी तक् आप् सबने श्रिष्टि .....इतने विशद् रूप् में पढा, शायद् हैरान्-परेशान् भी होंगे? वास्तव् में तो यह् वर्णन् भी सन्क्षिप्त् था। वेदिक् विग्यान् में यह् मूल् विषय् अत्यन्त् व्याख्या से दिया है और् आधुनिक् विग्यान् अभी वहां तक् नहीं पहुंचा । इस् अन्क् में हम् इस् विषय् के सबसे महत्व् पूर्ण् तत्व् पर् आधुनिक् विग्यान् सम्मत् वर्णन् प्रस्तुत् करेंगे,जो अब् तक् की व्याख्या का परिणामी -फ़ल् है, यथा---
१.जीवन् कैसे आरम्भ् हुआ?
२.जीव् में गति, आकार्-वर्धन् व सन्तति वर्धन्(रीप्रोडक्सन्)कैसे प्रारम्भ् हुआ।
३.लिन्ग्-भिन्नताभाव् ( सेक्सुअल्-सिलेक्सन्)कैसे हुआ?
४.सन्तति वर्धन् की लिन्गीय् स्वतः स्वचालित् प्रक्रिया कैसेप्रारम्भ् हुई? (से़क्सुअल् ओटोमेशन् फ़र् रीप्रोडक्सन्)
५ प्राणी व मानव् का विकास्-क्रम्
---आधुनिक् विग्यान् ,मूलतः--डार्विन् की थेओरी ( चार्ल्स् डार्विन्१२-२-१८०९---१९-४-१८८२ई)--ओरीजिन् ओफ़् स्पेसीज्(१८५९) पर् केन्द्रित् है। यध्यपि आज् केवल् ३९% अमेरिकी ही इस् सिद्धान्त् पर् विश्वास् करते हैं। वस्तुतः डार्विन् की थेयोरी कोई अपनी नई खोज् नहीं थी अपितु,प्राचीन् ग्रीक्र धारणा, अरस्तू, लेओनार्दो-दा विन्सी,अल्फ़्रेड् रसेल् आदि के दार्शनिक् विचारों की पुष्टि ही थी। वस्तुतः विग्यान् ,दर्शन् से ही प्रारम्भ् होता है।
गीक् दार्शनिक् --एनाक्सीमेन्डर् ने (ई.पू.६१० से ५४६ ई.पू.) बताया था कि जीवन् जल् की नमी से, सर्व् प्रथम् जल् में हुआ,फ़िर् सिम्प्ल(सरल्) से कम्पलेक्स्(जटिल्)प्राणी, मछली व इस् प्रकार् मानव् बना।, ब्रह्मान्ड्( यह् शब्द् वेदिक् देन् है )एक् प्रारम्भिक् अन्ड्(प्राइमोर्डिअल् ऊज़्- कोस्मोस्) से बना।अरस्तू के अनुसार् प्राणी रोक्,अर्थात् कण् (एटम्) से बना ।इसी दर्शन् को डार्विन् ने प्रयोगों, अनुभवों द्वारा अपनी थेओरी का आधार् बनाया।वस्तुतः ये प्राचीन् दर्शन् वैग्यानिक्,मानवतावादी व अनीश्वर्वादी थे।(वैदिक् दर्शन्-वैग्यानिक्, मानववादी के साथ्-साथ् ईश्वर् वादी व समाज्वादी दर्शन् है)
। वह् तोबाद् में कठोर् ईश्वर्वादी धर्मों-- क्रिष्चिअन् व इस्लाम् में सब् कुछ् गोड् व खुदा द्वारा ६या ७ दिन् में बनाया गया बताया है। जो इवोल्यूसन् में विश्वास् नहीं रख्ते थे।
१. जीवन् का प्रारम्भ्---आधुनिक् विग्यान् केये मत् हैं--
-------अ.-उल्काओं की वर्षा या धूम्रकेतु के साथ् वहं से जीवन् प्रथ्वी पर् जल्, महासागरों में आया \
--------ब्.-उल्का या धूम्रकेतु आदि के जल् में गिरने पर् तीब्र् ताप् आदि की प्रतिक्रियाओं से उपस्थित् कणॊं में जीवन् की उत्पत्ति हुई।
--------स्. -१९५० ई में-अमेरिकन् केमिस्ट् एवम् बायोलोजिस्ट् ,स्टेनले लायड् मिलर्( मार्च्७,१९३०--मई२०,२००७) तथा यूरे ने प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया कि अकार्बनिक् पदार्थ् से सामान्य् भौतिक् प्रक्रियाओं से कार्वनिक्( जैविक्) यौगिक् बनये जा सकते हैं। जैसे इस् समय् ज्युपिटर् (ब्रहस्पति) पर् अमोनिया ,हाइड्रोजन व मीथेन् है ,वैसे ही प्रथ्वी पर् प्रारम्भ् में थीं। उन्होंने तीनों गेसों के मिश्रण् में जल् वष्प की उपस्थिति में विध्युत् ऊर्जा पास् की ओर् एक् भूरे रन्ग् का अमीनो एसिड् सा पदार्थ् बना, जो न्यूक्लिअक् एसिड्बनाने में अहम् भूमिका निभाता है।ओर् प्रत्येक् जीव् कोशिका का मुख्य् भाग् है। मिल्लर् के अनुसार् प्रथ्वी पर् प्रथम् जीवन् उत्पत्ति का यह् कारण् हो सकता है। अर्थात् सब् कुछ् आकस्मिक् व संयोग् से हुआ।
इस् प्रकार् प्रथम् जीवन् जो एक् जीवाण्(बेक्टीरिया) के रूप् में आया जो आज् भी वनस्पति जगत व प्राणि जगत् दोनों में माना जाता है, जिससे एक् कोशीय् प्राणी( अमीवा) व एक् कोशीय् पौधे(स्पाइरोगाइरा,यूलोथ्रिक्स् आदि) फ़िर् क्रमश्ः वनस्पति व प्राणी व मानव् वने
२, ३, ४,गति, वर्धन् व व सन्तति वर्धन्, लिन्ग् भिन्नत्ः सेक्सुअल्-स्वचालित् प्राणी सन्तति प्रक्रियाके अस्तित्व् में आने को आधुनिक् विग्यान् प्रायः संयोग् ही मानता है । कोई निश्चित् मान्यता नहीं है। डार्विनिस्म् के अनुसार् एक् कोशीय् प्राणी से क्रमिक् विकास् द्वाराबहु कोशीय् प्राणी, जल्र चर्, जल् स्थलचर्,कीट्,सरीस्रप्,पक्षी,स्तनधारी,वानर् व मानव् बना।कैसे? इस् सन्दर्भ में,डार्विन् के अनुसार् चार् प्रमुख् बिन्दुहें-
क.-जीवन् के लिये सन्ग्राम्-(स्ट्रगल् फ़ोर् एग्सिस्टेन्स)- प्रत्येक् जीव धारी अपने ज़िन्दा रहने के लिये सन्घर्ष करता है, और् अपने आप् को परिस्थितियों के योग्य् बनाने का प्रयत्न् करता है।ओर्--
ख.-सन्ग्राम् कें उपयुक्त् ही जीवित् रहता है(सर्वाइवल् ओफ़् फ़िटेस्ट्) तथा सम्वर्धन् ,वर्धन् व प्रगति करता है।तथा-
.-प्राक्रतिक् चुनाव्(नेचुरल् सिलेक्सन्)- प्रक्रति स्वयम् चुनाव् करती है ,कौन् रहेगा,कैसे व कितना वर्धन् ओर् कब् प्रगति करेगा-तथा
घ.-उत्परिवर्तन् (म्यूटेशन्)- अर्थात् किसी भी जीवधारी में अचानक् किसी भी प्रकार् का स्वतः बदलाव् आ सकता है,जो परिस्थिति,वातावरण्, आवश्यकता के अनुसार् या बिना कारण् के भी हो सकता है
५-मानव् का विकास् क्रम्--जैसा ऊपर् बताया गयाहै, डार्विन् के अनुसार् आधुनिक् मानव् उप्रोक्त् बिन्दुओं के अनुसार् मत्स्य् सेसरीस्रप्, फ़िर् वानर्,चिम्पेन्जी,गोरिल्ला सेक्रमिक् विकास् से मानव् बना ।
-------अगले अन्क् में उप्रोक्त् १ से ५ तक विषय् विन्दुओं पर् वेदिक् विग्यान् सम्मत् धारणाओं पर् प्रकाश् डाला जायगा।
------

शनिवार, 4 जुलाई 2009

काले मतवाले घन -घनाक्षरी छंद

लीजिये चौमासे लग गए ,आइये वर्षा की फुहारों में चार कवित्त छंदों से भीगने का आनंद लीजिये ----
काले-काले मतवाले घिरे घनघोर घन ,
बरखा सुहानी आई ऋतुओं की रानी है।
रिमझिम-रिमझिम रस की फुहार झरें ,
बह रही मंद-मंद पुरवा सुहानी है।
दम-दम दामिनि,दमकि रही ,जैसे प्रिय ,
विहंसि-विहंसि ,सखियों से बतरानी है।
बरसें झनन -झन, घनन -घन गरजें ,
श्याम ' डरे जिया,उठै कसक पुरानी है॥

टप-टप बूँद गिरें , खेत गली बाग़ वन ,
छत,छान छप्पर चुए,बरसा का पानी ।
ढ र ढ र जल चलै,नदी नार पोखर ताल ,
माया वश जीव चले राह मनमानी।
सूखी, सूखी नदिया,बहन लगी भरि जल,
पाइ सुसुयोग ज्यों हो उमंगी जवानी ।
श्याम ' गली मग राह,ताल ओ तलैया बने ,
जलके जंतु क्रीडा करें, बोलें बहु बानी॥

वन-वन मुरिला बोलें,बागन मोरलिया,
टर-टर रट यूँ लगाए रे दादुरवा ।
चतुर टिटहरी चाह ,पग टिके आकाश ,
चक्रवाक अब न लगाए रे चकरवा ।
सारस बतख बक ,जल में विहार करें,
पिऊ ,पिऊ टेर,यूँ लगाए रे पपिहवा ।
मन बाढ़े प्रीति,औ तन में अगन श्याम,
छत पै सजन भीजे ,सजनी अंगनवा ॥

खनन खनन मेहा,पडे टीन छत छान ,
छनन -छनन छनकावे द्वार अंगना ।
पिया की दिवानी,झनकाये ज्यों पायलिया,
नवल -नवेली खनकाय रही कंगना ।
कैसे बंधे धीर सखि,जियरा को चैन आबै,
बरसें नयन , उठे मन में तरंग ना ।
बरखा दिवानी हरषावे, धड़कावे जिया ,
ऋतु है सुहानी ,श्याम' पिया मोरे संग ना॥


शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

वेदों की पठशाला--एक आइ.ए.एस. का अभिनव प्रयोग

एक रिटायर्ड आइ.ए.एस. हैं,विधु त्रिवेदी- जिन्होंने अ्पने जीवन के निचोड से जाना कि बच्चों को वेद की शिक्षा आवश्यक है ओर जुट गये पढाने में,आधुनिक विग्यान व व्यवहार से अपने इतिहास, सन्स्कार,शास्त्रों की मर्यादा व ग्यान का क्यों व कैसे सामन्जस्य करना चाहिये ,सीखें।वे औरों को भी समेटने में लगे हैं। पढिये यह आलेख जो उन लोगों के मुंह पर तमाचा है जो वेदिक ग्यान को खन्डहर, कचरा आदि बताने में लगे हैं और अन्य देशों के पिछलग्गू होकर सिर्फ़ उनके गीत
गाने एवम उनकी पीठपर अपनी रोटी सेंकने व भोग-भोगने में लगे हें।
स्वयम ही पढें व समझें,सोचें

स्वाइन फ़्लू--तथ्य व भूमिका?, भारत व अमेरिका व विश्व के आचरण

यद्यपि लेखिका सुनीता नारायण का पहले ही वाक्यों में कहना है कि यह सूअर खाने से नहीं फ़ैलता,पर उनके लेख से पता चलता है कि यह वाइरस,मेक्सिको की पोर्क खाद्य बनाने वाली फ़ेक्टरी से फ़ैला जो अपना कचरा जल,नदी,आदि में फ़ैंक कर प्रदूषण फ़ैला ते हैं। लोकल जनता के प्रदर्शनों का भी आर्थिक लाबी के कार कोई असर नहीं हुआ। इन कम्पनियों ने विश्व स्वास्थ्य सन्गठन पर दवाब डाला कि पोर्क खाना बन्द न किया जाय।यही हाल,बर्ड-फ़्लूव अन्य मांस -भोजन के साथ है. पता चलता है कि अमेरिका में सारा कचरा नदियों ,समुद्र में बहाया जाता है जो प्रदूषण का कारण बनरहा है।
अब आप ही समझिये -जन्नत की हकीकत--,व क्यों मांस खाना ही निसिद्ध है,और भ्रष्टाचार, प्रदूषण,राज्नीति की गन्दगी,साफ़-सफ़ाई, नदियों का प्रदूषण आदि--भारत व अमरीका में कहां, कितना अन्तर है। अभी जुम्मा-जुम्मा ४०० साल की उम्र है,ये हाल!, ४०००० हज़ार साल उम्र होगी तो क्या होगा???